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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1990
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भारत की फ़सल में आनन्द मनाना

एफ. इ. स्किनर द्वारा बताया गया

मेरे लिए यह क़रीब क़रीब विश्‍वास के बाहर था—दस भाषाओं में २१ सम्मेलन, ईश्‍वरीय न्याय का अर्थ जानने के लिए १५,००० से अधिक की उपस्थिति, और न्याय के महान्‌ परमेश्‍वर, यहोवा, के लिए अपने प्रेम के संकेत के रूप में ५४५ व्यक्‍तियों का बपतिस्मा लेना! भारत में, यहोवा के ९००० गवाहों के लिए यह १९८९ की विशिष्टता थी। लेकिन मेरे लिए यह विशेष रूप से आनन्द का कारण था। क्यों? इसलिए कि मैं ऐसी भव्य घटनाओं की कल्पना भी नहीं कर सकता था जब मैंने जुलाई १९२६ को पहली बार भारत की धरती पर क़दम रखा। उस वक्‍त सारे देश में राज्य संदेश के ७० से भी कम प्रचारक थे। मुझे और मेरे साथी को ६४ वर्ष पहले कैसा कार्य सौंपा गया!

मैं भारत कैसे आ पहुँचा

मई १९२६ में, मैं लन्दन, इंग्लैंड, में एक बड़े अधिवेशन में उपस्थित हुआ, और उसके तुरन्त बाद शेफ़ील्ड में अपने घर लौट गया। दो दिन पश्‍चात, क्षेत्र सेवकाई से लौटने के बाद, मैंने एक तार पाया। उस में लिखा था: “जज रदरफोर्ड आपसे मिलना चाहते हैं।”

भाई रदरफोर्ड जो, वॉच टावर सोसायटी के दूसरे अध्यक्ष थे, न्यू यॉर्क से हाल के सम्मेलन के लिए आए थे, और अब भी लन्दन में ठहरे हुए थे। अगली सुबह ट्रेन में वापस लन्दन की ओर जाते वक्‍त, मैं सोच रहा था, ‘इसका क्या अर्थ हो सकता है?’ शाखा कार्यालय में, मुझे भाई रदरफोर्ड के पास ले जाया गया, और उन्होंने मुझ से पूछा: “क्या संसार के किसी भी भाग में कार्य करने में तुम्हें कोई आपत्ति है?”

“नहीं,” मैंने जवाब दिया।

“क्या तुम्हें भारत जाना पसंद होगा?”

“आप कब चाहते हैं कि मैं जाऊँ?” मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के जवाब दिया। इस तरह, तीन सप्ताह बाद, जॉर्ज राइट और मैं उस जहाज़ में थे, जो भारत की ओर रवाना हो गया था। मैं ३१ वर्ष का था और मेरे मन और दिल में इस बात पर कोई शक नहीं था कि मैं अपने जीवन का क्या करना चाहता था।

एक जीवन क्रम का निश्‍चय लेना

१९१८ तक पहला विश्‍व युद्ध समाप्त हो गया था, और मैंने हाल ही ब्रिटिश सेना में चार वर्ष की सेवा पूर्ण की थी। मैं फ़ोटोग्राफ़ी और रेडियो संचारण में रुचि रखता था, और व्यवसाय के अच्छे अवसर मेरे सामने थे। और साथ ही, मैं विवाह के बारे में विचार कर रहा था। फिर भी, उसी वक्‍त, मैं ऐसी बातों पर समझ पाने लगा था जो मेरे जीवन के सम्पूर्ण फ़ोकस को बदल रही थीं।

मेरे पिता ने स्टडीज़ इन द स्क्रिपचर्स की एक सेट को स्वीकार किया था और एक कॉल्पॉर्ट्‌यर ने, जो उस वक्‍त पायनियरों (पूर्ण समय का प्रचारक) का नाम था, हमारे परिवार के साथ बाइबल का अध्ययन आरम्भ किया। वह स्त्री एक अध्यापिका थी। अन्त में, मेरे उमर के जवानों का एक समूह हर शनिवार को एक कप चाय और एक बाइबल अध्ययन के लिए उसके घर जाने लगे थे। “किसी भी प्रदत्त कार्य का इनकार नहीं करना,” यह कहकर, वह बार बार हमसे यही कहतीं कि हमें यहोवा के लिए अपने आप को उपलब्ध कराना चाहिए। उन्होंने मुझे अविवाहित रहने के लिए भी प्रोत्साहित किया।

कुछ समय के लिए मैं उलझन में पड़ गया था कि मैं क्या करूँ। मत्ती १९:२१ में उस अमीर जवान शासक के लिए यीशु के शब्दों ने मेरी मदद की: “यदि तू सिद्ध होना चाहता है, तो जा, अपना माल बेचकर कंगालों को दे; और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा; और आकर मेरे पीछे हो ले।” मैंने उस फ़र्म को अपना इस्तीफ़ा दे दिया जहाँ मैं कार्य कर रहा था, और तीन महिने के अन्दर मैं एक कॉल्पॉर्ट्‌यर बन गया था। यह, और अविवाहित रहने के मेरे निश्‍चय ने मुझे क़रीब चार वर्ष बाद भारत आने का वह अनमोल नियतकार्य प्राप्त करने के योग्य बना दिया।

एक नया विशाल क्षेत्र

जॉर्ज राईट और मुझे केवल भारत में ही राज्य प्रचार कार्य का निरीक्षण करने के लिए नियुक्‍त नहीं किया गया, बल्कि बर्मा (अब मियनमार) और सिलोन (अब श्री लंका) का भी निरीक्षण करने के लिए नियुक्‍त किया गया। बाद में, पर्शिया (अब इरान) और अफ़गानिस्थान भी शामिल किए गए। भारत का विस्तार संयुक्‍त राज्य अमरीका से कुछ कम था, लेकिन उसकी जनसंख्या कई गुणा अधिक थी। यह देश अलग अलग भोजन, रिवाज, भाषाओं और विभिन्‍न धार्मिक विचारों के लोगों का देश था—हिन्दु, मुस्लिम, पार्सी, जईन, सिक्ख, बौद्ध, और साथ ही कैथॉलिक और प्रॉटेस्टन्ट।

भारत में प्रचार कार्य १९०५ में शुरु हुआ था, और इस कार्य को तब प्रेरणा मिली जब वॉच टावर सोसायटी के पहले अध्यक्ष चाल्स टी. रस्सल ने १९१२ में भारत की भेंट की। ए. जे. जोसफ, एक उत्साही बाइबल विद्यार्थी, के साथ रस्सल के साक्षात्कार के परिणामस्वरूप प्रचार कार्य जारी रखने की एक चिरस्थायी व्यवस्था स्थापित हुई। जोसफ ने बाइबल साहित्य को अपनी मूल मलयालम भाषा में भाषान्तर किया और व्यापक रूप से यात्रा की और भाषण दिए, विशेष रूप से दक्षिण भारत में। आज क़रीब भारत के प्रचारकों का आधा हिस्सा इस क्षेत्र में निवास करते हैं जहाँ मलयालम बोली जाती है, यद्यपि भारत की जनसंख्या के केवल ३ प्रतिशत लोग ही वहाँ रहते हैं। यह क्षेत्र, जो पहले ट्रैवनकोर और कोचिन था, १९५६ में केरल राज्य बन गया।

जॉर्ज राईट और मैं बारी बारी से बम्बई के शाखा कार्यालय पर ध्यान देते और विस्तृत प्रचार कार्य यात्राओं पर जाते। हम ने पूर्ण रूप से भारत के रेलमार्गों, घोड़ों, और बैल-गाड़ियों का इस्तेमाल किया। बाद में हमने एक कार का उपयोग किया। उस वक्‍त का विचार था कि केवल साहित्य छोड़कर लोगों को सामूहिक अध्ययन के लिए एक सभा गृह में आने के लिए आमन्त्रण देना। हमने हमारा ध्यान अँग्रेजी बोलनेवाले नामिक मसीहियों पर केंद्रित किया।

पहले, मुझे सभी वॉचटावर ग्राहकों के नाम और पते दिए गए। ये ज़्यादातर रेल या टेलीग्राफ के लोग थे। मैंने वास्तविक रुचि की खोज में, उन में से हरेक से भेंट की। कई वर्षों तक मैं जनवरी में, उत्तर भारत में पंजाब की भेंट करता और लाहौर से कराची तक यात्रा करता। चूँकि अधिकांश लोग बाइबल के विरुद्ध थे, वे गाँव जहाँ नामिक मसीही थे बहुत कम और दूर दूर थे।

एक भाई मेरे साथ एक दुभाषिया के रूप में यात्रा करता, और हम दोनों लोगों के साथ रहते और खाते। गाँव के लोग धूप में पके मिट्टी से बने घरों में, जिनके छप्पर छाने हुए या वृक्षावृत्त थे, निवास करते थे। वे चारपाईयों पर सोते थे। बहुधा किसान हाथ में बाइबल लिए अपने चारपाईयों पर बैठते, और जल-शीतित नलिका (हुक्का) से तंबाकू पीते, जिसकी नली दो से तीन फुट लम्बी होती थी, और जैसे हम परमेश्‍वर की सच्चाईयों का वर्णन करते, वे शास्त्रवचनों को निकालते। बाहर चलायी गयी सभाएं उत्कृष्ट सिद्ध हुईं, क्योंकि वर्ष का अधिकांश भाग वर्षा-रहित था। जब कि बहुतांश यूरोपीय लोग ऐसी सभाओं में उपस्थित होने के लिए दंभ दिखाते थे, भारतीय लोग कहीं भी एकत्रित होते थे।

हम ने जितनी भाषाओं में सम्भव था उतनी भाषाओं में साहित्य प्रकाशित करने की कोशिश की। कन्‍नड़ भाषा में वर्ल्ड डिस्ट्रेस पुस्तिका ने काफ़ी सफलता पायी। इससे एक कन्‍नड़ धार्मिक पत्रिका का संपादक उसकी पत्रिका के लिए लेख देने के उद्देश्‍य से हमें आमन्त्रण देने के लिए प्रेरित हुआ, और कुछ समय तक हम पाक्षिक रूप से डेलिवरन्स पुस्तक को धारावाहिक के तौर से प्रकाशित करते रहे।

१९२६ से १९३८ तक के वर्षों में उत्साही पायनियरों ने विशाल मात्रा में प्रचार कार्य किया। हमने हज़ारों मील यात्रा की, और बड़ी संख्या में साहित्य वितरण किया, लेकिन वृद्धि मर्यादित थी। १९३८ तक केवल १८ पायनियर और सारे भारत देश में बिखरे हुए २४ मण्डलियों में केवल २७३ प्रचारक थे।

विश्‍व युद्ध II के दौरान

विश्‍वयुद्ध II १९३९ में शुरु हुआ, फिर भी हमने हमारे प्रचार कार्य को जारी रखा। वस्तुतः, १९४० के आरम्भ में रस्ते पर गवाही कार्य आरम्भ किया गया। हमारी भारतीय बहनों ने भी भाग लिया, जो कि स्थानीय प्रथाओं को मन में रखते हुए, उल्लेखनीय है। सालों बाद, एक बाइबल विद्यार्थी ने एक गवाह से कहा, जिन्होंने ऐसे कार्य में भाग लेने के लिए उसे आमन्त्रित किया था: “मैं एक भारतीय स्त्री हूँ, और मैं सड़क पर किसी पुरुष के साथ बात-चीत नहीं कर सकती क्योंकि फिर सारे पड़ोस में मेरी बदनामी होगी। अगर रिश्‍तेदार भी हो, तो भी मैं सड़क पर पुरुष के साथ बात नहीं कर सकती।” फिर भी, भारत की हमारी मसीही बहनें उत्साही आम सेवक बन गयी हैं।

उन प्रारम्भिक वर्षों में, सम्मेलनों की भी व्यवस्था की जाती थी। सुबहों को क्षेत्र सेवकाई के लिए अर्पित किया जाता था, जिस में कई मील तक निवासियों को और राहगीरों को आम सभाओं के बारे में बताते हुए चलना होता था। ऐसी ही एक सभा में ३०० से अधिक लोग उपस्थित हुए, जहाँ सत्र बाँस और ताड़-पत्र से बने ढाँचे की छाया में चलाए जाते थे। लेकिन शुरु करने के लिए कोई निश्‍चित समय सूचित करना लाभदायक नहीं था, क्योंकि बहुत कम लोगों के पास घड़ी होती था। वे तब आते जब उन्हें आने का मन करता, और सभाएं तब शुरु होतीं जब काफ़ी मात्रा में श्रोतागण उपस्थित होता था। सभा जैसे आगे बढ़ती जाती, एक-आध लोग आते रहते।

यह कार्यक्रम साधारणतः रात के दस बजे तक चलता, और फिर बहुतों को घर पहुँचने के लिए मीलों चलना पड़ता। अगर चाँदनी होती तो बहुत अच्छा था; शीतल और आनन्दमय रहता। अगर चाँदनी रात नहीं होती, तो लोग एक ताड़ की ड़ाल लेते और उसकी मशाल बनाते। सुलगाने पर यह मशाल उत्तप्त होकर एक धुँधला-सा लाल रंग दिखाता। जब अधिक उजाले की आवश्‍यकता होती, इस मशाल को हवा में तब तक घुमाया जाता जब तक वह जलने लगता। यह असम ज़मीन पर चलने के लिए काफ़ी प्रकाश देता।

लगभग इसी समय, भारत और सिलोन में सोसायटी के साहित्य के आयात पर सरकारी प्रतिबन्ध लगाया गया। ट्रॅवनकोर में हमारा छोटा मुद्रण-यन्त्र ज़ब्त किया गया और केंद्रीय सरकार ने हमारे साहित्य की छपाई वर्जित करने का आदेश जारी किया। बाद में, १९४४ में, हमारे एक भाई, जो भौतिक चिकित्सा करते थे, वाइसराय के मन्त्रीमण्डल के एक मन्त्री, सर श्रीवास्तवा, का इलाज कर रहे थे, और उन्होंने उनके सामने प्रतिबन्ध का विषय छेड़ दिया।

“खैर, चिन्ता न करो,” हमारे भाई से कहा गया। सर श्रीवास्तवा ने उन से कहा कि श्री. जेंकिन्स (एक मन्त्री जो हमारे कार्य की ओर प्रतिकूल चित्त-वृत्ति रखता था) जल्द ही सेवा-निवृत्त होनेवाले थे और सर श्रीवास्तवा के एक अच्छे मित्र उनके बदले में आनेवाले थे। सर श्रीवास्तवा ने प्रोत्साहित किया, “श्री. स्किनर से आने के लिए कहिए और सर फ्रॅन्सिस म्यूडी से मैं उनका परिचय कराऊँगा”, जो कि जेंकिन्स के बदले में आनेवाले थे। अन्ततः, मुझे बुलाया गया; मैंने श्री. म्यूडी से बात की, और सरकारी तौर से दिसम्बर ९, १९४४, को यह प्रतिबन्ध निकाला गया।

आनन्द मनाने के कारण

आनन्द मनाने का एक महान कारण १९४७ में आ गया, जब भारत में पहली बार गिलियाद-प्रशिक्षित मिशनरी आए। उनके आगमन का समय भारत के इतिहास की एक संगीन घड़ी से मिल गया, क्योंकि ठीक उसी वर्ष, अगस्त १५ को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। जब देश हिन्दु भारत और मुसलमान पाकिस्तान में विभाजित हुआ, रक्‍तरंजित हत्याएं हुई। इन सब के बावजूद, दो गिलियाद स्नातकों को पाकिस्तान भेजा गया, जो अगस्त १४ को एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया था। जल्द ही और दस मिशनरी भारत में ही कार्य कर रहे थे, और आगामी वर्षों में और कई मिशनरी मदद करने के लिए आए।

संघटनात्मक कार्यविधियाँ प्रारम्भ होने पर मेरे दिल में और भी आनन्द उत्पन्‍न होने लगा। १९५५ में सर्किट कार्य आरम्भ हुआ जब भाई डिक्‌ कॉटरिल, एक गिलियाद स्नातक, पहला सर्किट ओवरसियर के रूप में नियुक्‍त किया गया। वे विश्‍वासपूर्वक १९८८ में अपनी मृत्यु तक कार्य करते रहे। फिर, १९६० में, हमारी पहली डिस्ट्रिक्ट ओवरसियर व्यवस्था आरम्भ हुई, जिस से हमारे सर्किटों को बहुत मदद हुई। १९६६ के बाद विदेशी मिशनरियों को इस देश में प्रवेश करने की अनुमति नहीं मिली। लेकिन जल्द ही खास पायनियर कार्य शुरु किया गया और योग्य भारतीय पायनियरों को भारत के कई क्षेत्रों में भेजा गया। आज, इस कार्य में कुछ ३०० व्यक्‍ति शामिल हैं।

१९५८ होने पर ही हम आख़िर १,००० राज्य प्रकाशकों की संख्या तक पहुँचे। लेकिन बाद में गति बढ़ने लगी, और अब हमारे पास ९,००० से भी अधिक हैं। इसके अलावा, हमारे १९८९ स्मारक दिन की उपस्थिति जो २४,१४४ थी, बताती है कि और कई रुचि रखनेवाले मदद चाहते हैं। श्री लंका अब एक अलग शाखा है। यह कितनी खुशी की बात है कि वे उनके देश में चल रही लड़ाई के बावजूद, १९४४ में दो प्रचारकों से आज १,००० से भी अधिक बन गए हैं।

प्रचारकों में वृद्धि से हमारे शाखा में भी वृद्धि हुई है। बम्बई की दौड़-धूप में ५२ वर्ष बीताने के बाद, १९७८ में हमारे मुख्यालय को निकट के एक नगर, लोनावला में स्थापित किया गया। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हमारे पास कई भारतीय भाषाओं में साहित्य छापने के लिए मेप्स कम्प्यूटर्स और एक बड़े द्विरंगी मुद्रण-यन्त्र जैसे कृत्रिम उपकरण कभी होंगे। आज हम द वॉचटावर ९ भाषाओं में और अन्य साहित्य २० भाषाओं में तैयार कर रहे हैं।

यह कहना अनावश्‍यक है कि हमारे दो-पुरुष शाखा के दिन कब के समाम्त हुए हैं। अब हमारे पास ६० से भी अधिक सदस्यों का एक बेथेल परिवार है! ९५ वर्ष की उमर में, शाखा कार्यालय में पूर्ण-समय की सेवकाई में अब भी होने और भारत की शाखा कमिटी के एक सदस्य के रूप में कार्य करने में मैं खुश हूँ। और इन अन्तिम दिनों के फ़सल कार्य को देखकर मैं विशेष रूप से पुलकित हूँ। सचमुच, यह आनन्द मनाने की बात है।

[पेज 29 पर एफ.ई.स्किन्‍नर की तसवीर]

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