बच्चों की ज़रूरतें और ख्वाहिशें
बच्चे को जन्म से ही प्यार भरी देखभाल की ज़रूरत होती है। इसमें उसे प्यार से सहलाना और माँ-बच्चे के बीच त्वचा-से-त्वचा का संपर्क होना शामिल है। कुछ डॉक्टरों का मानना है कि बच्चे के जन्म से लेकर अगले 12 घंटों तक, उसके साथ जो कुछ होता है, उसका उस पर गहरा असर पड़ता है। उनका कहना है कि प्रसव के फौरन बाद, जच्चा-बच्चा को “न तो नींद की न भोजन की, बल्कि एक-दूसरे के करीब रहने, एक-दूसरे को देखने और सुनने की ज़रूरत होती है।”a
हर माँ-बाप की इच्छा होती है कि वे अपने बच्चे को गोद में उठाएँ, छाती से लगाएँ, उसे सहलाएँ और उस पर अपना सारा प्यार लुटाएँ। इस लाड़-प्यार की वजह से बच्चे का माता-पिता के साथ एक गहरा रिश्ता बन जाता है और वह उनके प्यार का जवाब प्यार से देने लगता है। इस रिश्ते में इतनी ताकत है कि माता-पिता, अपने नन्हे-मुन्ने के लिए हर त्याग करने को तैयार रहते हैं।
दूसरी तरफ, अगर माता-पिता और बच्चे के बीच प्यार भरा रिश्ता न हो, तो बच्चा बीमार होकर मर भी सकता है। इसीलिए, कुछ डॉक्टरों का मानना है कि बच्चे के जन्म के फौरन बाद उसे अपनी माँ के हाथ में देना बहुत ज़रूरी है और माँ और बच्चे को कम-से-कम 30 से 60 मिनट तक एक-दूसरे के साथ होना चाहिए।
हालाँकि कुछ लोग कहते हैं कि बच्चे के पैदा होने के फौरन बाद उसके और माँ के बीच करीबी रिश्ता कायम होना ज़रूरी है, मगर कुछ अस्पतालों में यह बहुत मुश्किल है, यहाँ तक कि नामुमकिन भी। नवजात शिशु को संक्रमण होने के डर से अकसर उसे माँ से अलग रखा जाता है। लेकिन कुछ सबूतों से पता चला है कि बच्चे को माँ के पास रखने से असल में जानलेवा संक्रमण होने का खतरा कम हो जाता है। इसलिए अब ज़्यादा-से-ज़्यादा अस्पताल, माँ और नवजात शिशु को काफी देर तक साथ-साथ रहने की इजाज़त दे रहे हैं।
चिंता कि करीबी रिश्ता कायम होगा या नहीं
कुछ माओं के दिल में अपने बच्चे को पहली बार देखते ही प्यार नहीं उमड़ता। इसलिए वे चिंता करने लगती हैं कि ‘क्या मैं अपने बच्चे के साथ करीबी रिश्ता कायम कर पाऊँगी?’ यह सच है कि सभी माओं को पहली नज़र में अपने बच्चे से प्यार नहीं हो जाता, मगर परेशान मत होइए।
माँ की ममता आज नहीं तो कल ज़रूर उभरेगी। एक अनुभवी माँ का कहना है कि “आप बच्चे के साथ करीबी रिश्ता बना पाएँगी या नहीं, यह जन्म के वक्त होनेवाली किसी एक घटना से तय नहीं होता।” अगर आप माँ बननेवाली हैं और यह चिंता आपको खाए जा रही है, तो इस बारे में अपने डॉक्टर से पहले ही बात कर लेना अच्छा होगा। उसे साफ-साफ बताइए कि प्रसव के बाद आप अपने बच्चे के साथ कब और कितना वक्त गुज़ारना चाहेंगी।
“मुझसे बात करो ना!”
शिशु की ज़िंदगी में एक दौर ऐसा आता है जब उसमें कुछ बातों को फौरन सीखने और समझने की काबिलीयत होती है। मगर यह दौर सिर्फ कुछ समय के लिए होता है। मिसाल के लिए, नन्हा बच्चा बड़ी आसानी से एक भाषा सीख लेता है, और कभी-कभी एक-से-ज़्यादा। मगर पाँच साल के होते-होते उसकी यह काबिलीयत कम होने लगती है।
जब वह बारह-चौदह साल का होता है, तब उसके लिए नयी भाषा सीखना बहुत मुश्किल हो जाता है। बाल-विशेषज्ञ और तंत्रिका विज्ञानी, पीटर हुटनलॉकर के मुताबिक उसी उम्र में “मस्तिष्क का जो हिस्सा भाषा सीखने में मदद देता है, उसमें पाए जानेवाले सिनैप्सिस की सघनता घट जाती है और उनकी गिनती कम हो जाती है।” इससे साफ ज़ाहिर होता है कि भाषा सीखने में शिशु के पहले कुछ साल कितनी अहमियत रखते हैं!
आखिर शिशु बोलना कैसे सीख लेता है, जो उसके दिमागी विकास के लिए बहुत ज़रूरी है? खासकर वह अपने माता-पिता से सीखता है जब वे उससे बात करते हैं। शिशु, आम तौर पर इंसानों की बातों का जवाब देता है। मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेकनॉलजी के बैरी ऐरन्स कहते हैं: “बच्चा . . . अपनी माँ की आवाज़ सुनकर उसकी नकल करता है।” दिलचस्पी की बात यह है कि वह हर तरह की आवाज़ की नकल नहीं करता। जैसा कि ऐरन्स कहते हैं, वह “पालने की आवाज़ की नकल नहीं करता जो वह माँ की आवाज़ के साथ-साथ सुनता है।”
माता-पिता चाहे किसी भी देश के हों या उनकी संस्कृति चाहे जो हो, जब वे अपने बच्चे से बात करते हैं तो अकसर एक सुरीले अंदाज़ में करते हैं। और उनकी प्यार-भरी बातें सुनते वक्त बच्चे के दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है। माना जाता है कि इस लहज़े में बात करने से, बच्चे जल्द ही पहचानने लगते हैं कि कौन-सा शब्द किस चीज़ के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। हालाँकि एक शिशु बोल नहीं पाता मगर वह अपने हाव-भाव से माता-पिता से यही कहता है: “मुझसे बात करो ना!”
“मुझ पर ध्यान दो ना!”
यह बात सच पायी गयी है कि पहले एक-डेढ़ साल के दौरान बच्चे का खासकर अपनी देखभाल करनेवाले से लगाव हो जाता है। आम तौर पर यह उसकी माँ होती है। और जो बच्चे अपनी माँ के साए में सुरक्षित महसूस करते हैं, वे बड़ी आसानी से दूसरों के साथ दोस्ती कर लेते हैं। दूसरी तरफ जिन्हें यह सुख नहीं मिलता, वे दूसरों से हमेशा कटे-कटे रहते हैं। माना जाता है कि बच्चे के तीन साल के होते-होते माँ और बच्चे के बीच करीबी रिश्ता कायम होना ज़रूरी है।
अगर बच्चे को इन नाज़ुक सालों के दौरान, जब उसके दिलो-दिमाग पर हर बात का गहरा असर होता है, ध्यान न दिया जाए तो क्या हो सकता है? मार्था फैरल एरिक्सन ने 20 से ज़्यादा सालों तक 267 माओं और उनके बच्चों पर अध्ययन किया है। इस मामले में वे कहती हैं: “बच्चे को नज़रअंदाज़ करने से, धीरे-धीरे उसका जोश मिटने लगता है और एक वक्त ऐसा आता है जब [बच्चे] में रिश्ते बनाने या दुनिया के बारे में जानने की कोई इच्छा नहीं रह जाती।”
‘टेक्सस चिल्डरन्स हॉस्पिटल’ के डॉ. ब्रूस पेरी का मानना है कि बच्चों के जज़्बात को नज़रअंदाज़ करने के भयानक अंजाम होते हैं। अपनी इस राय को अच्छी तरह समझाने के लिए उन्होंने कहा: “अगर आप मुझसे छः महीने के एक बच्चे की एक-एक हड्डी तोड़ने या दो महीने तक उसे बिलकुल प्यार न देकर नज़रअंदाज़ करने को कहें, तो मैं बच्चे की हड्डी तोड़ना बेहतर समझूँगा।” क्यों? डॉ. पेरी आगे कहते हैं: “हड्डियाँ तो फिर भी जुड़ जाएँगी, लेकिन अगर बच्चे को दो महीने तक नज़रअंदाज़ किया जाए, तो जो चोट उसके दिलो-दिमाग पर लगेगी, उसका बुरा असर ज़िंदगी-भर के लिए रह जाएगा।” हालाँकि इस बात से हर कोई सहमत नहीं मगर वैज्ञानिकों के अध्ययन दिखाते हैं कि बच्चे के नन्हे दिमाग को सही तरह से बढ़ने के लिए उसका प्यार भरे माहौल में पलना-बढ़ना बहुत ज़रूरी है।
किताब, बच्चे (अँग्रेज़ी) कहती है: “चंद शब्दों में कहें तो [बच्चे] हर पल प्यार पाना और प्यार देना चाहते हैं।” अकसर जब बच्चा रोता है, तो मानो वह अपने माता-पिता से कह रहा होता है: “मुझ पर ध्यान दो ना!” ऐसे में माता-पिता को प्यार से उसकी ज़रूरत पूरी करनी चाहिए। इससे बच्चे को एहसास होगा कि वह अपनी बात दूसरों को बताने में कामयाब हो रहा है। इस तरह वह धीरे-धीरे दूसरों के साथ मेल-जोल बढ़ाना सीख रहा होता है।
‘क्या मैं बच्चे को बिगाड़ नहीं दूँगी?’
आप पूछें: ‘बच्चे के रोने पर हर बार अगर मैं उसके पास दौड़ी चली जाऊँ, तो क्या मैं उसे बिगाड़ नहीं दूँगी?’ शायद हाँ, मगर इस बारे में लोगों की अलग-अलग राय हैं। हर बच्चा एक जैसा नहीं होता, इसलिए आम तौर पर माता-पिता को तय करना चाहिए कि बच्चे के रोने पर क्या करना बेहतर होगा। बहरहाल, कुछ हालिया खोजों से पता चला है कि जब किसी नवजात शिशु को भूख लगती है, जब वह बेचैन या चिड़चिड़ा महसूस करता है तो उसका शरीर स्ट्रेस हार्मोन नाम का रसायन छोड़ता है। ऐसे में वह अपनी परेशानी रोकर ज़ाहिर करता है। कहा जाता है कि जब माता या पिता बच्चे की तकलीफ देखकर उसकी मदद के लिए आते हैं, तो उसके मस्तिष्क में कोशिकाओं के ऐसे समूह बनते हैं जो उसे चुप हो जाने में मदद देते हैं। इतना ही नहीं, डॉ. मेगन गुन्नार के मुताबिक, जब बच्चे की ज़रूरत फौरन पूरी की जाती है तब वह कम मात्रा में स्ट्रेस हार्मोन कॉर्टीसल पैदा करता है। और अगर वह रोता भी है, तो जल्द शांत हो जाता है।
एरिक्सन कहती हैं: “जिन बच्चों के हर बार रोने पर उनकी तरफ फौरन ध्यान दिया जाता है, खासकर जब वे छः से आठ महीने के होते हैं, वे असल में उन बच्चों के मुकाबले कम रोते हैं जिन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।” बच्चे के रोने पर उसे शांत करने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाना भी ज़रूरी है। अगर हर बार उसे चुप कराने के लिए दूध पिलाया जाए या गोद में उठाया जाए तो वह सचमुच बिगड़ सकता है। कभी-कभार उसके रोने के जवाब में आपका कुछ कहना ही काफी है। या उसके करीब जाकर उसके कानों में प्यार से दो-चार बातें करना भी असरदार साबित हो सकता है। या सिर्फ उसकी पीठ या पेट सहलाने से भी वह फौरन चुप हो सकता है।
पूर्वी देशों में एक कहावत है: “बच्चे का तो काम ही है रोना।” मगर बच्चों के लिए मदद माँगने का यही तो सबसे खास तरीका है। मान लीजिए, आपको किसी चीज़ की ज़रूरत है मगर जब भी आप माँगते हैं, आप पर कोई ध्यान नहीं देता। ऐसे में आपको कैसा लगेगा? उसी तरह, आपका बच्चा जो अपने आप कुछ नहीं कर सकता, उसे कैसा महसूस होगा अगर उसके रोने पर कभी ध्यान न दिया जाए? अब सवाल यह है कि बच्चे के रोने पर किसे उसकी मदद करनी चाहिए?
बच्चे की देखभाल—किसकी ज़िम्मेदारी?
हाल ही में अमरीका की आबादी की गणना की गयी और उनसे कुछ सवाल पूछे गए। इस पूछताछ से पता चला कि जन्म से लेकर तीसरी कक्षा तक चौवन प्रतिशत लोगों की देखभाल ज़्यादातर उनके माता-पिता ने नहीं बल्कि किसी और ने की थी। कई परिवारों में घर का खर्चा चलाने के लिए माँ और पिता दोनों को नौकरी करनी पड़ती है। ऐसे परिवारों में कई माएँ, हो सके तो मेटर्निटी-लीव लेती हैं ताकि प्रसव के बाद कुछ हफ्तों या महीनों के लिए अपने शिशु की देखरेख खुद कर सकें। लेकिन उसके बाद बच्चे की देखभाल कौन करेगा?
बेशक इस बारे में कोई पक्के नियम नहीं हैं कि माता-पिता को क्या करना चाहिए। लेकिन उन्हें याद रखना अच्छा होगा कि बच्चे को ज़िंदगी के इस नाज़ुक दौर में अपने माता-पिता की सख्त ज़रूरत है। इसलिए इस बारे में दोनों को गंभीरता से सोचना होगा। और फैसला करने से पहले उनके सामने क्या-क्या रास्ते खुले हैं, उनकी अच्छी तरह जाँच करनी होगी।
अमरीकी बाल चिकित्सा अकादमी के डॉ. जोसफ ज़ान्गा कहते हैं: “यह बात दिनों-दिन साफ ज़ाहिर हो रही है कि देखभाल के लिए बच्चे को चाहे अच्छे-से-अच्छे शिशु-केंद्र में ही क्यों न डाला जाए लेकिन माता-पिता बच्चे के साथ समय बिताने की अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं छूट जाते।” कुछ विशेषज्ञों ने चिंता ज़ाहिर की है कि शिशु-केंद्रों में बच्चों की देखभाल करनेवाले, उनको उतना प्यार और समय नहीं देते जितना उनके लिए ज़रूरी है।
कुछ कामकाजी माओं ने बच्चों की खास ज़रूरतों को समझते हुए घर में रहकर खुद उनका लालन-पालन करने का फैसला किया है, बजाय इसके कि कोई दूसरा यह काम करे। एक माँ ने कहा: “मैं सच्चे दिल से कह सकती हूँ कि मुझे इस काम से जितना संतोष मिला है, वह किसी और काम से नहीं मिल सकता।” बेशक पैसे की तंगी की वजह से सभी माएँ चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाती हैं। कई माता-पिताओं के पास अपने बच्चों को शिशु-केंद्र में रखने के अलावा कोई चारा नहीं होता, इसलिए जब भी उन्हें अपने बच्चों के साथ समय बिताने का मौका मिलता है, वे उन पर ध्यान देने और प्यार दिखाने की भरसक कोशिश करते हैं। उसी तरह, अकेले बच्चों की परवरिश करनेवाली कामकाजी माओं या पिताओं के पास भी इसके अलावा और कोई चारा नहीं होता। फिर भी, वे अपने बच्चों की परवरिश में कमाल की मेहनत करते हैं और इसका उन्हें बढ़िया फल भी मिला है।
बच्चों की परवरिश करने से ढेरों खुशियाँ मिल सकती हैं, यह एक रोमांचक अनुभव हो सकता है। लेकिन इसमें काफी मुश्किलें भी आ सकती हैं और बहुत से त्याग करने पड़ सकते हैं। आप इस काम में कैसे कामयाब हो सकते हैं? (g03 12/22)
[फुटनोट]
a इन लेखों में सजग होइए! पत्रिका, बच्चों की देखरेख के सिलसिले में कई जाने-माने विशेषज्ञों की राय पेश करती है क्योंकि यह जानकारी माता-पिताओं के लिए बहुत फायदेमंद हो सकती है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि समय-समय पर ये राय बदलती रहती हैं। दूसरी तरफ, बाइबल के स्तर उनसे बिलकुल अलग हैं जो कभी नहीं बदलते और जिनका सजग होइए! बेझिझक बढ़ावा देती है।
[पेज 6 पर बक्स/तसवीर]
गुमसुम बच्चे
जापान के कुछ डॉक्टरों का कहना है कि ऐसे शिशुओं की गिनती बढ़ रही है जो न तो कभी रोते हैं, न मुस्कुराते हैं। बाल-विशेषज्ञ साटोशी यानागीसावा ऐसे शिशुओं को गुमसुम बच्चे कहते हैं। आखिर बच्चे अपनी भावनाएँ ज़ाहिर करना बंद क्यों कर देते हैं? कुछ डॉक्टरों का मानना है कि माता-पिता का स्पर्श यानी उनका प्यार न मिलने की वजह से ऐसा होता है। बच्चे के इस हालत को ‘बेबसी’ का नाम दिया गया है। एक धारणा के मुताबिक, अगर एक शिशु कुछ बताने की कोशिश करे मगर हर बार उसे नज़रअंदाज़ किया जाए या गलत समझा जाए तो वह कोशिश करना बंद कर देता है।
अगर सही समय पर शिशु की ज़रूरत पूरी न की जाए, तो उसके मस्तिष्क का वह हिस्सा बढ़ नहीं पाएगा जो उसे दूसरों के साथ हमदर्दी जताने के काबिल बना सकता है। यह बात, ‘टेक्सस चिल्डरन्स हॉस्पिटल’ में मनोरोगविज्ञान के प्रमुख अधिकारी, डॉ. ब्रूस पेरी ने कही। अगर बच्चे को बिलकुल भी प्यार न दिया जाए, तो उसके अंदर हमदर्दी की भावना इस हद तक मिट जाएगी कि दोबारा पनपना नामुमकिन है। डॉ. पेरी का कहना है कि इस प्यार की कमी की वजह से कुछ बच्चों को, किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते ड्रग्स और शराब की बुरी लत लग जाती है और वे खूँखार बन जाते हैं।
[पेज 7 पर तसवीर]
माँ और बच्चे के बीच होनेवाली बातचीत से उनका रिश्ता मज़बूत होता जाता है