जीवन कहानी
यहोवा ने ‘मुझे सही राह दिखायी’
एक बार एक जवान भाई ने मुझसे पूछा, “आपकी मनपसंद आयत कौन-सी है?” मैंने झट से कहा, “नीतिवचन 3:5, 6 जहाँ लिखा है, ‘तू अपनी समझ का सहारा न लेना, बल्कि पूरे दिल से यहोवा पर भरोसा रखना, उसी को ध्यान में रखकर सब काम करना, तब वह तुझे सही राह दिखाएगा।’” मैंने खुद अपनी ज़िंदगी में देखा है कि यहोवा ने मुझे सही राह दिखायी। आइए बताता हूँ कैसे।
मेरे माता-पिता ने मुझे सही राह दिखायी
मेरे माता-पिता को 1920 के दशक में सच्चाई मिली थी। उस वक्त वे अविवाहित थे। मेरा जन्म 1939 में इंग्लैंड में हुआ था। बचपन से ही माता-पिता मुझे सभाओं में ले जाते थे। परमेश्वर की सेवा स्कूल में मुझे बहुत मज़ा आता था। मुझे आज भी याद है, जब मैंने पहली बार अपना भाग पेश किया था। मैं सिर्फ छ: साल का था। भाइयों ने मुझे एक बक्से पर खड़ा किया ताकि मैं सबको देख सकूँ। उस दिन किसी तरह डरते-काँपते मैंने अपना भाग पूरा किया।
माता-पिता के साथ सड़क गवाही देते वक्त
प्रचार के लिए पिताजी मुझे एक कार्ड पर लिखकर देते थे कि मुझे लोगों को क्या बताना है। आठ साल की उम्र में मैंने पहली बार अकेले एक आदमी को गवाही दी। उसने कार्ड पढ़ा और मुझसे “परमेश्वर सच्चा ठहरे” किताब ली। मुझे इतनी खुशी हुई कि मैं दौड़कर पिताजी को बताने गया। सभाओं में जाकर और प्रचार करके मुझे बहुत खुशी होती थी। इसी से मेरे अंदर पूरे समय की सेवा करने की इच्छा जागी।
फिर पिताजी नियमित तौर पर प्रहरीदुर्ग की पत्रिकाएँ मँगवाने लगे। इन पत्रिकाओं का मैं बहुत बेसब्री से इंतज़ार करता था। इन्हें पढ़कर बाइबल सच्चाइयों के लिए मेरी कदर बढ़ने लगी। यहोवा पर मेरा भरोसा और मज़बूत हो गया। और मैंने उसे अपना जीवन समर्पित किया।
सन् 1950 में हमारा पूरा परिवार ईश्वरशासित प्रगति सम्मेलन के लिए न्यू यॉर्क गया। गुरुवार, 3 अगस्त को “मिशनरियों का दिन” था। भाई कैरी बार्बर ने बपतिस्मे का भाषण दिया। बाद में वे शासी निकाय के सदस्य बने। उस सम्मेलन में मैं भी बपतिस्मा लेनेवाला था। जब भाई ने बपतिस्मा लेनेवालों से दो सवाल किए, तो मैंने ज़ोर से “हाँ” कहा। मैं सिर्फ 11 साल का था, लेकिन मुझे पता था कि मैं बहुत बड़ा कदम उठा रहा हूँ। पानी में उतरने से मुझे बहुत डर लग रहा था, क्योंकि मुझे तैरना नहीं आता था। चाचाजी ने कहा, “डरो मत मैं तुम्हारे साथ हूँ।” सबकुछ इतना जल्दी हो गया कि मुझे पता ही नहीं चला। एक भाई ने मुझे पकड़ा और दूसरे ने मुझे डुबकी दे दी। वह दिन मेरे लिए बहुत खास था। यहोवा तब से मुझे सही राह दिखा रहा है।
यहोवा पर भरोसा किया
स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं पायनियर सेवा करना चाहता था। लेकिन मेरे टीचरों ने कहा कि मुझे कॉलेज जाना चाहिए। मैं उनकी बातों में आ गया और कॉलेज की पढ़ाई करने लगा। कुछ समय बाद मैं समझ गया कि मैं दोनों चीजें एक-साथ नहीं कर सकता। अगर मैं कॉलेज की पढ़ाई करता रहा, तो मैं यहोवा से दूर चला जाऊँगा। इसलिए मैंने यहोवा से प्रार्थना की और टीचरों को एक खत लिखकर बताया कि मैं अपनी पढ़ाई छोड़ रहा हूँ। और मैंने पहले साल में ही कॉलेज छोड़ दिया। मैंने यहोवा पर भरोसा रखा और कॉलेज छोड़ने के तुरंत बाद पायनियर सेवा शुरू कर दी।
जुलाई 1957 में लंदन बेथेल ने मुझे वेलिंगबरो शहर में सेवा करने के लिए कहा। उन्होंने मुझे भाई बर्ट वेज़ी के साथ पायनियर सेवा करने के लिए कहा। वहीं से मेरे पूरे समय की सेवा शुरू हुई। भाई बर्ट बहुत जोश से प्रचार करते थे। उनसे मैंने सीखा कि प्रचार करने के लिए मुझे समय का सही इस्तेमाल करना चाहिए। उनसे मैंने और भी बहुत-सी बातें सीखीं। हम जिस मंडली में थे, वहाँ मेरे और भाई के अलावा छ: बुज़ुर्ग बहनें थीं। मैं हर सभा की तैयारी करता था, उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था। इस तरह यहोवा पर मेरा भरोसा बढ़ा और मैंने खुलकर अपना विश्वास ज़ाहिर करना भी सीखा।
सेना में भरती होने से इनकार करने की वजह से मुझे कुछ समय के लिए जेल जाना पड़ा। वहाँ से छूटने के बाद मेरी मुलाकात बारबरा से हुई। वह एक खास पायनियर थी। हम दोनों ने 1959 में शादी कर ली। हमने सोचा था कि हमें जहाँ भी सेवा करने के लिए भेजा जाएगा, हम खुशी-खुशी जाएँगे। सबसे पहले हमें इंग्लैंड के उत्तर-पश्चिम में लैंकाशायर नाम की जगह भेजा गया। उसके बाद जनवरी 1961 में मुझे एक महीने के लिए राज-सेवा स्कूल के लिए लंदन बेथेल बुलाया गया। उस स्कूल के बाद मुझसे कहा गया कि मुझे अब से सर्किट काम करना है। यह सुनकर मैं हैरान रह गया! दो हफ्तों के लिए मैं बर्मिंगहैम शहर गया। वहाँ एक तजुरबेकार सर्किट निगरान ने मुझे सिखाया कि मुझे यह काम कैसे करना है। उस वक्त बारबरा भी मेरे साथ थी। उसके बाद हमने लैंकाशायर और चेशायर में सर्किट काम किया।
यहोवा पर भरोसा करके मुझे कभी अफसोस नहीं हुआ
अगस्त 1962 में हम छुट्टियाँ मना रहे थे, तभी हमें शाखा दफ्तर से एक खत मिला। उस खत में गिलियड स्कूल की अर्ज़ी थी। हमने प्रार्थना करके तुरंत वह अर्ज़ी भरी और उसे भेज दिया। पाँच महीने बाद हमें गिलियड की 38वीं क्लास के लिए ब्रुकलिन, न्यू यॉर्क बुलाया गया। वहाँ हमने 10 महीनों तक गिलियड की पढ़ाई की।
हमने गिलियड में बहुत कुछ सीखा, बाइबल के बारे में, संगठन के बारे में और यह भी कि पूरी दुनिया में यहोवा के लोग किन हालात में उसकी सेवा कर रहे हैं। हमने क्लास के दूसरे विद्यार्थियों से भी कई बातें सीखीं, क्योंकि हमारी उम्र बहुत कम थी, हम सिर्फ 20-25 साल के थे। मुझे हर दिन भाई फ्रैड रस्क के साथ कुछ वक्त बेथेल का काम करने का भी मौका मिला। वे गिलियड के शिक्षक भी थे। उनसे मैंने बहुत-सी बातें सीखीं, खासकर यह कि जब भी हमें दूसरों को सलाह देनी होती है, तो वह बाइबल से होनी चाहिए। भाई नेथन नॉर, फ्रेडरिक फ्रांज़ और कार्ल क्लाइन जैसे अनुभवी भाइयों ने भी गिलियड में भाषण दिए। मुझे खास तौर पर भाई ए. एच. मैकमिलन का भाषण याद है। उसमें उन्होंने बताया था कि 1914 से 1919 के बीच जब यहोवा के लोगों पर परीक्षाएँ आयीं, तो कैसे यहोवा ने उनकी मदद की, उन्हें सहारा दिया और उन्हें सही राह दिखायी। उस नम्र भाई से मैंने बहुत कुछ सीखा।
सेवा का नया मौका मिला
गिलियड कोर्स के आखिर में भाई नॉर ने बताया कि हमें अफ्रीका में बुरूंडी नाम की जगह जाना है। हमें इस जगह के बारे में कुछ नहीं पता था। हम भागकर बेथेल की लाइब्रेरी में गए और हमने सालाना किताब में यह ढूँढ़ने की कोशिश की कि वहाँ कितने प्रचारक हैं। हम बहुत हैरान थे कि उसमें बुरूंडी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इसका मतलब यह हुआ कि उस इलाके में आज तक कभी प्रचार नहीं हुआ है। हमें खुशी तो थी पर उसके साथ-साथ घबराहट भी हो रही थी। पर जब हमने प्रार्थना की, तो हम थोड़ा शांत हुए।
बुरूंडी में सबकुछ बहुत अलग था, वहाँ का मौसम, वहाँ की संस्कृति, भाषा, सबकुछ। अब हमें फ्रेंच सीखनी थी। ऊपर से हमारे पास रहने का भी कोई ठिकाना नहीं था। दो दिन बाद भाई हैरी आरनेट हमसे मिलने आए। वे गिलियड क्लास में हमारे साथ थे। वे सेवा करने के लिए वापस ज़ाम्बिया जा रहे थे। उन्होंने घर ढूँढ़ने में हमारी मदद की। वह हमारा पहला मिशनरी घर था। बुरूंडी के अधिकारी यहोवा के साक्षियों के बारे में कुछ नहीं जानते थे, इसलिए वे हमारा विरोध करने लगे। और जैसे ही हमें प्रचार काम में मज़ा आने लगा, उन्होंने कहा कि हमें वहाँ से जाना पड़ेगा। उनका कहना था कि अगर हमारे पास काम करने का परमिट नहीं है, तो हम वहाँ नहीं रह सकते। हमें बुरूंडी छोड़कर जाने का बहुत दुख हुआ। इसके बाद हम एक नए देश युगांडा गए।
जब हम युगांडा जा रहे थे, तो हमारे मन में बहुत-सी बातें चल रही थीं। हमारे पास वहाँ रहने का वीज़ा नहीं था। लेकिन हमने यहोवा पर भरोसा रखा। वहाँ पहुँचने पर कनाडा के एक भाई ने हमारी मदद की। वह वहाँ पर सेवा करने आया था। उसने आप्रवासी या इमीग्रेशन अफसर को हमारी पूरी कहानी बतायी। उस अफसर ने हमें वीज़ा लेने के लिए कुछ महीनों की मोहलत दी। यह सब देखकर हमें यकीन हो गया कि यहोवा हमारी मदद कर रहा है।
युगांडा के हालात बुरूंडी से अलग थे। यहाँ पर प्रचार काम पहले से किया जा रहा था, हालाँकि पूरे देश में सिर्फ 28 प्रचारक ही थे। युगांडा में ज़्यादातर लोग अँग्रेज़ी बोलते हैं। लेकिन हमें एहसास हुआ कि लोग तभी सच्चाई सीखेंगे जब हम उनकी भाषा बोलेंगे। कम्पाला में जहाँ हम प्रचार कर रहे थे, वहाँ ज़्यादातर लोग लुगांडा भाषा बोलते थे। इसलिए हमने यह भाषा सीखी। लुगांडा भाषा अच्छे से सीखने के लिए हमें सालों लग गए, लेकिन इसका हमारे प्रचार काम पर फर्क पड़ा। हम समझ पाए कि तरक्की करने में हम अपने बाइबल विद्यार्थियों की और अच्छी तरह कैसे मदद कर सकते हैं। और वे भी दिल खोलकर बता पाए कि सच्चाई सीखकर उन्हें कैसा लग रहा है।
हम अलग-अलग जगह गए
युगांडा में प्रचार करने का इलाका ढूँढ़ते वक्त
हमें नेकदिल लोगों को सच्चाई सिखाने में तो खुशी मिल ही रही थी, लेकिन जब हमें सर्किट काम सौंपा गया, तो हमारी खुशी दुगनी हो गयी। हमें पूरे देश का दौरा करना था। केन्या शाखा दफ्तर ने हमें एक और ज़िम्मेदारी दी। हमें ऐसी जगह ढूँढ़नी थी जहाँ खास पायनियरों को प्रचार करने के लिए भेजा जा सकता था। उन इलाकों में लोग पहली बार यहोवा के साक्षियों से मिल रहे थे। फिर भी उन्होंने हमारा स्वागत किया, हमारा खयाल रखा, हमारे लिए खाना तक बनाया।
फिर मुझसे कहा गया कि मैं दो प्रचारकों की मदद करूँ जो बहुत दूर सेशेल्स में रहते थे। सेशेल्स हिंद महासागर में द्वीपों का समूह है। वहाँ पहुँचने के लिए मुझे कम्पाला से ट्रेन पकड़नी होती थी। दो दिन के सफर के बाद मैं मोम्बासा पहुँचता था जो केन्या का बंदरगाह है। वहाँ से मैं एक जहाज़ पकड़कर सेशेल्स पहुँचता था। सन् 1965 से 1972 तक बारबरा भी मेरे साथ सेशेल्स आने लगी। वहाँ बहुत बढ़ोतरी होने लगी। दो प्रचारकों से एक समूह बना और उसके बाद एक फलती-फूलती मंडली। भाइयों का हौसला बढ़ाने के लिए मैंने और जगहों का भी सफर किया जैसे एरिट्रिया, इथियोपिया और सूडान।
फिर युगांडा में सैन्य शासन शुरू हुआ, उसके बाद से हालात बिगड़ने लगे। इस मुश्किल दौर में हमने सीखा कि बाइबल की सलाह मानने से हमारा भला होता है। खासकर यह सलाह, “जो सम्राट का है वह सम्राट को चुकाओ।” (मर. 12:17) जैसे, एक बार युगांडा में रहनेवाले सभी विदेशियों से कहा गया कि वे अपने घर के नज़दीकी थाने में जाकर अपने नाम लिखवाए। हमने अधिकारियों की बात मानकर तुरंत अपने नाम लिखवाए। कुछ दिनों बाद मैं और मेरे साथ एक और मिशनरी भाई कम्पाला से जा रहे थे। जब हमने देखा कि कुछ खुफिया पुलिसवाले हमारी तरफ आ रहे हैं, तो हम घबरा गए। उन्होंने हम पर झूठा इलज़ाम लगाया कि हम जासूस हैं और हमें बड़े थाने ले गए। हमने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की कि हम जासूस नहीं बल्कि मिशनरी हैं और शांति से अपना काम करते हैं। हमने उन्हें यह भी बताया कि हमने अपने घर के पास के थाने में नाम लिखवा दिए हैं, लेकिन उन्होंने हमारी एक नहीं सुनी। हमें गिरफ्तार करके मिशनरी घर के पास के थाने ले जाया गया। वहाँ हमें एक अफसर मिला, जिसने हमें नाम लिखवाते हुए देखा था। उसने हमें तुरंत पहचान लिया और कहा कि इन्हें छोड़ दो। हमारी जान में जान आ गयी!
कोटे डी आइवरी के अबीजान शाखा दफ्तर में हमारी राज-सेवा की कॉपियाँ बनाते वक्त
उन दिनों कई बार सैनिक हमारा रास्ता रोककर पूछताछ करते थे। हर बार जब हमें रोका जाता था, तो हमें बहुत घबराहट होती थी, खासकर तब जब सैनिक नशे में धुत्त होते थे। लेकिन जब भी हम यहोवा से प्रार्थना करते थे, वह हमारी घबराहट दूर करता था और हमारी हिफाज़त भी करता था। कई बार सैनिकों ने हमें बिना तंग किए जाने दिया। लेकिन अफसोस की बात है कि 1973 में युगांडा में रहनेवाले सभी विदेशी मिशनरियों को वहाँ से जाने के लिए कहा गया।
इसके बाद हमें पश्चिम अफ्रीका के कोटे डी आइवरी में भेजा गया। यहाँ सबकुछ बहुत नया था। हमें यहाँ के रहन-सहन में ढलना था, दोबारा फ्रेंच भाषा में लोगों से बातचीत करनी थी और अलग-अलग मिशनरियों के साथ रहना था। लेकिन मैंने महसूस किया कि यहोवा ने हमें यहाँ भेजा है, क्योंकि बहुत-से नेकदिल लोग सच्चाई अपना रहे थे। मैंने और बारबरा ने ज़िंदगी में कई बार देखा कि जब हम यहोवा पर भरोसा करते हैं, तो वह हमें सही राह दिखाता है।
ज़िंदगी में आए उतार-चढ़ाव
कुछ समय बाद हमें पता चला कि बारबरा को कैंसर है। उसके इलाज के लिए हम कई बार यूरोप आते थे। सन् 1983 में हम समझ गए कि अब से हम अफ्रीका में सेवा नहीं कर पाएँगे। यह सोचकर हम दोनों बहुत दुखी हुए।
मैं और ऐन ब्रिटेन बेथेल की नयी जगह के सामने खड़े हैं
हम लंदन बेथेल में सेवा करने लगे। यहाँ बारबरा का इलाज चलता रहा, लेकिन उसकी हालत बिगड़ने लगी। कुछ समय बाद उसकी मौत हो गयी। बेथेल के भाई-बहनों ने मुझे बहुत सँभाला खासकर एक पति-पत्नी ने। उन्होंने मुझे यहोवा पर भरोसा करते रहने का बढ़ावा दिया और इस मुश्किल दौर से गुज़रने में मेरी मदद की। कुछ समय बाद मेरी मुलाकात ऐन से हुई। वह कुछ दिन काम करने के लिए बेथेल आती थी। वह पहले खास पायनियर भी रह चुकी है। मैंने देखा कि उसे यहोवा से बहुत प्यार है। हम दोनों ने 1989 में शादी कर ली। तब से आज तक हम लंदन बेथेल में ही सेवा कर रहे हैं।
सन् 1995 से 2018 तक मुझे विश्व मुख्यालय के प्रतिनिधि के तौर पर सेवा करने का मौका मिला। इन प्रतिनिधियों को पहले ज़ोन निगरान कहा जाता था। इस दौरान हम करीब 60 देशों के भाई-बहनों से मिले। सभी देशों में हमने देखा कि यहोवा हर हाल में अपने लोगों को सँभालता है।
सन् 2017 में मुझे प्रतिनिधि बनकर अफ्रीका जाने का मौका मिला। ऐन को पहली बार बुरूंडी दिखाने में मुझे बहुत खुशी हुई। वहाँ की बढ़ोतरी देखकर हमें बहुत अच्छा लगा। सन् 1964 में मैं जिस गली में प्रचार करता था, आज उसी गली में एक खूबसूरत बेथेल है और पूरे देश में 15,500 से ज़्यादा प्रचारक हैं।
मुझे 2018 में जिन-जिन देशों में जाना था, उसकी एक सूची मिली। उस सूची में कोटे डी आइवरी का नाम देखकर मैं खुशी से उछल पड़ा। जब हम कोटे डी आइवरी की राजधानी अबीजान पहुँचे, तो ऐसा लग रहा था जैसे मैं वापस अपने घर आया हूँ। मैं बेथेल की टेलीफोन सूची देख रहा था। तभी मुझे एक जाना-पहचाना नाम दिखा, सोसू। वह मेरे बगलवाले कमरे में ही रह रहा था। मुझे याद आया कि जब मैं अबीजान में था, तो इसी नाम का एक भाई मंडली का नगर निगरान था। मुझे लगा शायद वही भाई है। पर यह वह भाई नहीं था, उसका बेटा था।
यहोवा सच में अपना हर वादा पूरा करता है। मुश्किल-से-मुश्किल हालात में जब हम यहोवा पर भरोसा करते हैं, तो वह हमें सही राह दिखाता है। मैं यहोवा की राह पर चलते रहना चाहता हूँ और मुझे यकीन है कि नयी दुनिया में वह मुझे एक खूबसूरत ज़िंदगी देगा।—नीति. 4:18.