“हर एक व्यक्ति अपना ही बोझ उठाएगा”
“हम में से हर एक परमेश्वर को अपना अपना लेखा देगा।”—रोमियों 14:12.
1. तीन इब्री जवानों ने कौन-सी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया?
बाबुल में रहनेवाले तीन इब्री जवानों को एक बहुत बड़ा फैसला करना था। यह फैसला उनकी ज़िंदगी और मौत का फैसला होता। क्या वे देश के कानून को मानकर बड़ी मूर्ति के आगे सिजदा करते? या फिर सिजदा करने से इनकार करके आग के भट्ठे में फेंक दिया जाना उन्हें मंजूर होता? शद्रक, मेशक और अबेदनगो के पास किसी से सलाह-मशविरा करने का वक्त नहीं था। न ही उन्हें इसकी ज़रूरत महसूस हुई। उन्होंने बेझिझक यह ऐलान किया: “हे राजा तुझे मालूम हो, कि हम लोग तेरे देवता की उपासना नहीं करेंगे, और न तेरी खड़ी कराई हुई सोने की मूरत को दण्डवत् करेंगे।” (दानिय्येल 3:1-18) इस तरह इन तीन इब्री जवानों ने अपने फैसले खुद करने की ज़िम्मेदारी बखूबी निभायी।
2. रोमी हाकिम पीलातुस ने यीशु मसीह के बारे में जो फैसला सुनाया था, वह असल में किसका फैसला था, और क्या इससे वह अपनी जवाबदारी से छूट जाता?
2 इस घटना के करीब छः सौ साल बाद, एक हाकिम मुलज़िम पर लगाए गए इलज़ामों को सुनता है। जाँच-पड़ताल करने पर उसे यकीन हो जाता है कि मुलज़िम बेकसूर है। मगर बाहर खड़ी भीड़ उसे मौत की सज़ा देने की ज़िद्द करती है। कुछ देर के लिए हाकिम उनकी बात नहीं मानता, मगर बाद में उनकी ज़िद्द के आगे झुक जाता है और फैसला करने की अपनी ज़िम्मेदारी का बोझ दूसरों पर डाल देता है। इस फैसले के लिए वह जवाबदेह नहीं है, यह दिखाने के लिए वह अपने हाथ धोता है और कहता है: “मैं इस धर्मी के लोहू से निर्दोष हूं।” फिर वह उस आदमी को सूली पर चढ़ाने की सज़ा सुनाता है। सज़ा सुनानेवाला वह हाकिम, पुन्तियुस पीलातुस था और बेकसूर होने पर भी मौत की सज़ा पानेवाला यीशु मसीह था। चाहे पीलातुस कितनी ही बार हाथ धो लेता मगर यीशु के साथ नाइंसाफी करने के लिए उसे एक-न-एक-दिन जवाब देना पड़ता।—मत्ती 27:11-26; लूका 23:13-25.
3. हम क्यों दूसरों को हमारे लिए फैसले नहीं करने देंगे?
3 आपके बारे में क्या? जब आपको कोई फैसला करना होता है तो क्या आप उन तीन इब्रियों की तरह खुद अपनी ज़िम्मेदारी का बोझ उठाते हैं या क्या दूसरे आपके लिए फैसला करते हैं? सही फैसले करना इतना आसान नहीं होता। इनमें सूझ-बूझ और तजुरबे की ज़रूरत होती है। मिसाल के लिए, माँ-बाप को अपने नाबालिग बच्चों के लिए फैसले करने होते हैं। बेशक, जब मामला बहुत पेचीदा होता है और कई पहलुओं को ध्यान में रखना होता है, तो ऐसे में फैसला करना मुश्किल हो सकता है। मगर अपने फैसले खुद करने की ज़िम्मेदारी हमें खुद उठानी चाहिए। इसे उस “भार” या परेशानी में शामिल नहीं किया जा सकता जिसे काबिलीयत रखनेवाले हमारे “आत्मिक” भाई हमारे लिए कभी-कभी उठाते हैं। (गलतियों 6:1, 2) इसके बजाय, अपनी ज़िम्मेदारी का यह बोझ हमें खुद उठाना है जिसके लिए “हम में से हर एक परमेश्वर को अपना अपना लेखा देगा।” (रोमियों 14:12) बाइबल कहती है: “हर एक व्यक्ति अपना ही बोझ उठाएगा।” (गलतियों 6:5) अब सवाल यह उठता है कि हम अपनी ज़िंदगी में बुद्धिमानी-भरे फैसले कैसे कर सकते हैं? सबसे पहले, हमें अपनी खामियों को समझना होगा और यह सीखना होगा कि इन्हें कैसे पूरा किया जा सकता है।
बेहद ज़रूरी माँग
4. पहले इंसानी जोड़े के आज्ञा न मानने से हमें फैसला करने के बारे में कौन-सा ज़रूरी सबक सीखना चाहिए?
4 इंसान के इतिहास की शुरूआत में, पहले जोड़े ने एक ऐसा फैसला लिया जिसका अंजाम बहुत बुरा निकला। उन्होंने अपनी मरज़ी से भले या बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाया। (उत्पत्ति 2:16, 17) मगर उन्होंने यह फैसला किस वजह से किया? बाइबल बताती है: “जब स्त्री ने देखा कि उस वृक्ष का फल खाने में अच्छा, और देखने में मनभाऊ, और बुद्धि देने के लिये चाहने योग्य भी है, तब उस ने उस में से तोड़कर खाया; और अपने पति को भी दिया, और उस ने भी खाया।” (उत्पत्ति 3:6) हव्वा ने यह फैसला अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए किया और आदम ने भी उसका साथ दिया। नतीजा यह हुआ कि पाप और मौत “सब मनुष्यों में फैल” गए। (रोमियों 5:12) आदम और हव्वा के आज्ञा न मानने से इंसान की खामी के बारे में हमें एक ज़रूरी सबक सीखना चाहिए: जब इंसान परमेश्वर की बतायी राह पर नहीं चलता, तो उसके ज़्यादातर फैसले गलत ही होते हैं।
5. यहोवा ने हमें सही राह दिखाने के लिए क्या इंतज़ाम किया है, और उससे फायदा पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
5 हमारे लिए यह कितनी खुशी की बात है कि यहोवा आज भी हमें सही राह दिखा रहा है! बाइबल कहती है: “जब कभी तुम दहिनी वा बाई ओर मुड़ने लगो, तब तुम्हारे पीछे से यह वचन तुम्हारे कानों में पड़ेगा, मार्ग यही है, इसी पर चलो।” (यशायाह 30:21) यहोवा अपने ईश्वर-प्रेरित वचन बाइबल के ज़रिए हमें सही राह दिखाता है। इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि हम बाइबल का अध्ययन करें और इसका सही ज्ञान हासिल करें। सही फैसले करने के लिए हमें “ठोस [आध्यात्मिक] भोजन” खाना होगा जो “बड़ों के लिए” होता है। साथ ही, हमें “अभ्यास” के ज़रिए अपनी ‘ज्ञानेन्द्रियों को भले-बुरे की पहिचान करने में निपुण’ बनाना होगा। (इब्रानियों 5:14, NHT) परमेश्वर के वचन से सीखी बातों पर अमल करके हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों को निपुण बना सकते हैं।
6. हमारा विवेक ठीक तरह काम करे इसके लिए क्या ज़रूरी है?
6 फैसले करने में परमेश्वर की एक और देन हमारे लिए बेहद ज़रूरी है, वह है हमारा विवेक। यह हममें पैदाइशी होता है और सही-गलत के बीच फर्क करने के काबिल होता है। इसलिए यह हमारे कामों के लिए हमें ‘दोषी’ या “निर्दोष” ठहराता है। (रोमियों 2:14, 15) लेकिन अगर हम चाहते हैं कि हमारा विवेक ठीक तरह से काम करे, तो यह ज़रूरी है कि हम परमेश्वर के वचन के सही ज्ञान से इसे रोशन करें और इस वचन पर अमल करके इसे कोमल बनाएँ। जो विवेक परमेश्वर के वचन से रोशन नहीं होता उस पर आस-पास के लोगों के रिवाज़ों और तौर-तरीकों का बहुत जल्द असर होता है। इसके अलावा, हमारा माहौल और दूसरों की राय भी हमें गुमराह कर सकती है। जब हम बार-बार अपने विवेक की आवाज़ को अनसुना करते हैं और परमेश्वर के नियमों को तोड़ते हैं, तो इसका हमारे विवेक पर क्या असर होता है? कुछ वक्त बाद, हमारा विवेक ऐसा हो जाता है ‘मानो जलते हुए लोहे से दागा गया हो।’ (1 तीमुथियुस 4:2) और जैसे दागी हुई त्वचा कुछ महसूस नहीं कर पाती वैसे ही हमारा विवेक सख्त हो जाता है और कुछ महसूस नहीं कर पाता। दूसरी तरफ, परमेश्वर के वचन से तालीम पाया हुआ विवेक भरोसेमंद गाइड की तरह हमें सही राह दिखता है।
7. सही फैसले करने के लिए क्या बात बेहद ज़रूरी है?
7 तो फिर सही फैसले करने की अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि हमारे पास बाइबल का सही ज्ञान हो और हम उस पर अमल भी करें। कोई भी फैसला जल्दबाज़ी में या बिना सोचे-समझे करने के बजाय, हमें समय निकालकर खोजबीन करनी चाहिए कि हमारे हालात पर बाइबल के कौन-से सिद्धांत लागू होते हैं और फिर सोच-समझकर उन पर अमल करना चाहिए। अगर हमारे पास परमेश्वर के वचन का सही ज्ञान है और हमने उस पर अमल करके अपने विवेक को तालीम दी है, तो शद्रक, मेशक और अबेदनगो की तरह अचानक कोई फैसला करने की नौबत भी आए, तो हम इसके लिए तैयार होंगे और सही फैसला करेंगे। यह समझने के लिए कि आध्यात्मिक प्रौढ़ता की तरफ बढ़ने से किस तरह फैसले करने की हमारी काबिलीयत में सुधार आ सकता है, आइए ज़िंदगी के दो पहलुओं पर गौर करें।
हमारे दोस्त कौन हैं?
8, 9. (क) कौन-से सिद्धांत दिखाते हैं कि हमारे लिए बुरी सोहबत से दूर रहना ज़रूरी है? (ख) क्या सिर्फ बुरे काम करनेवालों से मिलने-जुलने को ही बुरी संगति कहा जा सकता है? समझाइए।
8 प्रेरित पौलुस ने लिखा: “धोखा न खाना, बुरी संगति अच्छे चरित्र को बिगाड़ देती है।” (1 कुरिन्थियों 15:33) यीशु मसीह ने अपने चेलों से कहा: “तुम संसार के नहीं।” (यूहन्ना 15:19) इन सिद्धांतों को जानने पर हमें साफ समझ में आता है कि हमारे लिए व्यभिचारी, परस्त्रीगामी, चोरी करनेवाले, पियक्कड़ और ऐसे ही दूसरे लोगों की बुरी सोहबत से दूर रहना ज़रूरी है। (1 कुरिन्थियों 6:9, 10) मगर जब हम बाइबल की सच्चाइयों के ज्ञान में बढ़ते जाते हैं, तो हमें समझ आता है कि ऐसे बुरे लोगों के साथ फिल्मों, टी.वी, कंप्यूटर और किताबों के ज़रिए सोहबत रखना भी हमारे लिए उतना ही नुकसानदेह है। यह बात उन लोगों के लिए भी कही जा सकती है जिनसे हम इंटरनेट चैट रूम के ज़रिए बातचीत करते हैं जो ज़्यादातर ‘कपटी’ होते हैं यानी अपनी असलियत छिपाते हैं।—भजन 26:4.
9 उन लोगों से दोस्ती रखने के बारे में क्या जो साफ-सुथरी ज़िंदगी तो जीते हैं, मगर सच्चे परमेश्वर पर विश्वास नहीं रखते? बाइबल हमें बताती है: “सारा संसार उस दुष्ट के वश में पड़ा है।” (1 यूहन्ना 5:19) इससे हमें समझ में आता है कि सिर्फ ऐसे लोग ही बुरी सोहबत नहीं होते जो बुरे काम करते हैं और अपनी मन-मरज़ी से जीते हैं। इसलिए अक्लमंदी इसी में है कि हम सिर्फ उन लोगों को अपना करीबी दोस्त बनाएँ जो यहोवा से प्यार करते हैं।
10. दुनिया के साथ नाता रखते वक्त, समझ-बूझ से फैसले करने में क्या बात हमारी मदद करेगी?
10 दुनिया के साथ हम किसी भी तरह का नाता न रखें, ऐसा न तो मुमकिन है न ही ज़रूरी। (यूहन्ना 17:15) हम प्रचार करते वक्त, स्कूल में और नौकरी की जगह पर हर कहीं दुनिया के लोगों के साथ मिलते हैं। मगर जिन मसीही भाई-बहनों के जीवन-साथी सच्चाई में नहीं हैं, उन्हें शायद दुनिया के लोगों से ज़्यादा मेल-जोल रखना पड़े। अगर हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ पक्की हैं तो हम ये फर्क समझ पाएँगे कि हमारा दुनियावी लोगों के साथ किस हद तक नाता रखना ज़रूरी है और कहाँ हमें खुद को रोकना है ताकि हम उनके साथ गहरी दोस्ती न गाँठ लें। (याकूब 4:4) इस तरह हम समझ-बूझ के साथ फैसला कर पाएँगे कि हमें स्कूल के दूसरे कार्यक्रमों में हिस्सा लेना चाहिए या नहीं, जैसे खेलकूद और नाच-गाने के कार्यक्रमों में। या हमें काम की जगह पर सभी कर्मचारियों के लिए रखी गयी पार्टियों और दावतों में शरीक होना चाहिए या नहीं।
कैसी नौकरी करें
11. नौकरी के बारे में फैसला करते वक्त हमें सबसे पहले किस बात पर ध्यान देना चाहिए?
11 समझ-बूझ के साथ बाइबल सिद्धांतों पर अमल करने से हमें यह फैसला करने में भी मदद मिलती है कि अपने ‘परिवार की देखभाल’ करने का फर्ज़ कैसे निभाएँ। (1 तीमुथियुस 5:8, NHT) सबसे पहले, हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि हम किस तरह का काम या नौकरी करेंगे और इसमें हमें क्या-क्या करना होगा। बेशक ऐसा कोई भी काम करना गलत होगा जिसकी बाइबल साफ-साफ निंदा करती है। इसलिए सच्चे मसीही ऐसी कोई नौकरी कबूल नहीं करते जिसमें उन्हें मूर्तिपूजा, चोरी, लहू का गलत इस्तेमाल या ऐसे दूसरे काम करने पड़ें जो बाइबल के हिसाब से गलत हैं। नौकरी की जगह पर अगर हमारा मालिक हमें झूठ बोलने या बेईमानी करने के लिए कहता है, तब भी हम ऐसा कोई काम नहीं करेंगे।—प्रेरितों 15:29; प्रकाशितवाक्य 21:8.
12, 13. और कौन-कौन-से पहलू हैं जिनसे आपको यह तय करने में मदद मिलेगी कि फलाँ काम करना चाहिए या नहीं?
12 मगर ऐसे काम के बारे में क्या जिससे हम परमेश्वर की किसी आज्ञा को सीधे-सीधे नहीं तोड़ते? जैसे-जैसे सच्चाई का हमारा ज्ञान बढ़ता जाएगा और हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ पक्की होती जाएँगी, इस मामले में हम ऐसे पहलू भी देख सकेंगे जिनसे हमें यह तय करने में मदद मिलेगी कि हम फलाँ काम करें या नहीं। क्या आपको कुछ ऐसा करना पड़ेगा जो आपको किसी ऐसे काम का साझेदार बना सकता है जो बाइबल के हिसाब से गलत है। जैसे, किसी जुएखाने में फोन पर जवाब देने का काम करना? इस बात पर भी ध्यान दीजिए कि आपको तनख्वाह कौन दे रहा है और आपके काम की जगह कौन-सी होगी। मिसाल के लिए, एक मसीही जो ठेकेदार है और खुद का कारोबार करता है, क्या वह ईसाईजगत के किसी चर्च की रंगाई करने का ठेका लेगा और इस तरह झूठे धर्म को बढ़ावा देने में हिस्सा लेगा?—2 कुरिन्थियों 6:14-16.
13 ऐसे मौके पर आप क्या करेंगे जब आपके मालिक ने एक ऐसी जगह को सजाने का ठेका लिया है जहाँ झूठी उपासना की जाती है? इस मामले में, इन बातों पर ध्यान देना ज़रूरी है: जो काम किया जा रहा है उसमें आपकी ज़िम्मेदारी क्या होगी और किस हद तक आपको खुद वह काम करना पड़ेगा। ऐसी सेवाएँ देने के बारे में क्या, जो बाइबल के हिसाब से गलत नहीं हैं, जैसे किसी इलाके में हर कहीं जाकर चिट्ठियाँ बाँटना यहाँ तक कि उन जगहों पर भी जहाँ गलत काम किए जाते हैं? क्या ऐसे में मत्ती 5:45 का सिद्धांत सही फैसला करने में हमें मदद देगा? इस बात पर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि रोज़-ब-रोज़ हम जो काम करते हैं उसका हमारे विवेक पर क्या असर हो सकता है। (इब्रानियों 13:18) इसमें कोई शक नहीं कि नौकरी के बारे में समझ-बूझ के साथ फैसला करने की अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए ज़रूरी है कि हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों को पक्का करें और परमेश्वर ने हमें जो विवेक दिया है उसे अच्छी तालीम दें।
“उसी को स्मरण करके सब काम करना”
14. फैसले करते वक्त कौन-सी एहतियात बरतना हमेशा ज़रूरी है?
14 ज़िंदगी के और भी कई मामले हैं जिनमें हमें फैसला करना होता है, जैसे हम कितनी शिक्षा हासिल करेंगे और फलाँ-फलाँ इलाज करवाएँगे या नहीं? फैसला चाहे किसी भी बात के बारे में हो, हमारे लिए यह एहतियात बरतना ज़रूरी है कि इस मामले में बाइबल के कौन-से सिद्धांत लागू होते हैं और फिर अपनी समझ-बूझ का इस्तेमाल करके उन पर अमल करना चाहिए। प्राचीन इस्राएल के बुद्धिमान राजा सुलैमान ने भी यही बढ़ावा दिया था: “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण करके सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा।”—नीतिवचन 3:5, 6.
15. फैसले करने के बारे में हम पहली सदी के मसीहियों से क्या सबक सीखते हैं?
15 अकसर हमारे फैसलों का असर दूसरों पर भी होता है और यह बात याद रखना हमारे लिए ज़रूरी है। आइए एक मिसाल लें। पहली सदी के मसीही, मूसा की कानून-व्यवस्था के अधीन नहीं थे। इसलिए व्यवस्था में खाने की चीज़ों पर लगायी ज़्यादातर पाबंदियों से वे आज़ाद थे। वे चाहते तो ऐसा कोई भी भोजन खाने का चुनाव कर सकते थे जिसे व्यवस्था में अशुद्ध बताया गया था, बशर्ते वह ऐसा भोजन न हो जिस पर कोई भी किसी तरह से एतराज़ उठा सके। कई बार पशुओं को मंदिर की मूर्ति के आगे बलि चढ़ाया जाता था और फिर उनका माँस बाज़ार में बेचने के लिए लाया जाता था। गौर कीजिए कि इस तरह का माँस खाने के बारे में प्रेरित पौलुस ने क्या लिखा: “यदि भोजन मेरे भाई को ठोकर खिलाए, तो मैं कभी किसी रीति से मांस न खाऊंगा, न हो कि मैं अपने भाई के ठोकर का कारण बनूं।” (1 कुरिन्थियों 8:11-13) पौलुस शुरू के मसीहियों को बढ़ावा दे रहा था कि वे दूसरों के विवेक का खयाल रखें ताकि उन्हें ठोकर न खिलाएँ। उसी तरह हमारे फैसलों का दूसरों पर बुरा असर नहीं पड़ना चाहिए, ऐसा न हो कि हम ‘ठोकर का कारण बनें।’—1 कुरिन्थियों 10:29, 32.
परमेश्वर की बुद्धि ढूँढ़िए
16. फैसले करने में प्रार्थना हमें कैसे मदद देती है?
16 सही फैसले करने के लिए सबसे बेहतरीन मदद है, प्रार्थना। शिष्य याकूब कहता है: “यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो, तो परमेश्वर से मांगे, जो बिना उलाहना दिए सब को उदारता से देता है; और उस को दी जाएगी।” (याकूब 1:5) हम पूरे भरोसे के साथ, प्रार्थना में यहोवा से बुद्धि माँग सकते हैं जो सही फैसले करने के लिए बहुत ज़रूरी है। जब हम सच्चे परमेश्वर को अपनी चिंताएँ खुलकर बताते हैं और उससे सही राह दिखाने की बिनती करते हैं, तो पवित्र आत्मा हमें बाइबल की कुछ आयतों की ज़्यादा अच्छी तरह समझ देगी और जो आयतें हमारे ध्यान में न आयी हों उन्हें याद करने में मदद करेगी।
17. फैसला करने में दूसरे कैसे हमारी मदद कर सकते हैं?
17 क्या दूसरे लोग हमें फैसला करने में मदद दे सकते हैं? जी हाँ, यहोवा ने मसीही कलीसिया में प्रौढ़ भाइयों का इंतज़ाम किया है। (इफिसियों 4:11, 12) उनके साथ आप सलाह-मशविरा कर सकते हैं, खासकर तब जब आप कोई बड़ा फैसला करने जा रहे हों। ऐसे भाइयों को आध्यात्मिक मामलों की गहरी समझ होती है और ज़िंदगी का अच्छा तजुरबा भी होता है। वे बाइबल से ऐसे कई सिद्धांत बता सकते हैं जो हमें सही फैसले लेने में मदद दें। इस तरह ये भाई हमें “उन बातों को जो सर्वोत्तम हैं अपना[ने]” में मदद देते हैं। (फिलिप्पियों 1:9, 10, NHT) मगर एक बात से हम आपको खबरदार करना चाहते हैं: हमें इस बात का ध्यान रखना है कि दूसरे हमारे लिए फैसले न करें। यह ज़िम्मेदारी हमारी है और इसका बोझ भी हमीं को उठाना है।
क्या अंजाम हमेशा अच्छा ही होता है?
18. सही फैसले के अंजाम के बारे में क्या कहा जा सकता है?
18 जो फैसले हर तरह से बाइबल सिद्धांतों के मुताबिक हैं और पूरी एहतियात बरतने के बाद लिए गए हैं, क्या उनका अंजाम हमेशा अच्छा ही निकलता है? जी हाँ, आगे चलकर अंजाम अच्छा ही होता है। मगर कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि सही फैसला करने के फौरन बाद हमें मुसीबतों से गुज़रना पड़े। शद्रक, मेशक और अबेदनगो को पता था कि अगर वे उस बड़ी मूर्ति की उपासना न करने का फैसला करेंगे, तो इसका अंजाम होगा उनकी मौत। (दानिय्येल 3:16-19) प्रेरितों के साथ भी यही हुआ। जब उन्होंने यहूदी महासभा के सामने कहा कि मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना ही उनका फर्ज़ है, तो उन्हें कोड़े लगाए गए और फिर छोड़ दिया गया। (प्रेरितों 5:27-29, 40) इसके अलावा, “समय और संयोग” की वजह से भी किसी फैसले का अंजाम बुरा हो सकता है। (सभोपदेशक 9:11) अगर सही फैसला करने के बावजूद हम पर कोई मुसीबत आती है तो हम यहोवा पर भरोसा रख सकते हैं कि वह हमें धीरज धरने में मदद देगा और आगे चलकर हम उसकी आशीष पाएँगे।—2 कुरिन्थियों 4:7.
19. हम हिम्मत के साथ फैसले करने की ज़िम्मेदारी का बोझ खुद कैसे उठा सकते हैं?
19 तो आइए ज़िंदगी का कोई भी फैसला करते वक्त, हम हमेशा बाइबल के सिद्धांतों को ढूँढ़े और समझ-बूझ के साथ उन पर अमल करें। हम यहोवा के कितने एहसानमंद हो सकते हैं कि उसने अपनी पवित्र आत्मा और कलीसिया के प्रौढ़ मसीहियों के ज़रिए हमारे लिए मदद का इंतज़ाम किया है। ऐसी मदद और इन इंतज़ामों के होते हुए, आइए हिम्मत रखें और सही फैसले करने की ज़िम्मेदारी का बोझ हम खुद उठाएँ।
आपने क्या सीखा?
• अच्छे फैसले करने के लिए एक बेहद ज़रूरी माँग क्या है?
• आध्यात्मिक प्रौढ़ता की तरफ बढ़ने का असर हमारे दोस्त चुनने पर कैसे होता है?
• काम चुनने के बारे में फैसला करते वक्त, कौन-कौन-से पहलुओं पर ध्यान देना ज़रूरी है?
• फैसले करने में हमारे लिए कौन-सी मदद मौजूद है?
[पेज 22 पर तसवीर]
आदम और हव्वा के आज्ञा न मानने से हम एक ज़रूरी सबक सीखते हैं
[पेज 24 पर तसवीर]
कोई भी बड़ा फैसला करने से पहले, परमेश्वर के सिद्धांतों का पता लगाने के लिए खोजबीन कीजिए