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  • यहोवा निष्ठा से कार्य करता है
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1997
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1997
w97 6/1 पेज 19-23

यहोवा निष्ठा से कार्य करता है

पीटर पैलिसर द्वारा बताया गया

दिसंबर १९८५ की बात है। जब नाइरोबी, केन्या के अंतर्राष्ट्रीय हवाई-अड्डे पर हमारा उतार शुरू हुआ तो हमारी उत्तेजना बढ़ने लगी। गाड़ी में शहर से गुज़रते वक़्त, परिचित दृश्‍यों और आवाज़ों से यादें ताज़ा हो गयीं।

हम केन्या में यहोवा के साक्षियों के “खराई बनाए रखनेवाले” ज़िला अधिवेशन में उपस्थित होने के लिए आए थे। बारह साल पहले, हमारे प्रचार कार्य पर प्रतिबंध के कारण मुझे और मेरी पत्नी को केन्या छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था। हम वहाँ बेथेल में रहते थे, वह नाम जो यहोवा के साक्षियों की शाख़ा सुविधाओं को दिया जाता है। जब हम वहाँ दुबारा गए तो हमें कैसा सुखद आश्‍चर्य हुआ!

बेथेल में एक युवा साक्षी दोपहर के भोजन की तैयारी में हाथ बँटा रही थी, उसे हम तब से जानते थे जब वह दो साल की थी। बेथेल परिवार के कम-से-कम छः सदस्य थे जिन्हें हम उनके बचपन से जानते थे। वे अब बड़े होकर अपने परिवारों के साथ थे, और वे सभी सेवकाई में सक्रिय थे। यह देखना कितने आनंद की बात थी! हमारे परमेश्‍वर, यहोवा ने बाइबल की प्रतिज्ञा के सामंजस्य में उनकी देखभाल की थी: “किसी निष्ठावान के साथ तू निष्ठा से कार्य करेगा।” (२ शमूएल २२:२६, NW) इन युवाओं के फलदायक जीवन और अपनी युवावस्था के बीच मैं ने कितनी बड़ी भिन्‍नता पायी!

उद्देश्‍यहीन युवावस्था

स्कारबरा, इंग्लैंड में अगस्त १४, १९१८ के दिन मैं जन्मा था। दो साल बाद मेरी माँ और सौतेली बहन कनाडा चली गयीं, इसलिए मैं अगले तीन साल तक अपने पिता, दादी और बूआ के साथ रहा। जब मैं पाँच साल का था तो माँ मुझे ज़बरदस्ती मॉन्ट्रियल, कनाडा ले गयीं। चार साल बाद उन्होंने मुझे पिताजी के साथ रहने और स्कूल जाने के लिए वापस इंग्लैंड भेजा।

मेरी माँ और मेरी सौतेली बहन लगभग हर छः महीने मुझे लिखतीं। उनकी चिट्ठियों के अन्त में वे यह कामना व्यक्‍त करतीं कि मैं एक अच्छा नागरिक बनूँ, राजा और देश के प्रति निष्ठावान। मेरे जवाबों ने उन्हें शायद निराश किया क्योंकि मैं ने लिखा, मेरा मानना है कि राष्ट्रीयवाद और युद्ध ग़लत थे। फिर भी, किशोरावस्था में कोई स्पष्ट दिशा न मिलने के कारण, मैं निरर्थक जीवन जीता रहा।

उसके बाद जुलाई १९३९ में, द्वितीय विश्‍व युद्ध के छः सप्ताह पहले, मुझे ब्रिटिश सेना में भरती किया गया। मैं केवल २० साल का था। मेरी टुकड़ी को जल्द ही उत्तरीय फ्रांस में भेजा गया। जब जर्मनी के विमान ने हम पर हमला किया, हम लड़कों ने उन्हें अपनी राइफलों का निशाना बनाकर उन पर गोलियाँ चलायीं। हमारा जीवन डरावना था। बढ़ती हुई जर्मन सेना के सामने हम पीछे हटने लगे, और जून १९४० के पहले सप्ताह के दौरान डनकर्क से जिन लोगों को निकाला गया उनमें से मैं एक था। समुद्र-तट पर बिखरी हुई लाशों की पूरी बटालियन का दृश्‍य याद करके अब भी मेरा दिल दहल जाता है। मैं ने उस दुःस्वप्न को पार किया और एक छोटे मालवाहक पोत में पूर्वी इंग्लैंड के हारिच पहुँचा।

अगले साल, मार्च १९४१ में, मुझे भारत भेजा गया। वहाँ मुझे उपकरण मेकैनिक के तौर पर प्रशिक्षण मिला। संक्रमण के कारण अस्पताल में कुछ समय बिताने के बाद, मुझे भारत की राजधानी, दिल्ली में सेना की एक इकाई में स्थानांतरित किया गया। घर से दूर और अब भी बीमार महसूस करते वक़्त, मैं ने भविष्य के बारे में सोचना शुरू किया। ख़ासकर मैं सोचता था कि जब हम मरते हैं तो हमारा क्या होता है।

एक नयी निष्ठा के अनुसार चलना

बर्ट गेल, मेरा एक अंग्रेज़ साथी और मैं दिल्ली में एक ही कमरे में रहते थे। एक दिन उसने कहा कि “धर्म शैतान की तरफ से है,” यह ऐसी टिप्पणी थी जिसने मेरी दिलचस्पी जगायी। उसकी पत्नी एक यहोवा की साक्षी बन गयी थी, और समय-समय पर वह उसे बाइबल के प्रकाशन भेजती रहती। उनमें से एक, पुस्तिका आशा (अंग्रेज़ी) ने मेरी रुचि जगायी। उसमें पुनरुत्थान की आशा की चर्चा से मुझे सच्ची शांति का आभास हुआ।

१९४३ के आरंभ में, बर्ट ने एक एंग्लो-इंडियन असैनिक, टॆडी ग्रूबर्ट से बात की जो हमारे साथ सैन्य अड्डे पर काम करता था। हमें यह जानकर आश्‍चर्य हुआ कि टॆडी एक साक्षी था। हालाँकि १९४१ में यहोवा के साक्षियों के प्रकाशनों पर प्रतिबंध लगाया गया था, वह हमें दिल्ली में साक्षियों द्वारा आयोजित की गयी सभाओं में ले गया। उस छोटी कलीसिया में, मैं ने जीवन में पहली बार सच्ची, स्नेहपूर्ण मित्रता पायी। यूनान से एक वृद्ध मसीही भाई, बासील त्सातोस ने मुझमें ख़ास रुचि ली और मेरे सवालों का जवाब दिया। हम क्यों बूढ़े होकर मरते हैं, पुनरुत्थान और परमेश्‍वर के प्रतिज्ञात धर्मी नए संसार के बारे में उसने सवालों के स्पष्ट बाइबलीय जवाब दिए।—प्रेरितों २४:१५; रोमियों ५:१२; २ पतरस ३:१३; प्रकाशितवाक्य २१:३, ४.

सन्‌ १९४२ में प्रकाशित, पुस्तिका शांति—क्या यह क़ायम रह सकती है? (अंग्रेज़ी), ने ख़ासकर मेरी रुचि जगायी। इसने राष्ट्र संघ की पहचान “किरमिजी रंग के पशु” के रूप में करायी। (प्रकाशितवाक्य १७:३) प्रकाशितवाक्य के अध्याय १७, आयत ११ का हवाला देते हुए, इस पुस्तिका ने कहा: “अब यह कहा जा सकता है कि यह संघ ‘पहिले था, और अब नहीं’ है।” उसने आगे कहा: “सांसारिक राष्ट्रों का संघ फिर से उठेगा।” १९४५ में, तीन से ज़्यादा साल बाद ठीक यही हुआ जब संयुक्‍त राष्ट्र संघ बनाया गया!

साक्षियों के साहित्य पर प्रतिबंध के दौरान, मैं अपने नए दोस्तों की मदद करने में समर्थ था। जब शांति—क्या यह क़ायम रह सकती है? पुस्तिकाओं का एक बक्सा आता, तो कलीसिया इसे सुरक्षित रखने के लिए मुझे दे देती। एक सैन्य शिविर मैं प्रतिबंधित साहित्य ढूँढने की बात कौन सोचता? हर बार जब मैं सभाओं में जाता, तो अपने साथ कुछ पुस्तिकाएँ ले जाता ताकि भाइयों को ये मिलती रहें। जब उन्हें अपने घरों की तलाशी लिए जाने का डर होता, तब मैं उनके व्यक्‍तिगत बाइबल साहित्य को भी छुपाता। आख़िरकार, दिसंबर ११, १९४४ के दिन प्रतिबंध हटाया गया।

मसीही शिक्षाओं के प्रति मेरी निष्ठा, १९४३ के क्रिसमस समारोह के दौरान परखी गयी, जो हमारी सैन्य टुकड़ी के लिए आयोजित किया गया था। मैं ने भाग लेने से इनकार किया, क्योंकि मैं ने जाना था कि यीशु दिसंबर की ठंड में पैदा नहीं हुआ था और प्रारंभिक मसीही क्रिसमस नहीं मनाते थे।—लूका २:८-१२ से तुलना कीजिए।

जब दिसंबर २७ से ३१, १९४४ को “संयुक्‍त घोषक” अधिवेशन जबलपुर में आयोजित किया गया, तो उपस्थित कुछ १५० लोगों में मैं भी एक था। अधिवेशन में उपस्थित होनेवाले अधिकांश लोगों ने दिल्ली से रेलगाड़ी द्वारा सफ़र किया, जो ६०० किलोमीटर से ज़्यादा की यात्रा थी। खुले स्थान में उस बढ़िया वातावरण को मैं कभी नहीं भूलूंगा, जहाँ मैं ने यहोवा के संगठन को कार्य करते देखा।

अधिवेशन में उपस्थित होनेवालों को स्कूल की शयनशालाओं में ठहराया गया, जहाँ हमने राज्य गीत गाए और आनंदपूर्ण मसीही संगति का मज़ा लिया। उस अधिवेशन के दौरान, मैं जन प्रचार कार्य में भाग लेने लगा, ऐसा काम जो अब तक मुझे प्रिय है।

इंग्लैंड में पूर्ण-समय सेवकाई

मैं १९४६ में इंग्लैंड लौटा और जल्द ही वुलवर्टन कलीसिया के साथ संगति करने लगा। हालाँकि वहाँ केवल १० राज्य प्रकाशक थे, उन्होंने मेरा स्वागत किया, और मैं ने वही संतुष्टि अनुभव की जिसे मैं ने भारत में अपने भाइयों के बीच पायी थी। विरा क्लिफ़्टन का कलीसिया में एक सच्ची, स्नेही व्यक्‍ति होने का नाम था। जब मैं ने जाना कि मेरी तरह उसकी भी इच्छा थी कि एक पायनियर बने, जो पूर्ण-समय सेवकों का नाम है, तो मई २४, १९४७ के दिन हमारा विवाह हुआ। मैं ने एक कारवाँ, या चलता-फिरता घर बना लिया, और अगले साल, हमें अपनी पहली पायनियर नियुक्‍ति मिली, हंटिंगडन नगर।

उन दिनों हम ग्रामीण क्षेत्र में पहुँचने के लिए तड़के ही साइकिलों पर चल पड़ते। हमारे पूरे दिन के प्रचार में हम केवल थोड़ी देर दोपहर का भोजन खाने के लिए रुकते। चाहे सामने की हवा कितनी ही तेज़ हो या चाहे कितनी ही भारी वर्षा हो, इन सब के बीच से हम अपनी साइकिलों के पैडल मारते घर पहुँचते, हम प्रभु के काम में ख़ुश और संतुष्ट थे।

कुछ समय बाद हमें अपनी सेवकाई को विस्तृत करने की और दूसरे देशों के लोगों के साथ “सुसमाचार” बाँटने की तीव्र इच्छा हुई। (मत्ती २४:१४) सो हमने साउथ लॆन्सिंग, न्यू यॉर्क, अमरीका में गिलियड मिशनरी स्कूल में उपस्थित होने के लिए अर्ज़ी भरी। आख़िरकार, हमें गिलियड की २६वीं कक्षा के लिए स्वीकार किया गया, जिसने फरवरी १९५६ में स्नातकता प्राप्त की।

अफ्रीका में एक विस्तृत सेवकाई

हमारी मिशनरी कार्य-नियुक्‍ति अफ्रीका में उत्तरी रोढेशिया (अब ज़ाम्बिया) थी। पहुँचने के तुरंत बाद, हमें उस देश के बेथेल में सेवा करने के लिए बुलाया गया। मेरे बेथेल कार्य के एक भाग के तौर पर, मैं पूर्वी अफ्रीका के साथ पत्र-व्यवहार की देख-रेख करता था। १९५६ में, केन्या में—जो पूर्वी अफ्रीका में एक देश है—केवल चार साक्षी थे, जबकि उत्तरी रोढेशिया में २४,००० से कहीं ज़्यादा थे। विरा और मैं सोचने लगे कि ऐसी जगह पर सेवा करना कितना अच्छा होगा जहाँ ज़रूरत ज़्यादा थी।

फिर, अचानक, मुझे गिलियड स्कूल के लिए एक और आमंत्रण मिला, इस बार ओवरसियरों के लिए एक दस-माही पाठ्यक्रम के लिए। विरा को उत्तरी रोढेशिया में पीछे छोड़, मैं न्यू यॉर्क सिटी गया, जहाँ गिलियड स्कूल उस समय पर था। नवम्बर १९६२ में पाठ्यक्रम ख़त्म करने के बाद, मुझे केन्या में नियुक्‍त किया गया कि वहाँ एक शाख़ा दफ़्तर स्थापित करूँ। इस समय तक केन्या में सौ से ज़्यादा साक्षी थे।

विरा से मिलने के लिए उत्तरी रोढेशिया की मेरी वापसी पर, मुझे कुछ समय के लिए नाइरोबी, केन्या में रुकना था। लेकिन जब मैं वहाँ पहुँचा, तो बिल निज़बॆत, २५वीं कक्षा का एक गिलियड स्नातक, मुझे इस ख़बर के साथ मिला कि अभी तुरंत केन्या में प्रवेश करने के लिए सरकारी अनुमति प्राप्त करने का अवसर था। हम आप्रवास अधिकारियों के पास गए, और कुछ ही मिनटों में मुझे पाँच साल का परमिट मिल गया। सो मैं उत्तरी रोढेशिया गया ही नहीं; बल्कि, विरा मुझसे नाइरोबी में आकर मिली।

ख़ास हमारे लिए तैयार किए गए स्वाहिली भाषा पाठ्यक्रम के बाद, छोटी-सी नाइरोबी कलीसिया के साथ हम सेवकाई में गए। कभी-कभी जब हम अपनी स्वाहिली प्रस्तुति पढ़ लेते, तो गृहस्वामी हैरान होकर कहता, “मैं अंग्रेज़ी नहीं समझता!” इसके बावजूद, हम लगे रहे और धीरे-धीरे हमने भाषा की बाधा को पार किया।

हमारे क्षेत्र में बड़े-बड़े भवन-समूह थे और उनके नाम बाइबल से थे जैसे यरूशलेम और यरीहो। दिलचस्पी जल्दी ही विकसित की गयी, और इन क्षेत्रों से अनेक नए राज्य प्रकाशक आए। इन लोगों पर बाइबल सच्चाई ने कैसा बढ़िया प्रभाव डाला था! जातीय श्रेष्ठता की भावनाएँ लुप्त हो गयीं जब राज्य के प्रति निष्ठा यहोवा के लोगों के बीच एकता ले आई। यहाँ तक कि अंतर्जातीय विवाह हुए, जो ग़ैर-साक्षियों के बीच बहुत ही असाधारण बात थी।

नए राज्य उद्‌घोषकों ने सत्य को जोश के साथ अपनाया। उदाहरण के लिए, बाइबल सत्य उसके घरेलू क्षेत्र में प्रवेश करे इसके लिए सैमसन इतना उत्सुक था कि वह पायनियरों के वहाँ भेजे जाने के बारे में बार-बार पूछता रहा। असल में, उसने उनके ठहरने का इंतज़ाम करने के लिए ऊकामबानी क्षेत्र में अपने घर का विस्तार करवाया। जल्द ही राज्य उद्‌घोषकों की एक नयी कलीसिया वहाँ स्थापित की गयी।

अनेकों बार मैं ने पूर्व अफ्रीकी देश, इथियोपिया के अपने भाइयों से भेंट की। गिरफ़्तारियों, मारपीट, और लगातार नज़र रखे जाने के बावजूद, वे प्रति माह सेवकाई में औसतन २० घंटों से ज़्यादा बिता रहे थे। एक बार केन्या में ज़िला अधिवेशन में उपस्थित होने के लिए इथियोपियाई भाई-बहनों ने दो बसों में, ख़तरनाक घाटियों से गुज़रकर, एक सप्ताह तक यात्रा की। अपने देश में राज्य साहित्य को उपलब्ध कराने का प्रबंध करने की उनकी उपायकुशलता उल्लेखनीय थी। हम जो केन्या में थे उन्हें साहित्य देते रहने में ख़ुशी पाते थे।

सन्‌ १९७३ में केन्या में हमारे काम पर सरकारी प्रतिबंध लगाया गया, और मिशनरियों को देश छोड़ने पर मजबूर किया गया। उस समय तक केन्या में १,२०० से अधिक साक्षी थे, और इनमें से कई हमें कभी न भूली जा सकनेवाली विदाई देने के लिए हवाई-अड्डे पर आए थे। उनकी उपस्थिति ने एक सह-यात्री को पूछने पर विवश किया कि क्या हम किसी क़िस्म की मशहूर हस्तियाँ हैं। विरा और मैं इंग्लैंड लौटे और वहाँ हमें एक कार्य-नियुक्‍ति पेश की गयी, लेकिन हम अफ्रीका लौटने के लिए तरस रहे थे।

वापस अफ्रीका में

अतः, कुछ महीनों बाद, हमें पश्‍चिम अफ्रीका के देश, घाना की राजधानी अक्करा में बेथेल में अपनी नयी नियुक्‍ति मिली। यहाँ मेरी एक कार्य-नियुक्‍ति ने मुझे उन कठिनाइयों का अनुभव कराया जिनका हमारे भाई वहाँ सामना करते हैं। जब मैं बेथेल परिवार के लिए भोजन और अन्य वस्तुओं की ख़रीदारी करता था, तो मैं खाद्य-सामग्री की आसमान छूती क़ीमतों से चकित हो गया। अकसर एक व्यक्‍ति ज़रूरी वस्तुओं को बस ख़रीद ही नहीं पाता था। पेट्रोल की कमी और गाड़ियों के अतिरिक्‍त पुरजों की कमी ने समस्याएँ बढ़ायीं।

मैं धीरज का महत्त्व सीखने लगा, वह जो हमारे घानाई भाइयों ने विकसित किया था। घूस से जीवन की ज़रूरतों को पूरा करने के प्रलोभन को ठुकराने के साथ-साथ वे हँसमुख मुद्रा बनाए रखते हैं, यह देखना कितना प्रोत्साहक था। इसके परिणामस्वरूप, घाना में यहोवा के लोग अपनी ईमानदारी के लिए सुप्रसिद्ध हैं और अनेक अधिकारियों के सामने उन्होंने अच्छा नाम कमाया है।

लेकिन, भौतिक कमियों के बावजूद, आध्यात्मिक समृद्धि बढ़ती जा रही थी। देश भर में, हमारे बाइबल प्रकाशन लगभग हर घर में मौजूद थे। और हमने घाना में, जब हम १९७३ में आए, तब १७,१५६ से बढ़कर १९८१ में २३,००० से अधिक राज्य उद्‌घोषक होते देखा। १९८१ में मेरा त्वचा कैंसर बढ़ने लगा, और निश्‍चय ही यह रोग सालों से भारत और अफ्रीका में धूप में रहने से बदतर हो गया था। इसकी वजह से हमें घाना छोड़ना पड़ा और नियमित इलाज के लिए इंग्लैंड लौटना पड़ा।

इंग्लैंड में नयी परिस्थितियाँ

मेरे लिए हमारी वापसी का अर्थ था मेरी सेवकाई में ढेर सारा फेर-बदल। मैं परमेश्‍वर और बाइबल का आदर करनेवाले लोगों से उन्मुक्‍त रूप से बात करने का कितना आदी था। लेकिन लंदन में, मैं मुश्‍किल ही ऐसी मनोवृत्ति पाता हूँ। मैं ब्रिटेन में भाइयों की लगन पर आश्‍चर्य करता हूँ। इससे मैं ने ऐसे लोगों के लिए ज़्यादा तदनुभूति विकसित करने की ज़रूरत समझी है जो आध्यात्मिक रीति से “ब्याकुल और भटके हुए से” हैं।—मत्ती ९:३६.

अफ्रीका से अपनी वापसी पर, विरा और मैं ने लंदन बेथेल में, विरा की मृत्यु तक साथ-साथ सेवा की। उसकी मृत्यु ७३ की उम्र में सितंबर १९९१ में हुई। ऐसे वफ़ादार साथी को खोना, जिसने इतने सालों तक मेरे साथ-साथ सेवकाई में परिश्रम किया, आसान नहीं रहा है। मैं बहुत बुरी तरह उसकी कमी महसूस करता हूँ। कुछ २५० सदस्यों के हमारे बेथेल परिवार से जो उत्तम सहारा मुझे मिलता है उसके लिए मैं ख़ुश हूँ।

मेरे लिए यहोवा के संगठन के आगे बढ़ने का अनुभव करना और इतने सारे व्यक्‍तियों को पूर्ण-समय की सेवकाई को अपनी जीवन-शैली बनाते देखना सचमुच एक विशेषाधिकार है। मैं आपको विश्‍वास दिला सकता हूँ, इससे बेहतर जीने का तरीक़ा कोई नहीं है, क्योंकि “यहोवा . . . अपने भक्‍तों को न तजेगा।”—भजन ३७:२८.

[पेज 23 पर तसवीर]

हमने १९४७ से १९५५ तक इंग्लैंड में पायनियर कार्य किया

[पेज 23 पर तसवीर]

सेवकाई में पहली बार भारत में अधिवेशन के दौरान

[पेज 23 पर तसवीर]

जब हम उत्तरी रोढेशिया में मिशनरी थे

[पेज 23 पर तसवीर]

१९८५ में, उन दोस्तों के साथ जिनसे हम १२ सालों तक नहीं मिले थे

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