अधिकार के प्रति आनन्दपूर्ण अधीनता
‘तुम मन से माननेवाले हो गए।’—रोमियों ६:१७.
१, २. (क) आज संसार में कौन-सी आत्मा प्रकट है, और उसका स्रोत और प्रभाव क्या हैं? (ख) यहोवा के समर्पित सेवक कैसे दिखाते हैं कि वे भिन्न हैं?
‘वह आत्मा जो अब भी आज्ञा न माननेवालों में कार्य्य करती है’ आज भयप्रद रूप से प्रकट है। यह अनियंत्रित स्वतंत्रता की आत्मा है, जो “आकाश [हवा, NW] के अधिकार के हाकिम” शैतान से उत्पन्न होती है। यह आत्मा, यह “हवा,” या स्वार्थ और अवज्ञा की प्रबल मनोवृत्ति अधिकांश मानवजाति पर “अधिकार” या शक्ति का प्रयोग करती है। यह एक कारण है कि क्यों संसार एक ऐसी स्थिति से गुज़र रहा है जिसे अधिकार की संकट-स्थिति कहा गया है।—इफिसियों २:२.
२ यह ख़ुशी की बात है कि यहोवा के समर्पित गवाह आज अपने आध्यात्मिक फेफड़ों को इस दूषित “हवा” या विद्रोह की आत्मा से नहीं भरते हैं। वे जानते हैं कि ‘परमेश्वर का क्रोध आज्ञा न माननेवालों पर भड़कनेवाला है।’ प्रेरित पौलुस आगे कहता है: “इसलिये तुम उन के सहभागी न हो।” (इफिसियों ५:६, ७) इसके बजाय, सच्चे मसीही “[यहोवा की] आत्मा से परिपूर्ण” होने का प्रयास करते हैं, और “जो ज्ञान ऊपर से आता है” उसे वे पीते हैं। यह ज्ञान “पवित्र, फिर शान्तिमय, तर्कसंगत, आज्ञा मानने के लिए तैयार” होता है।—इफिसियों ५:१७, १८; याकूब ३:१७, NW.
यहोवा की सर्वसत्ता के प्रति स्वैच्छिक अधीनता
३. स्वैच्छिक अधीनता की कुँजी क्या है, और इतिहास हमें कौन-सा बड़ा सबक़ सिखाता है?
३ स्वैच्छिक अधीनता की कुँजी है न्यायसंगत अधिकार का स्वीकरण। मानवजाति का इतिहास दिखाता है कि यहोवा की सर्वसत्ता का अस्वीकरण ख़ुशी नहीं लाता है। ऐसा अस्वीकरण न तो आदम और हव्वा के लिए, और न ही उनके विद्रोह के उकसानेवाले, शैतान अर्थात् इब्लीस के लिए ख़ुशी लाया। (उत्पत्ति ३:१६-१९) अपनी वर्तमान अवमानित स्थिति में शैतान “बड़े क्रोध” में है क्योंकि वह जानता है कि उसका समय थोड़ा है। (प्रकाशितवाक्य १२:१२) मानवजाति की, जी हाँ, पूरे विश्व की शान्ति और ख़ुशी यहोवा की धर्मी सर्वसत्ता के विश्वव्यापी स्वीकरण पर निर्भर है।—भजन १०३:१९-२२.
४. (क) यहोवा क्या चाहता है कि उसके सेवक किस क़िस्म की अधीनता और आज्ञाकारिता दिखाएँ? (ख) हमें किस बात के बारे में विश्वस्त होना चाहिए, और भजनहार इसे कैसे व्यक्त करता है?
४ फिर भी, अपने अद्भुत रूप से संतुलित गुणों के कारण, यहोवा भावशून्य आज्ञाकारिता से संतुष्ट नहीं होता है। जी हाँ! वह शक्तिशाली है, लेकिन वह तानाशाह नहीं है। वह प्रेम का परमेश्वर है, और वह चाहता है कि उसके बुद्धिमान प्राणी स्वेच्छा से, प्रेम के कारण उसकी आज्ञा मानें। वह चाहता है कि वे उसकी सर्वसत्ता के अधीन आएँ इसलिए कि वे पूरे मन से अपने आपको उसके धर्मी और न्यायसंगत अधिकार के अधीन करने का चुनाव करते हैं, और विश्वस्त हैं कि उनके लिए सर्वदा उसकी आज्ञा मानने से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता। यहोवा अपने विश्व में उस क़िस्म के व्यक्ति को चाहता है जो भजनहार की भावनाओं से सहमत है, जिसने लिखा: “यहोवा की व्यवस्था खरी है, वह प्राण को बहाल कर देती है; यहोवा के नियम विश्वासयोग्य हैं, साधारण लोगों को बुद्धिमान बना देते हैं; यहोवा के उपदेश सिद्ध हैं, हृदय को आनन्दित कर देते हैं; यहोवा की आज्ञा निर्मल है, वह आंखों में ज्योति ले आती है; यहोवा का भय पवित्र है, वह अनन्तकाल तक स्थिर रहता है; यहोवा के नियम सत्य और पूरी रीति से धर्ममय हैं।” (भजन १९:७-९) यहोवा की सर्वसत्ता की न्यायशीलता और धार्मिकता पर निश्चित विश्वास—हमारी मनोवृत्ति ऐसी होनी चाहिए यदि हम यहोवा के नए संसार में जीना चाहते हैं।
हमारे राजा के प्रति आनन्दपूर्ण अधीनता
५. यीशु को अपनी आज्ञाकारिता के लिए क्या प्रतिफल मिला, और हम स्वेच्छा से क्या स्वीकार करते हैं?
५ स्वयं मसीह यीशु अपने स्वर्गीय पिता के प्रति अधीनता का एक उत्तम उदाहरण है। हम पढ़ते हैं कि उसने “अपने आप को दीन किया, और यहां तक आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां, क्रूस [यातना स्तंभ, NW] की मृत्यु भी सह ली।” पौलुस आगे कहता है: “इस कारण परमेश्वर ने उसको अति महान भी किया, और उसको वह नाम दिया जो सब नामों में श्रेष्ठ है। कि जो स्वर्ग में और पृथ्वी पर और जो पृथ्वी के नीचे हैं; वे सब यीशु के नाम पर घुटना टेकें। और परमेश्वर पिता की महिमा के लिये हर एक जीभ अंगीकार कर ले कि यीशु मसीह ही प्रभु है।” (फिलिप्पियों २:८-११) हाँ, हम अपने अगुवे और सत्तारूढ़ राजा, मसीह यीशु के सामने आनन्दपूर्वक घुटने टेकते हैं।—मत्ती २३:१०.
६. किस प्रकार यीशु राज्य राज्य के लोगों के लिए एक गवाह और अगुवा साबित हुआ है, और किस प्रकार उसकी “प्रभुता” बड़े क्लेश के बाद जारी रहेगी?
६ हमारे अगुवे के रूप में मसीह के बारे में यहोवा ने भविष्यवाणी की: “सुनो, मैं ने उसको राज्य राज्य के लोगों के लिये साक्षी और प्रधान और आज्ञा देनेवाला ठहराया है।” (यशायाह ५५:४) अपनी पार्थिव सेवकाई के द्वारा और अपनी मृत्यु और पुनरुत्थान के बाद स्वर्ग से प्रचार कार्य को निर्देशित करने के द्वारा यीशु ने सभी राष्ट्रों के लोगों के प्रति ख़ुद को अपने पिता का “विश्वासयोग्य और सच्चा गवाह” दिखाया है। (प्रकाशितवाक्य ३:१४; मत्ती २८:१८-२०) ऐसे राज्य राज्य के लोग आज बढ़ती संख्या में “बड़ी भीड़” द्वारा चित्रित होते हैं, जो मसीह की अगुवाई में “बड़े क्लेश” से बच निकलेंगे। (प्रकाशितवाक्य ७:९, १४) लेकिन यीशु की अगुवाई वहीं समाप्त नहीं होती। उसकी “प्रभुता” हज़ार वर्ष तक रहेगी। आज्ञाकारी मनुष्यों के लिए, वह अपने नाम “अद्भुत युक्ति करनेवाला पराक्रमी परमेश्वर, अनन्तकाल का पिता, और शान्ति का राजकुमार” के अनुसार कार्य करेगा।—यशायाह ९:६, ७; प्रकाशितवाक्य २०:६.
७. यदि हम चाहते हैं कि मसीह यीशु हमें “जीवन रूपी जल के सोतों” के पास ले जाए तो हमें बिना देर किए क्या करना चाहिए, और किस चीज़ के कारण यीशु और यहोवा हमसे प्रेम रखेंगे?
७ यदि हम उन “जीवन रूपी जल के सोतों” से लाभ उठाना चाहते हैं जिनके पास मेम्ना, मसीह यीशु सत्हृदय लोगों को ले जाता है, तो हमें बिना देर किए अपने कार्यों के द्वारा साबित करना है कि हम आनन्दपूर्वक राजा के रूप में उसके अधिकार की अधीनता में आते हैं। (प्रकाशितवाक्य ७:१७; २२:१, २; साथ ही भजन २:१२ से तुलना कीजिए।) यीशु ने कहा: “यदि तुम मुझ से प्रेम रखते हो, तो मेरी आज्ञाओं को मानोगे। जिस के पास मेरी आज्ञा हैं, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा, और मैं उस से प्रेम रखूंगा।” (यूहन्ना १४:१५, २१) क्या आप चाहते हैं कि यीशु और उसका पिता आपसे प्रेम रखें? तो उनके अधिकार की अधीनता में रहिए।
ओवरसियर आनन्दपूर्वक आज्ञा मानते हैं
८, ९. (क) मसीह ने कलीसिया की उन्नति के लिए क्या प्रदान किया है, और किस सम्बन्ध में इन पुरुषों को झुंड के लिए उदाहरण होना चाहिए? (ख) प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में मसीही ओवरसियरों की अधीनता किस प्रकार चित्रित की गयी है, और न्यायिक मामलों को निपटाने के समय उन्हें किस प्रकार एक “आज्ञाकारी हृदय” माँगना चाहिए?
८ “कलीसिया मसीह के आधीन है।” उसका ओवरसियर होने के नाते, उसने कलीसिया की “उन्नति” के लिए “मनुष्यों में भेंट” दिए हैं। (इफिसियों ४:८, ११, १२, NW; ५:२४) इन आध्यात्मिक रूप से प्राचीनों को कहा गया है कि ‘परमेश्वर के झुंड की, जो उनके बीच में हैं रखवाली करें,’ ‘जो लोग उन्हें सौंपे गए हैं, उन पर अधिकार न जताएं, बरन झुंड के लिये आदर्श बनें।’ (१ पतरस ५:१-३) झुंड यहोवा का है, और मसीह उसका “अच्छा चरवाहा” है। (यूहन्ना १०:१४) क्योंकि ओवरसियर उचित रूप से उन भेड़ों से स्वैच्छिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं जिन्हें यहोवा और मसीह ने उनकी देखरेख में सौंपा है, स्वयं उन्हें भी अधीनता के उत्तम उदाहरण होना चाहिए।—प्रेरितों २०:२८.
९ पहली शताब्दी में, अभिषिक्त ओवरसियर लाक्षणिक रूप से मसीह के दाहिने हाथ “में” या “पर” होने के जैसे चित्रित किए गए थे, जो कलीसिया के सिर के रूप में मसीह के प्रति उनकी अधीनता सूचित करता है। (प्रकाशितवाक्य १:१६, २०, NW; २:१) आज भी वैसा ही है, यहोवा के गवाहों की कलीसियाओं में ओवरसियरों को मसीह के निर्देशन के अधीन होना चाहिए और ‘परमेश्वर के बलवन्त हाथ के नीचे दीनता से रहना’ चाहिए। (१ पतरस ५:६) जब उनसे न्यायिक मामलों को निपटाने का निवेदन किया जाता है तो, जिस प्रकार सुलैमान ने अपने वफ़ादार वर्षों के दौरान प्रार्थना की उसी प्रकार, उन्हें यहोवा से प्रार्थना करनी चाहिए: “तू अपने दास को अपनी प्रजा का न्याय करने के लिये समझने की ऐसी शक्ति [एक आज्ञाकारी हृदय, NW] दे, कि भले बुरे को परख सकूं।” (१ राजा ३:९) आज्ञाकारी हृदय एक प्राचीन को प्रेरित करेगा कि बातों को यहोवा और मसीह यीशु की दृष्टि से देखने की कोशिश करे ताकि पृथ्वी पर लिया गया निर्णय स्वर्ग में लिए गए निर्णय से यथासंभव मिलता-जुलता हो।—मत्ती १८:१८-२०.
१०. यीशु ने भेंड़ों के साथ जैसा व्यवहार किया उस में सभी ओवरसियरों को किस प्रकार यीशु का अनुकरण करने का प्रयास करना चाहिए?
१० उसी प्रकार सफ़री ओवरसियर और कलीसिया प्राचीन भेड़ों के साथ व्यवहार करने में मसीह का अनुकरण करने का प्रयास करेंगे। फरीसियों से भिन्न, यीशु ने ढेर सारे नियम नहीं थोपे जिनका पालन करना मुश्किल हो। (मत्ती २३:२-११) उसने भेड़-समान लोगों से कहा: “हे सब परिश्रम करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगो, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हलका है।” (मत्ती ११:२८-३०) जबकि यह सच है कि हर मसीही को ‘अपना ही बोझ उठाना है,’ ओवरसियरों को यीशु का उदाहरण याद रखना चाहिए और अपने भाइयों को यह महसूस कराने में मदद करनी चाहिए कि मसीही ज़िम्मेदारी का उनका बोझ “सहज,” “हलका,” और उठाने के लिए एक आनन्द का कार्य है।—गलतियों ६:५.
ईश्वरशासित अधीनता
११. (क) किस प्रकार एक व्यक्ति शायद मुखियापन का आदर करे और फिर भी वास्तव में ईश्वरशासित न हो? उदाहरण देकर समझाइए। (ख) सचमुच ईश्वरशासित होने का क्या अर्थ है?
११ ईशतंत्र परमेश्वर द्वारा शासन है। इसमें १ कुरिन्थियों ११:३ में अभिव्यक्त मुखियापन का सिद्धान्त सम्मिलित है। लेकिन इसका अर्थ उससे भी ज़्यादा है। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि एक व्यक्ति मुखियापन के लिए आदर दिखाता है लेकिन फिर भी शायद वह शब्द के पूर्ण अर्थ में ईश्वरशासित न हो। यह कैसे हो सकता है? उदाहरण के लिए, लोकतंत्र लोगों द्वारा सरकार है, और एक लोकतंत्री की परिभाषा इस प्रकार की गयी है, “एक व्यक्ति जो लोकतंत्र के आदर्शों में विश्वास करता है।” एक व्यक्ति लोकतंत्री होने का दावा कर सकता है, चुनावों में भाग ले सकता है, और यहाँ तक कि एक सक्रिय राजनीतिज्ञ हो सकता है। लेकिन यदि अपने सामान्य व्यवहार में वह लोकतंत्र की आत्मा और इसमें सम्मिलित सभी सिद्धान्तों को ठुकराता है, तो क्या यह कहा जा सकता है कि वह सचमुच लोकतंत्री है? इसी प्रकार, सचमुच ईश्वरशासित होने के लिए एक व्यक्ति को मुखियापन के प्रति नाममात्र की अधीनता दिखाने से ज़्यादा करने की ज़रूरत है। उसे यहोवा के तरीक़ों और गुणों का अनुकरण करने की ज़रूरत है। उसे वास्तव में हर तरीक़े से यहोवा द्वारा शासित होना चाहिए। और क्योंकि यहोवा ने अपने पुत्र को पूर्ण अधिकार दिया है, ईश्वरशासित होने का अर्थ यीशु की नक़ल करना भी है।
१२, १३. (क) ईश्वरशासित होने में ख़ासकर क्या सम्मिलित है? (ख) क्या ईश्वरशासित अधीनता में ढेर सारे नियमों का पालन करना सम्मिलित है? उदाहरण देकर समझाइए।
१२ याद रखिए, यहोवा प्रेम द्वारा प्रेरित स्वैच्छिक अधीनता चाहता है। विश्व पर शासन करने का यह उसका तरीक़ा है। वह स्वयं प्रेम का प्रतिरूप है। (१ यूहन्ना ४:८) मसीह यीशु “उस की महिमा का प्रकाश, और उसके तत्व की छाप है।” (इब्रानियों १:३) वह माँग करता है कि उसके सच्चे शिष्य एक दूसरे से प्रेम रखें। (यूहन्ना १५:१७) सो ईश्वरशासित होने में केवल अधीन होना ही नहीं बल्कि प्रेममय होना भी सम्मिलित है। विषय का सारांश इस प्रकार कर सकते हैं: ईशतंत्र परमेश्वर द्वारा शासन है; परमेश्वर प्रेम है; इसलिए ईशतंत्र प्रेम द्वारा शासन है।
१३ एक प्राचीन सोच सकता है कि ईश्वरशासित होने के लिए भाइयों को हर क़िस्म के नियमों का पालन करना चाहिए। समय-समय पर “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” द्वारा दिए गए सुझावों को कुछ प्राचीनों ने नियमों में बदल दिया है। (मत्ती २४:४५) उदाहरण के लिए, एक बार सुझाव दिया गया था कि कलीसिया में भाइयों से ज़्यादा आसानी से परिचित होने के लिए राज्यगृह में हमेशा एक ही सीट पर न बैठना शायद अच्छा हो। यह एक व्यावहारिक सुझाव के रूप में दिया गया था, न कि एक पक्का नियम। लेकिन कुछ प्राचीन इसे एक नियम में बदलने के लिए प्रवृत्त हो सकते हैं और यह महसूस कर सकते हैं कि जो इसे नहीं मानते वे ईश्वरशासित नहीं हैं। लेकिन, एक भाई या बहन किसी निश्चित क्षेत्र में बैठना क्यों पसन्द करता है इसके अनेक उचित कारण हो सकते हैं। यदि एक प्राचीन प्रेमपूर्वक इन बातों को ध्यान में नहीं रखता, तो क्या वह स्वयं सचमुच ईश्वरशासित हो रहा है? ईश्वरशासित होने के लिए “जो कुछ करते हो प्रेम से करो।”—१ कुरिन्थियों १६:१४.
आनन्द से सेवा करना
१४, १५. (क) किस प्रकार एक प्राचीन कुछ भाइयों या बहनों को यहोवा की सेवा करने में उन्हें उनके आनन्द से वंचित कर सकता है, और क्यों यह ईश्वरशासित नहीं होगा? (ख) यीशु ने किस प्रकार दिखाया कि वह मात्रा के बजाय हमारी सेवा द्वारा अभिव्यक्त प्रेम का मूल्यांकन करता है? (ग) प्राचीनों को क्या बात ध्यान में रखनी चाहिए?
१४ ईश्वरशासित होने का अर्थ आनन्द से यहोवा की सेवा करना भी है। यहोवा “आनन्दित परमेश्वर” है। (१ तीमुथियुस १:११, NW) वह चाहता है कि उसके उपासक आनन्दपूर्वक उसकी सेवा करें। जो नियमों के आग्रही हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि इस्राएल को जिन विधियों के “मानने में चौकसी करना” था उनमें निम्नलिखित विधि भी थी: “तू अपने परमेश्वर यहोवा के साम्हने अपने सब कामों पर जिन में हाथ लगाया हो आनन्द करना।” (व्यवस्थाविवरण १२:१, १८) यहोवा की सेवा में हम जिस काम पर भी हाथ लगाते हैं वह एक आनन्द की बात होनी चाहिए, भार नहीं। यहोवा की सेवा में भाई जितना कर सकते हैं उतना करने में उनको आनन्दित महसूस कराने में ओवरसियर काफ़ी कुछ कर सकते हैं। इसके विपरीत, यदि प्राचीन सावधान नहीं हैं, तो वे कुछ भाइयों को उनके आनन्द से वंचित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि वे तुलना करते हैं, उन लोगों की सराहना करते हैं जो गवाही कार्य में बिताए घंटों में कलीसिया के औसत तक पहुँच गए हैं या उससे भी ज़्यादा किया है और निहितार्थ द्वारा उन लोगों की आलोचना करते हैं जो उस औसत तक नहीं पहुँचे, तो वे लोग कैसा महसूस करेंगे जिनके पास काफ़ी कम समय रिपोर्ट करने का उचित कारण था? क्या यह उन्हें व्यर्थ ही दोषी महसूस नहीं करा सकता और उनको उनके आनन्द से वंचित नहीं कर सकता?
१५ कुछ लोगों द्वारा सार्वजनिक गवाही में बिताए कुछेक घंटे शायद छोटी उम्र, बेहतर स्वास्थ्य, और अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए दूसरों द्वारा बिताए अनेक घंटों से ज़्यादा प्रयत्न चित्रित करें। इस सम्बन्ध में, प्राचीनों को उनका न्याय नहीं करना है। सचमुच, ‘न्याय करने का अधिकार’ पिता ने यीशु को दिया है। (यूहन्ना ५:२७) क्या यीशु ने कंगाल विधवा की आलोचना की इसलिए कि उसकी भेंट औसत से कम थी? नहीं, उन दो दमड़ियों का उस विधवा के लिए क्या मोल था इसके प्रति वह संवेदनशील था। वे ‘जो कुछ उसका था, अर्थात् उसकी सारी जीविका’ थीं। उन्होंने यहोवा के लिए कितना गहरा प्रेम चित्रित किया! (मरकुस १२:४१-४४) क्या प्राचीनों को उन लोगों के प्रेममय प्रयत्नों के प्रति उससे कोई कम संवेदनशील होना चाहिए जिनका सब कुछ संख्या में “औसत” से कम है? यहोवा के लिए प्रेम के सम्बन्ध में, ऐसे प्रयत्न औसत से भी ज़्यादा हो सकते हैं!
१६. (क) यदि ओवरसियर अपने भाषणों में संख्या प्रयोग करते हैं, तो उन्हें समझ और अच्छे संतुलन की ज़रूरत क्यों है? (ख) भाइयों को अपनी सेवा बढ़ाने के लिए सर्वोत्तम तरीक़े से कैसे मदद दी जा सकती है?
१६ क्या अब इन टिप्पणियों को एक नए “नियम” में बदल देना चाहिए कि संख्या का—यहाँ तक कि औसतों का भी—कभी ज़िक्र नहीं किया जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं! मुख्य बात यह है कि भाइयों को अपनी सेवकाई बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देने और जितना वे आनन्द से कर सकते हैं उतना करने में उनकी मदद करने के बीच ओवरसियरों को संतुलन रखना चाहिए। (गलतियों ६:४) यीशु के तोड़ों के दृष्टांत में, स्वामी ने अपनी सम्पत्ति अपने दासों को “हर एक को उस की सामर्थ के अनुसार” सौंप दी। (मत्ती २५:१४, १५) उसी प्रकार प्राचीनों को हर राज्य प्रकाशक की क्षमताओं का ध्यान रखना चाहिए। यह समझ की माँग करता है। यह हो सकता है कि कुछ लोगों को ज़्यादा करने के लिए असल में प्रोत्साहन की ज़रूरत हो। वे अपने क्रियाकलापों को बेहतर तरीक़े से व्यवस्थित करने के लिए दी गयी मदद का शायद मूल्यांकन करें। जो भी हो, वे आनन्द के साथ जितना कर सकते हैं उतना करने में यदि उनकी मदद की जा सकती है, तो वह आनन्द संभवतः उनको जहाँ संभव हो अपनी मसीही गतिविधि बढ़ाने के लिए शक्ति देगा।—नहेमायाह ८:१०; भजन ५९:१६; यिर्मयाह २०:९.
आनन्दपूर्ण अधीनता से आनेवाली शान्ति
१७, १८. (क) किस प्रकार आनन्दपूर्ण अधीनता हमारे लिए शान्ति और धार्मिकता ला सकती है? (ख) यदि हम परमेश्वर की आज्ञाओं को ध्यान से सुनें तो कौन-सी चीज़ें हमारी हो सकती हैं?
१७ यहोवा की न्यायसंगत सर्वसत्ता के प्रति आनन्दपूर्ण अधीनता बड़ी शान्ति लाती है। भजनहार ने यहोवा को प्रार्थना में कहा: “तेरी व्यवस्था से प्रीति रखनेवालों को बड़ी शान्ति होती है; और उनको कुछ ठोकर नहीं लगती।” (भजन ११९:१६५) परमेश्वर की व्यवस्था का पालन करने से हम अपने आपको लाभ पहुँचाते हैं। यहोवा ने इस्राएल को कहा: “यहोवा जो तेरा छुड़ानेवाला और इस्राएल का पवित्र है, वह यों कहता है, मैं ही तेरा परमेश्वर यहोवा हूं जो तुझे तेरे लाभ के लिये शिक्षा देता हूं, और जिस मार्ग से तुझे जाना है उसी मार्ग पर तुझे ले चलता हूं। भला होता कि तू ने मेरी आज्ञाओं को ध्यान से सुना होता! तब तेरी शान्ति नदी के समान और तेरा धर्म समुद्र की लहरों के नाईं होता।”—यशायाह ४८:१७, १८.
१८ मसीह का छुड़ौती बलिदान हमें परमेश्वर के साथ शान्ति में लाता है। (२ कुरिन्थियों ५:१८, १९) यदि हमें मसीह के उद्धारक लहू में विश्वास है और बड़ी ईमानदारी से अपनी कमज़ोरियों से संघर्ष करने एवं परमेश्वर की इच्छा पूरी करने का प्रयास करते हैं, तो हम दोष की भावनाओं से राहत पाएँगे। (१ यूहन्ना ३:१९-२३) ऐसा विश्वास, जिसके साथ-साथ कार्य भी हों, हमें यहोवा के सम्मुख एक धर्मी स्थिति और “बड़े क्लेश” से बच निकलने एवं यहोवा के नए संसार में सर्वदा जीने की शानदार आशा देता है। (प्रकाशितवाक्य ७:१४-१७; यूहन्ना ३:३६; याकूब २:२२, २३) यह सब हमारा हो सकता है ‘यदि हम परमेश्वर की आज्ञाओं को ध्यान से सुनें।’
१९. अभी हमारी ख़ुशी और अनन्त जीवन की हमारी आशा किस बात पर निर्भर करती है, और किस प्रकार दाऊद ने हमारे हार्दिक दृढ़-विश्वास को व्यक्त किया?
१९ जी हाँ, अभी हमारी ख़ुशी और परादीस पृथ्वी पर अनन्त जीवन की हमारी आशा विश्व के सर्वसत्ताधारी प्रभु के रूप में यहोवा के अधिकार के प्रति हमारी आनन्दपूर्ण अधीनता पर निर्भर करती है। ऐसा हो कि हमारी भावनाएँ हमेशा दाऊद की भावनाओं के समान हों, जिसने कहा: “हे यहोवा! महिमा, पराक्रम, शोभा, सामर्थ्य और विभव, तेरा ही है; क्योंकि आकाश और पृथ्वी में जो कुछ है, वह तेरा ही है; हे यहोवा! राज्य तेरा है, और तू सभों के ऊपर मुख्य और महान ठहरा है। इसलिये अब हे हमारे परमेश्वर! हम तेरा धन्यवाद और तेरे महिमायुक्त नाम की स्तुति करते हैं।”—१ इतिहास २९:११, १३.
याद रखने के लिए मुद्दे
▫ यहोवा चाहता है कि उसके सेवक किस क़िस्म की अधीनता और आज्ञाकारिता दिखाएँ?
▫ यीशु को अपनी आज्ञाकारिता का क्या प्रतिफल मिला, और हमें अपने कार्यों के द्वारा क्या साबित करना चाहिए?
▫ यीशु ने भेंड़ों के साथ जैसा व्यवहार किया उस में सभी ओवरसियरों को किस प्रकार यीशु का अनुकरण करना चाहिए?
▫ ईश्वरशासित होने में क्या सम्मिलित है?
▫ आनन्दपूर्ण अधीनता हमारे लिए क्या आशिषें लाती है?
[पेज 18 पर तसवीरें]
प्राचीन झुंड को प्रोत्साहन देते हैं कि जितना वे आनन्द से कर सकते हैं उतना करें
[पेज 20 पर तसवीरें]
यहोवा उनसे प्रसन्न होता है जो हृदय से उसकी आज्ञा मानते हैं