क्या आपको पुनर्जन्म में विश्वास करना चाहिए?
यूनानी तत्त्वज्ञानी प्लेटो ने पुनर्जन्म के विचार को प्रेम में पड़ने के विचार के साथ जोड़ा। वह विश्वास करता था कि देह की मृत्यु के पश्चात्, अमर होने के कारण प्राण उस क्षेत्र में चला जाता है जिसे “शुद्ध रूपों का क्षेत्र” कहा जाता है। देह न होने के कारण, यह वहाँ रूप पर विचार करता हुआ कुछ समय तक ठहरता है। बाद में जब इसका एक दूसरे शरीर में पुनर्जन्म होता है, तो प्राण अवचेतन रीति से रूपों के क्षेत्र को याद करता और उसकी लालसा करता है। प्लेटो के मुताबिक़, लोग इसलिए प्रेम करने लगते हैं क्योंकि वे अपने प्रियतम/प्रियतमा में सौंदर्य का वह आदर्श रूप देखते हैं जिसकी उन्हें धुँधली-सी याद है और जिसकी उन्हें तलाश थी।
स्रोत और आधार को पहचानना
पुनर्जन्म की शिक्षा जीवात्मा के अमर होने की माँग करती है। तो फिर, पुनर्जन्म के उद्गम का पता लगाने के लिए हमें उन लोगों या राष्ट्रों तक जाना पड़ेगा जिनका यह विश्वास रहा था। इस आधार पर, कुछ लोग सोचते हैं कि इसका उद्गम प्राचीन मिस्र में हुआ। दूसरे लोग यह मानते हैं कि इसकी शुरूआत प्राचीन बाबुल में हुई। बाबुलीय धर्म के लिए प्रतिष्ठा उत्पन्न करने के लिए, इसके पुजारियों ने प्राण के देहांतरण के सिद्धांत का प्रस्ताव रखा। इस प्रकार वे दावा कर सकते थे कि उनके धार्मिक शूरवीर, प्रमुख लेकिन काफ़ी अरसे से मृत, पूर्वजों के पुनर्वतार थे।
लेकिन, भारत में ही पुनर्जन्म का विश्वास पूरी तरह विकसित हुआ। हिंदू ऋषि-मुनि मनुष्यों में दुष्टता और दुःख-तकलीफ़ की विश्वव्यापी समस्याओं के बारे में गहरे सोच-विचार में अंतर्ग्रस्त थे। ‘एक धर्मी सृष्टिकर्ता की धारणा के साथ इनका सामंजस्य कैसे बिठाया जा सकता है?’ उन्होंने पूछा। उन्होंने परमेश्वर की धार्मिकता और संसार की अनपेक्षित विपत्तियों तथा असमानताओं के बीच संघर्ष को सुलझाने की कोशिश की। कुछ समय बाद, उन्होंने “कर्म का नियम,” कारण और प्रभाव का नियम—‘व्यक्ति जो बोता है, वही काटेगा’—का उपाय सोच निकाला। उन्होंने एक विस्तृत ‘तुलन-पत्र’ तैयार किया जिसमें व्यक्ति के एक जीवन के पुण्य और पाप का अगले जन्म में प्रतिफल या सज़ा मिलती है।
“कर्म” का महज़ अर्थ है “कार्य।” ऐसा कहा जाता है कि यदि एक हिंदू सामाजिक और धार्मिक मानकों के अनुरूप चलता है, तो उसके कर्म अच्छे हैं और यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसके कर्म बुरे हैं। उसका कार्य, या कर्म प्रत्येक क्रमागत पुनर्जन्म में उसके भविष्य को निर्धारित करता है। “सभी मनुष्य चरित्र की रूपरेखा के साथ जन्म लेते हैं, जो ख़ासकर पिछली ज़िंदगियों में उनके कार्यों के आधार पर तैयार की जाती है, हालाँकि उनके शारीरिक गुण आनुवंशिकता से निर्धारित होते हैं,” तत्त्वज्ञानी निखिलानन्द कहता है। “[अतः] एक मनुष्य अपने ही भाग्य का रचयिता है, अर्थात् अपनी ही नियति का निर्माणकर्ता।” लेकिन, अंतिम लक्ष्य देहांतरण के इस चक्र से मोक्षता पाकर ब्रह्म—परम सत्य—के साथ मिल जाना होता है। ऐसा माना जाता है कि सामाजिक रूप से स्वीकार्य आचरण और ख़ास हिंदू ज्ञान के लिए प्रयास करने के द्वारा इसे प्राप्त किया जाता है।
अतः पुनर्जन्म की शिक्षा जीवात्मा के अमरत्व के सिद्धांत को अपनी नींव के तौर पर इस्तेमाल करती है और कर्म के नियम को इस्तेमाल करने के द्वारा इसे और बढ़ाती है। आइए देखें कि इन विचारों के बारे में परमेश्वर के उत्प्रेरित वचन, बाइबल का क्या कहना है।
क्या मनुष्य का कोई भाग अमर है?
इस सवाल का जवाब देने के लिए, आइए हम इस विषय के सर्वोत्तम अधिकारी—अर्थात् सृष्टिकर्ता के उत्प्रेरित वचन—की ओर मुड़ें। प्रथम पुरुष, आदम की सृष्टि का वर्णन देते हुए, बाइबल की पहली पुस्तक कहती है: “यहोवा परमेश्वर ने आदम को भूमि की मिट्टी से रचा और उसके नथनों में जीवन का श्वास फूंक दिया; और आदम जीवता प्राणी [नेफ़ेश] बन गया।”a (उत्पत्ति २:७) स्पष्ट रूप से, शास्त्र यह सूचित नहीं करता कि जीवात्मा, या प्राणी प्रथम मनुष्य से कुछ अलग वस्तु है। मनुष्य में एक प्राणी नहीं होता, वह स्वयं एक प्राणी है। यहाँ प्राणी के लिए प्रयोग किया गया इब्रानी शब्द नेफ़ेश है। यह बाइबल में कोई ७०० बार आता है, और यह कभी-भी मानव के एक अलग और निराकार भाग को नहीं, बल्कि हमेशा किसी साकार और शारीरिक भाग को सूचित करता है।—अय्यूब ६:७; भजन ३५:१३; १०७:९; ११९:२८.
फिर, मृत्यु पर क्या होता है? ग़ौर कीजिए कि उसकी मृत्यु पर आदम को क्या हुआ था। जब उसने पाप किया, तब परमेश्वर ने उससे कहा: “[तू] अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा; क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है, तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।” (उत्पत्ति ३:१९) ज़रा सोचिए कि इसका क्या अर्थ होता है। मिट्टी में से उसे सृष्ट करने से पहले, आदम का कोई अस्तित्त्व नहीं था। उसकी मृत्यु के पश्चात्, आदम अस्तित्त्वहीनता की उसी अवस्था में लौट गया।
सरल रूप से कहे तो, बाइबल सिखाती है कि मृत्यु जीवन का विलोम है। सभोपदेशक ९:५, १० में हम यूँ पढ़ते हैं: “जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, और न उनको कुछ और बदला मिल सकता है, क्योंकि उनका स्मरण मिट गया है। जो काम तुझे मिले उसे अपनी शक्ति भर करना, क्योंकि अधोलोक में जहां तू जानेवाला है, न काम न युक्ति न ज्ञान और न बुद्धि है।”
इसका अर्थ है कि मृत व्यक्ति कुछ भी करने या महसूस करने में असमर्थ है। उनके पास अब न तो कोई विचार, ना ही किसी बात की याद रहती है। भजनहार कहता है: “तुम प्रधानों पर भरोसा न रखना, न किसी आदमी पर, क्योंकि उस में उद्धार करने की भी शक्ति नहीं। उसका भी प्राण निकलेगा, वह भी मिट्टी में मिल जाएगा; उसी दिन उसकी सब कल्पनाएं नाश हो जाएंगी।”—भजन १४६:३, ४.
बाइबल स्पष्ट रूप से दिखाती है कि मृत्यु होने पर, जीवात्मा या प्राण किसी दूसरे शरीर में नहीं चला जाता, बल्कि यह मर जाता है। “जो प्राणी पाप करे वही मर जाएगा,” बाइबल प्रबल रूप से कहती है। (यहेजकेल १८:४, २०; प्रेरितों ३:२३; प्रकाशितवाक्य १६:३) अतः, जीवात्मा के अमरत्व के सिद्धांत—पुनर्जन्म की शिक्षा की नींव—का शास्त्र बिलकुल भी समर्थन नहीं करता। इसके बिना, यह शिक्षा धराशायी हो जाती है। तो फिर, कौन-सी बात दुनिया में देखी जानेवाली दुःख-तकलीफ़ की व्याख्या देती है?
लोग दुःख-तकलीफ़ क्यों उठाते हैं?
मानवी दुःख-तकलीफ़ का आधारभूत कारण है अपरिपूर्णता जिसे हम सब पापपूर्ण आदम से विरासत में पाते हैं। “जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया,” बाइबल कहती है। (रोमियों ५:१२) आदम से जन्मे होने की वज़ह से, हम सभी बीमार होते, बूढ़े होते, और मरते हैं।—भजन ४१:१, ३; फिलिप्पियों २:२५-२७.
इसके अलावा, सृष्टिकर्ता का अटल नैतिक नियम कहता है: “धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा। क्योंकि जो अपने शरीर के लिये बोता है, वह शरीर के द्वारा विनाश की कटनी काटेगा।” (गलतियों ६:७, ८) अतः, एक स्वच्छंद जीवन-शैली शायद भावात्मक व्यथा, अनचाहे गर्भ, और लैंगिक रूप से फैलनेवाली बीमारियों की ओर ले जाए। “[अमरीका के] एक आश्चर्यजनक ३० प्रतिशत घातक कैंसरों का दोष मुख्यतः धूम्रपान पर लगाया जा सकता है, और उतना ही प्रतिशत दोष जीवन-शैली, विशेषकर आहार संबंधी आदतों और व्यायाम की कमी पर लगाया जा सकता है,” साइंटिफ़िक अमेरिकन पत्रिका कहती है। कुछ विपत्तियाँ जो दुःख-तकलीफ़ का कारण बनती हैं, वे पृथ्वी के संसाधनों की मनुष्य द्वारा अव्यवस्था का अंजाम है।—प्रकाशितवाक्य ११:१८ से तुलना कीजिए।
जी हाँ, अपनी दुर्दशा के लिए मनुष्य ही दोषी है। लेकिन, चूँकि प्राण अमर नहीं है, ‘वही काटना जो आपने बोया है’ के नियम को, कर्म—तथाकथित पिछली ज़िंदगी के कर्म—के साथ मानवी दुःख-तकलीफ़ को जोड़ने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। “जो मर गया, वह पाप से छूटकर धर्मी ठहरा।” (रोमियों ६:७, २३) अतः पाप का फल मृत्यु के उपरांत किसी जीवन तक नहीं जाता।
शैतान अर्थात् इब्लीस भी काफ़ी दुःख-तकलीफ़ उत्पन्न करता है। दरअसल, इस संसार पर उसका नियंत्रण है। (१ यूहन्ना ५:१९) और जैसा यीशु मसीह ने पूर्वबताया, यीशु के शिष्यों से ‘उसके नाम के कारण सब लोग बैर करेंगे।’ (मत्ती १०:२२) परिणामस्वरूप, अकसर धर्मी व्यक्ति को दुष्टों से ज़्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
इस संसार में कुछ ऐसी घटनाएँ घटती हैं जिनकी वज़ह आसानी से प्रत्यक्ष नहीं होतीं। सबसे तेज़ धावक शायद ठोकर खाए और दौड़-प्रतियोगिता में हार जाए। एक शक्तिशाली सेना शायद निम्न शक्तिवाली सेना के हाथों पराजित हो जाए। एक बुद्धिमान पुरुष को शायद एक अच्छी नौकरी न मिले और इसीलिए शायद वह भूख से तड़प रहा हो। व्यावसायिक संचालन की उत्कृष्ट समझ रखनेवाले लोग शायद, हालात की वज़ह से, अपने ज्ञान को प्रयोग में न ला सकें और इस प्रकार अपने आपको ग़रीबी में पाए। ज्ञानी व्यक्तियों को शायद अधिकार के पदवाले जन के क्रोध का शिकार होना पड़े और उनकी अनुग्रह की दृष्टि से गिर जाए। ऐसा क्यों होता है? “क्योंकि समय और अप्रत्याशित घटना उन सब पर आ पड़ती है,” बुद्धिमान राजा सुलैमान जवाब देता है।—सभोपदेशक ९:११, NW.
हिंदू ऋषि-मुनियों द्वारा दुःख-तकलीफ़ के अस्तित्त्व का कारण समझाने की कोशिश करने से काफ़ी पहले से मानवजाति इसे भुगत रही थी। लेकिन क्या एक बेहतर भविष्य की कोई आशा है? और मृत जनों के लिए बाइबल कौन-सी प्रतिज्ञा करती है?
एक शांतिमय भविष्य
सृष्टिकर्ता ने प्रतिज्ञा की है कि जल्द ही वह शैतान द्वारा नियंत्रित इस वर्तमान संसार के समाज का अंत करने पर है। (नीतिवचन २:२१, २२; दानिय्येल २:४४) एक धर्मी नया मानव समाज—‘एक नई पृथ्वी’—तब एक हक़ीक़त होगी। (२ पतरस ३:१३) उस समय “कोई निवासी न कहेगा कि मैं रोगी हूं।” (यशायाह ३३:२४) यहाँ तक कि मृत्यु की पीड़ा भी मिटा दी जाएगी, क्योंकि परमेश्वर “उन की आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा; और इस के बाद मृत्यु न रहेगी, और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी; पहिली बातें जाती रहीं।”—प्रकाशितवाक्य २१:४.
परमेश्वर के प्रतिज्ञात नए संसार के निवासियों के संबंध में, भजनहार ने पूर्वबताया: “धर्मी लोग पृथ्वी के अधिकारी होंगे, और उस में सदा बसे रहेंगे।” (भजन ३७:२९) इसके अतिरिक्त, नम्र लोग “बड़ी शान्ति के कारण आनन्द मनाएंगे।”—भजन ३७:११.
मुकुन्दभाई, जिसका उल्लेख पिछले लेख में किया गया, परमेश्वर की अद्भुत प्रतिज्ञाओं के बारे में जाने बिना मौत की गोद में लेट गया है। लेकिन ऐसे करोड़ों लोगों के पास जो परमेश्वर को जाने बिना मर चुके हैं, ऐसे शांतिपूर्ण नए संसार में जिलाए जाने की प्रत्याशा है, क्योंकि बाइबल प्रतिज्ञा करती है: “धर्मी और अधर्मी दोनों का पुनरुत्थान होगा।”—प्रेरितों २४:१५, NHT; लूका २३:४३.
शब्द “पुनरुत्थान” यहाँ पर यूनानी शब्द अनास्तासिस से अनुवादित किया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है “फिर से उठ खड़ा होना।” अतः पुनरुत्थान में व्यक्ति के जीवन-नमूने को फिर से सक्रिय करना शामिल है।
आकाश और धरती के सृष्टिकर्ता की बुद्धि असीम है। (अय्यूब १२:१३) मृत जनों के जीवन-नमूने को याद रखना उसके लिए मुश्किल नहीं है। (यशायाह ४०:२६ से तुलना कीजिए।) यहोवा परमेश्वर प्रेम से भी ओत-प्रोत है। (१ यूहन्ना ४:८) अतः, वह अपनी परिपूर्ण स्मरण-शक्ति को इस्तेमाल कर सकता है, मृत जनों द्वारा किए गए उनके बुरे कामों की सज़ा देने के लिए नहीं, बल्कि एक परादीस पृथ्वी पर उन्हें फिर से उसी व्यक्तित्व के साथ जीवित करने के लिए जो मरने से पहले उनका था।
मुकुन्दभाई की तरह करोड़ों लोगों के लिए, पुनरुत्थान का अर्थ होगा फिर से अपने प्रिय जनों के साथ मिल जाना। लेकिन जो अभी जीवित हैं उनके लिए इसका क्या अर्थ हो सकता है इसकी ज़रा कल्पना कीजिए। मिसाल के तौर पर मुकुन्दभाई के बेटे को लीजिए, जिसे परमेश्वर और उसके उद्देश्यों के बारे में अद्भुत सच्चाई का पता चल गया है। उसके लिए यह जानना कितना सांत्वनादायक है कि उसका पिता पुनर्जन्मों के लगभग किसी अनन्त चक्र में फँसा हुआ नहीं है, जिसका प्रत्येक चक्र दुष्टता और दुःख-तकलीफ़ से घिरा हुआ है! वह पुनरुत्थान की प्रतीक्षा करता हुआ, बस मौत की गोद में सोया हुआ है। उसके लिए इस बात की संभावना पर विचार करना कितना रोमांचक है कि एक दिन वह अपने पिता को उन बातों के बारे में बताएगा जिसे उसने ख़ुद बाइबल से सीखा है!
यह परमेश्वर की इच्छा है कि “सब [प्रकार के] मनुष्यों का उद्धार हो; और वे सत्य को भली भांति पहचान लें।” (१ तीमुथियुस २:३, ४) यह सीखने के लिए समय अभी है कि आप परमेश्वर की इच्छा करनेवाले अन्य लाखों लोगों के साथ, एक परादीस पृथ्वी पर सर्वदा कैसे जी सकते हैं।—यूहन्ना १७:३.
[फुटनोट]
a इब्रानी शब्द नेफ़ेश और यूनानी शब्द साइकी को भारतीय भाषाओं की बाइबल में विभिन्न प्रकार से “आत्मा,” “जीव,” “जीवात्मा,” “प्राणी,” “देही,” और “व्यक्ति” के रूप में अनुवाद किया गया है। (उदाहरण के लिए, तमिल ऑथोराइज़्ड वर्शन और न्यू हिंदी बाइबल में यहेजकेल १८:४ और मत्ती १०:२८ देखिए।) चाहे आपकी बाइबल संगत रूप से मूल-भाषा के शब्दों का अनुवाद “आत्मा,” “प्राण,” या अन्यथा के रूप में करती हो, उन पाठों की जाँच जहाँ शब्द नेफ़ेश और साइकी आते हैं, आपको यह देखने में मदद करेंगे कि प्राचीन समयों में परमेश्वर के लोगों के लिए ये पद क्या अर्थ रखते थे। अतः आप अपने लिए जीवात्मा का सही प्रकार निर्धारित कर सकते हैं।
[पेज 7 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
“समय और अप्रत्याशित घटना उन सब पर आ पड़ती है।”—सभोपदेशक ९:११, NW
[पेज 6 पर बक्स]
परमेश्वर का व्यक्तित्व और कर्म का नियम
मोहनदास के. गाँधी ने समझाया, “कर्म का नियम अटल है और इससे बचना नामुमकिन। अतः परमेश्वर को दख़ल देने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। उसने नियम दे दिया है और मानो, सेवानिवृत हो गया।”
गाँधी को यह व्याख्या बहुत बेचैन करनेवाली लगी। दूसरी ओर, पुनरुत्थान की प्रतिज्ञा प्रकट करती है कि परमेश्वर को अपनी सृष्टि में गहरी दिलचस्पी है। परादीस पृथ्वी पर एक मृत व्यक्ति को वापस ज़िंदगी देने के लिए, परमेश्वर को उस व्यक्ति के बारे में सब कुछ जानना और याद रखना ज़रूरी है। परमेश्वर हम में से प्रत्येक व्यक्ति की वाक़ई परवाह करता है।—१ पतरस ५:६, ७.
[पेज 5 पर तसवीर]
हिंदू जीवन-चक्र
[पेज 8 पर तसवीर]
परमेश्वर का वचन पुनरुत्थान के बारे में शिक्षा देता है