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  • पाठकों के प्रश्‍न
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1999
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1999
w99 11/1 पेज 28-29

पाठकों के प्रश्‍न

वोट देने के बारे में यहोवा के साक्षियों का क्या नज़रिया है?

बाइबल इस मामले में कुछ सिद्धांत साफ-साफ बताती है जिससे यहोवा के सेवकों को सही नज़रिया रखने में मदद मिलती है। बाइबल ऐसा तो कहीं नहीं कहती कि हमें वोट देना ही नहीं चाहिए। मसलन, जब बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग में किसी अहम फैसले पर पहुँचना होता है, तो राय जानने के लिए सदस्यों से वोट लिया जा सकता है। इसी तरह यहोवा के साक्षी भी अपनी सभाओं का समय तय करने या कलीसिया के पैसे को कैसे इस्तेमाल करना है, इस बारे में कलीसिया के सदस्यों की राय जानने के लिए अकसर हाथ उठाकर वोट लेते हैं।

अगर राजनैतिक चुनावों में वोट देने की बात आए तो? कुछ लोकतांत्रिक देशों में, चुनाव के दिन आबादी के, करीब ५० प्रतिशत लोग वोट देने ही नहीं जाते। यहोवा के साक्षी किसी के वोट देने या न देने के मामले में दखलअंदाज़ी नहीं करते और ना ही वे किसी राजनैतिक चुनाव का विरोध करते हैं। चुनाव में चाहे जो भी जीते, साक्षी उसका सम्मान करते हैं और उसके आधीन रहते हैं। (रोमियों १३:१-७) लेकिन जहाँ तक खुद वोट देने की बात आती है तो वे इस मामले में बाइबल की शिक्षा से ढाले गए अपने विवेक के आधार पर और परमेश्‍वर और सरकार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियो को ध्यान में रखकर फैसला करते हैं। (मत्ती २२:२१; १ पतरस ३:१६) अपना फैसला करते वक्‍त मसीही बहुत-सी बातों को ध्यान में रखते हैं।

पहली बात यह है कि यीशु मसीह ने अपने चेलों के बारे में कहा था: “जैसा मैं संसार का नहीं, वैसे ही वे भी संसार के नहीं।” (यूहन्‍ना १७:१४) यहोवा के साक्षी इस सिद्धांत को बहुत अहमियत देते हैं। “इस जगत का नहीं” होने के कारण वे संसार के किसी भी राजनैतिक मामलों में हिस्सा नहीं लेते।—यूहन्‍ना १८:३६.

दूसरी बात है कि पौलुस ने अपने ज़माने में खुद को मसीह का प्रतिनिधि यानी “राजदूत” कहा। (इफिसियों ६:१९; २ कुरिन्थियों ५:२०) यहोवा के साक्षियों को विश्‍वास है कि यीशु मसीह अब परमेश्‍वर के स्वर्गीय राज्य का राजा है इसलिए उन्हें मसीह के राजदूत की तरह राष्ट्रों में जाकर उसके राज्य के बारे में प्रचार करना चाहिए। (मत्ती २४:१४; प्रकाशितवाक्य ११:१५) राजदूत का यह फर्ज़ होता है कि जिस देश में वह जाए उस देश के मामलों में वह कोई दखल न दे। ठीक इसी तरह यहोवा के साक्षी भी परमेश्‍वर के स्वर्गीय राज्य के प्रतिनिधि होने के नाते यह ज़िम्मेदारी महसूस करते हैं कि वे किसी देश के राजनैतिक मामलों में कोई दखलअंदाज़ी न करें।

तीसरी बात है कि जब कोई इंसान अपना वोट देकर किसी को सत्ता में लाता है, तब वह इंसान उस व्यक्‍ति के हर काम के लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार हो सकता है। (१ तीमुथियुस ५:२२ से तुलना कीजिए।) मसीहियों को इस बारे में ध्यान देने की ज़रूरत है कि क्या वे उस ज़िम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार हैं।

चौथी बात है कि यहोवा के साक्षी अपनी मसीही एकता की बहुत कदर करते हैं। (कुलुस्सियों ३:१४, NHT) जब भी धर्म को राजनीति में मिलाया जाता है, तो अकसर इसका नतीजा यह होता है कि उस धर्म के सदस्यों के बीच फूट पड़ जाती है। जिस तरह यीशु मसीह ने कभी राजनीति में हिस्सा नहीं लिया था, उसी तरह यहोवा के साक्षी भी राजनैतिक मामलों में हिस्सा नहीं लेते और इस तरह वे अपनी मसीही एकता को बनाए रखते हैं।—मत्ती १२:२५; यूहन्‍ना ६:१५; १८:३६, ३७.

पाँचवी और आखिरी बात है कि राजनीति में हिस्सा न लेने के कारण यहोवा के साक्षी बड़े हियाव से यानी हिम्मत के साथ अलग-अलग राजनैतिक गुटों के लोगों के पास जाकर परमेश्‍वर के राज्य का संदेश सुना सकते हैं जो बहुत ज़रूरी है।—इब्रानियों १०:३५.

ऊपर कहे गए बाइबल सिद्धांतों के मुताबिक कई देशों में, यहोवा के साक्षी व्यक्‍तिगत फैसला करते हैं कि वे किसी राजनैतिक पार्टी को वोट देने नहीं जाएँगे। और उनके इस फैसले से उस देश के कानून को भी कोई एतराज़ नहीं होता। लेकिन तब क्या, अगर किसी देश का कानून नागरिकों से वोट देने की माँग करे? ऐसे मामलों में हर साक्षी बाइबल सिद्धांतों पर चलते हुए अपने विवेक के आधार पर खुद फैसला करने के लिए ज़िम्मेदार है कि वह इस समस्या से कैसे निपटे। अगर कोई मतदान कक्ष में जाने का फैसला करता है तो यह उसकी मर्ज़ी। और मतदान कक्ष में जाकर वह क्या करता है यह तो वह जाने और उसका परमेश्‍वर।

नवंबर १५, १९५० का अंग्रेज़ी प्रहरीदुर्ग का पेज ४४५ और ४४६ यूँ कहता है: “जहाँ कैसर (सरकार) अपने नागरिकों को वोट देने के लिए बाध्य करता है . . . वहाँ [के साक्षी] वोट देने के लिए मतदान केंद्र जा सकते हैं। वहाँ मतदान कक्ष में जाकर उन्हें वोट-पर्ची पर चिन्ह लगाना होता है या यह लिखना होता है कि वे किसे वोट दे रहे हैं। अब यह तो वोट देनेवाले की मर्ज़ी है कि वह वोट-पर्ची के साथ क्या करे। और यहाँ यहोवा के साक्षियों को परमेश्‍वर को हाज़िर-नाज़िर जानकर, उसकी आज्ञा के मुताबिक और अपने विश्‍वास के आधार पर काम करना है। यह बताना हमारी ज़िम्मेदारी नहीं कि वोट-पर्ची के साथ क्या करना है।”

अगर किसी बहन का अविश्‍वासी पति उसे वोट देने के लिए ज़बरदस्ती करता है तब क्या? ठीक जैसे मसीही उच्च अधिकारियों के आधीन रहते हैं, बहन को भी अपने पति के आधीन रहना है। (इफिसियों ५:२२; १ पतरस २:१३-१७) अगर वह अपने पति की बात मानकर मतदान केंद्र जाती है तो यह उसका अपना फैसला है। किसी को उस पर उँगली उठाने का कोई हक नहीं।—रोमियों १४:४.

कई देशों का कानून तो वोट देने की माँग नहीं करता, मगर जो लोग वोट देने नहीं जाते, वहाँ के लोग उनके दुश्‍मन बन जाते हैं। यहाँ तक कि उन्हें शारीरिक नुकसान भी पहुँचाते हैं, या फिर उन्हें कोई भारी दण्ड दिया जाता है। तो फिर ऐसे हालात में क्या किया जा सकता है? इन मामलों में या ऐसे ही किसी दूसरे हालात में एक मसीही को अपना फैसला खुद करना चाहिए। “हर एक व्यक्‍ति अपना ही बोझ उठाएगा।”—गलतियों ६:५.

कुछ लोग शायद यह देखकर ठोकर खाएँ कि उनके देश में चुनाव के दौरान कुछ यहोवा के साक्षी तो मतदान केंद्र तक जाते हैं, मगर कुछ नहीं। तो वे कह सकते हैं कि ‘यहोवा के साक्षियों के विचार एक नहीं।’ लेकिन लोगों को यह समझना चाहिए कि हर साक्षी अपने अंतःकरण के आधार पर जो फैसला करता है, जैसे कि वोट देने के मामले में भी, तो यह उसका व्यक्‍तिगत फैसला है जिसका लेखा उसे यहोवा को देना होगा।—रोमियों १४:१२.

चाहे जो भी परिस्थिति हो, यहोवा के हर साक्षी को फैसला करते वक्‍त इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने आपको इन राजनैतिक मामलों से अलग रखे और हियाव न छोड़े। क्योंकि मसीही हर हाल में यहोवा परमेश्‍वर पर भरोसा रखते हैं कि यहोवा ही उन्हें शक्‍ति देगा, बुद्धि देगा और उनके विश्‍वास की रक्षा करेगा। इसलिए वे भी भजनहार की तरह ही महसूस करते हैं: “तू मेरे लिये चट्टान और मेरा गढ़ है; इसलिये अपने नाम के निमित्त मेरी अगुआई कर, और मुझे आगे ले चल।”—भजन ३१:३.

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