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  • क्या आपने संतोष करने का “राज़ सीख लिया है”?

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  • क्या आपने संतोष करने का “राज़ सीख लिया है”?
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है (अध्ययन)—2025
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  • यहोवा की मरज़ी पूरी करने पर ध्यान लगाए रखिए और नम्र रहिए
  • अपनी आशा पर मनन कीजिए
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  • नम्र बनिए और यह मानिए कि कुछ बातें आप नहीं जानते
    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है (अध्ययन)—2025
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है (अध्ययन)—2025
w25 जुलाई पेज 20-25

अध्ययन लेख 31

गीत 111 हमारी खुशी के कई कारण

क्या आपने संतोष करने का “राज़ सीख लिया है”?

“मैं चाहे जैसे भी हाल में रहूँ उसी में संतोष करना मैंने सीख लिया है।”—फिलि. 4:11.

क्या सीखेंगे?

अगर हम एहसानमंद बनें, यहोवा की मरज़ी पूरी करने पर ध्यान लगाए रखें और नम्र रहें, साथ ही भविष्य की अपनी आशा पर मनन करते रहें, तो हम खुश और संतुष्ट रहना सीखेंगे।

1. संतुष्ट रहने का क्या मतलब है और क्या नहीं?

आपके पास जो है, क्या आप उसमें संतुष्ट हैं? एक संतुष्ट व्यक्‍ति अपनी आशीषों पर ध्यान लगाए रखता है, इसलिए वह खुश रहता है और चैन से जीता है। उसके पास जो चीज़ें नहीं हैं, उस बारे में सोच-सोचकर वह दुखी या निराश नहीं होता बल्कि संतुष्ट रहता है। लेकिन संतुष्ट रहने का यह मतलब नहीं कि एक व्यक्‍ति मेहनत ही ना करें। इसके बजाय, वह व्यक्‍ति आगे बढ़ता रहेगा और सोचेगा कि वह कैसे यहोवा की और ज़्यादा सेवा कर सकता है। (रोमि. 12:1; 1 तीमु. 3:1) अगर उसे वह ज़िम्मेदारी नहीं मिलती जिसकी वह उम्मीद लगाए हुए है, तब भी वह अपनी खुशी कम नहीं होने देगा।

2. अगर हम संतुष्ट ना रहें, तो इसके क्या बुरे अंजाम हो सकते हैं?

2 अगर एक व्यक्‍ति संतुष्ट ना रहे, तो इसके बहुत बुरे अंजाम हो सकते हैं। वह ऐशो-आराम की चीज़ें बटोरने के चक्कर में शायद दिन-रात काम में ही डूब जाए। या यह भी हो सकता है कि वह चोरी कर बैठे। दुख की बात है कि कुछ मसीहियों ने ऐसा ही किया है। उन्होंने शायद मन-ही-मन सोचा, ‘इसे लेना तो मेरा हक बनता है,’ ‘मैंने बहुत इंतज़ार कर लिया’ या ‘अभी यह पैसा रख लेता हूँ, बाद में लौटा दूँगा।’ लेकिन यहोवा की नज़र में किसी भी तरह की चोरी पाप है और इससे उसके नाम की बदनामी होती है। (नीति. 30:9) यही नहीं, कुछ मसीहियों के साथ ऐसा भी हुआ है कि जब उन्हें वह ज़िम्मेदारी नहीं मिली जो वे चाहते थे, तो वे इतने निराश हो गए कि उन्होंने यहोवा की सेवा करना ही छोड़ दिया। (गला. 6:9) पर सवाल है, यहोवा का एक समर्पित सेवक इस हद तक कैसे जा सकता है? अगर एक मसीही उसमें संतुष्ट ना रहे जो उसके पास है, तो वह ऐसा गलत कदम उठा सकता है।

3. फिलिप्पियों 4:11, 12 से हम क्या सीखते हैं?

3 हम सब संतुष्ट रह सकते हैं। प्रेषित पौलुस ने लिखा, “मैं चाहे जैसे भी हाल में रहूँ उसी में संतोष करना मैंने सीख लिया है।” (फिलिप्पियों 4:11, 12 पढ़िए।) पौलुस ने यह बात उस वक्‍त लिखी थी जब वह कैद में था। ऐसे हालात में भी उसकी खुशी कम नहीं हुई। वह इसलिए कि उसने संतोष करने का “राज़ सीख लिया” था। अगर हमें संतोष करना मुश्‍किल लग रहा है, तो हम पौलुस की मिसाल याद रख सकते हैं। उसने जैसी ज़िंदगी जी और जो बात कही, उससे पता चलता है कि हम भी मुश्‍किल-से-मुश्‍किल हालात में संतुष्ट रह सकते हैं। पर ऐसा करना आसान नहीं है, हमें यह राज़ सीखना होगा। कैसे? आइए तीन बातों पर ध्यान दें।

एहसानमंदी की भावना बढ़ाइए

4. एहसानमंद रहने से हम संतोष करना कैसे सीख सकते हैं? (1 थिस्सलुनीकियों 5:18)

4 जो लोग एहसानमंद रहते हैं, वे ज़्यादा खुश और संतुष्ट रहते हैं। (1 थिस्सलुनीकियों 5:18 पढ़िए।) जैसे, जब हम इस बात के लिए एहसानमंद रहेंगे कि हमारे पास ज़रूरत की सारी चीज़ें हैं, तो हम यह नहीं सोचेंगे कि हमारे पास क्या नहीं है। अगर हम इस बात के लिए शुक्रगुज़ार हैं कि हमें यहोवा की सेवा करने का बढ़िया मौका मिला है, तो हम दूसरी ज़िम्मेदारियों के पीछे नहीं भागेंगे, बल्कि जो ज़िम्मेदारी हमें दी गयी है उसे पूरा करने में कड़ी मेहनत करेंगे। बाइबल में हमें बढ़ावा दिया गया है कि हम प्रार्थना में यहोवा का धन्यवाद करें, तब हम एहसानमंद रहेंगे और हमें “परमेश्‍वर की वह शांति” मिलेंगी “जो समझ से परे है।”—फिलि. 4:6, 7.

5. इसराएलियों के पास एहसान मानने की क्या वजह थीं? (तसवीर भी देखें।)

5 ध्यान दीजिए कि इसराएलियों के साथ क्या हुआ था। कई बार उन्होंने शिकायत की कि उनके पास खाने-पीने की वे चीज़ें नहीं हैं, जो उन्हें मिस्र में मिला करती थीं। (गिन. 11:4-6) यह सच है कि वीराने में ज़िंदगी आसान नहीं थी, पर फिर भी इसराएली खुश और संतुष्ट रह सकते थे। वह कैसे? वे उन बातों के बारे में सोच सकते थे जो यहोवा ने उनके लिए की थीं और उसका एहसान मान सकते थे। जैसे, मिस्र में वे गुलाम थे और उन्हें बुरी तरह सताया जाता था, पर यहोवा ने 10 विपत्तियाँ लाकर उन्हें आज़ाद किया। और जब वे वहाँ से निकल रहे थे, तो उन्होंने “एक तरह से मिस्रियों को लूट लिया।” वे उनकी सोने-चाँदी की चीज़ें और कपड़े अपने साथ ले आए। (निर्ग. 12:35, 36) और जब मिस्र की सेना उनका पीछा करते-करते लाल सागर पर आयी, तो यहोवा ने चमत्कार करके लाल सागर को दो हिस्सों में बाँट दिया। इसके अलावा, वीराने में यहोवा उन्हें हर दिन खाने के लिए मन्‍ना देता रहा। तो फिर इसराएली क्यों शिकायत करने लगे? बात यह नहीं थी कि उनके पास खाने को नहीं था। असल में वे संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि उनके दिल में उन चीज़ों के लिए कोई कदर नहीं थी जो यहोवा ने उनके लिए की थीं।

कुछ इसराएली मूसा से शिकायत कह रहे हैं कि वे मन्‍ना से संतुष्ट नहीं। पास ही में दूसरे इसराएली मन्‍ना इकट्ठा कर रहे हैं और उन इसराएलियों को देख रहे हैं जो मूसा से बात कर रहे हैं।

इसराएली क्यों संतुष्ट नहीं थे? (पैराग्राफ 5)


6. हम एहसानमंदी की भावना बढ़ाने के लिए क्या कर सकते हैं?

6 आप एहसानमंदी की भावना कैसे बढ़ा सकते हैं? एक, हर दिन समय निकालिए और सोचिए कि आपके पास ऐसी कौन-सी चीज़ें हैं जिनके लिए आप शुक्रगुज़ार हैं। हो सके तो दो या तीन चीज़ों के बारे में लिखकर रखिए। (विला. 3:22, 23) दो, दिखाइए कि आप एहसानमंद हैं। दूसरे आपके लिए जो कुछ करते हैं, उसके लिए उनका धन्यवाद कीजिए। सबसे बढ़कर, हर दिन यहोवा का शुक्रिया कीजिए। (भज. 75:1) तीन, उन लोगों से दोस्ती कीजिए जो एहसानमंद रहते हैं। इससे आप भी एहसानमंद बनेंगे। लेकिन अगर आप उन लोगों से दोस्ती करें जो कुड़कुड़ाते रहते हैं, तो आप भी उनके जैसे बन जाएँगे और संतुष्ट नहीं रहेंगे। (व्यव. 1:26-28; 2 तीमु. 3:1, 2, 5) जब हम यह सोचेंगे कि हम किन बातों के लिए एहसानमंद हो सकते हैं, तो हम इस बात को लेकर परेशान नहीं रहेंगे कि हमारे पास क्या नहीं है, बल्कि हम संतुष्ट रहेंगे।

7. आची ने एहसानमंदी की भावना कैसे बढ़ायी और उसका क्या नतीजा हुआ?

7 ज़रा आची के उदाहरण पर ध्यान दीजिए, जो इंडोनेशिया में रहती है। वह कहती है, “जब कोविड-19 महामारी चल रही थी तो मैं अपनी तुलना दूसरे भाई-बहनों से करने लगी। मैं सोचने लगी कि उनके हालात मुझसे कितने अच्छे हैं और इस वजह से मैं निराश हो गयी।” (गला. 6:4) तब आची ने अपनी सोच कैसे बदली? वह बताती है, “मैं उन आशीषों के बारे में सोचने लगी जो यहोवा हर दिन मुझे दे रहा था। यही नहीं, यहोवा के संगठन का भाग होने की वजह से मुझे जो आशीषें मिली हैं, मैं उस बारे में भी सोचने लगी। और फिर मैंने उनके लिए यहोवा का धन्यवाद किया। इसके बाद, मेरे पास जो कुछ था, उससे मैं खुश रहने लगी।” अगर आप भी अपने हालात को लेकर बहुत परेशान हैं तो अपने अंदर दोबारा एहसानमंदी की भावना बढ़ाने के लिए वही कीजिए जो आची ने किया।

यहोवा की मरज़ी पूरी करने पर ध्यान लगाए रखिए और नम्र रहिए

8. एक मौके पर बारूक के साथ क्या हुआ?

8 एक मौके पर यिर्मयाह का सचिव बारूक उन चीज़ों को लेकर परेशान हो गया जो उसके पास नहीं थीं। उसे एक बहुत ही मुश्‍किल काम मिला था। यहोवा ने यिर्मयाह से कहा था कि वह उन इसराएलियों को कड़ा संदेश सुनाए जो एहसान-फरामोश बन गए थे। इस काम में बारूक को यिर्मयाह का साथ देना था। पर यहोवा से मिले इस काम पर ध्यान देने के बजाय बारूक अपने बारे में हद-से-ज़्यादा सोचने लगा। तब यहोवा ने यिर्मयाह के ज़रिए उससे कहा, “तू बड़ी-बड़ी चीज़ों की ख्वाहिश कर रहा है। ऐसी ख्वाहिश करना बंद कर।” (यिर्म. 45:3-5) दूसरे शब्दों में कहें, तो यहोवा उससे कह रहा था, “तेरे पास जो है, उसमें खुश रह।” बारूक ने यहोवा की बात मानी और अपनी सोच सुधारी। इस वजह से यहोवा की आशीष उस पर बनी रही।

9. अगर हम नम्र रहें, तो ज़िम्मेदारियों के बारे में हमारी क्या सोच होगी? (1 कुरिंथियों 4:6, 7) (तसवीरें भी देखें।)

9 हो सकता है, एक मसीही को लगे कि उसे फलाँ ज़िम्मेदारी मिलनी चाहिए। उसे शायद ऐसा इसलिए लगे क्योंकि वह बहुत हुनरमंद है, मेहनती है या उसे बहुत तजुरबा है। लेकिन फिर वह ज़िम्मेदारी किसी और को मिल जाती है। यह देखकर वह मसीही शायद बहुत निराश हो जाए। ऐसे में वह क्या कर सकता है? वह प्रेषित पौलुस की कही बात के बारे में सोच सकता है जो 1 कुरिंथियों 4:6, 7 में लिखी है। (पढ़िए।) इसमें बताया है कि हमें जो भी ज़िम्मेदारी मिली है और हमारे पास जो भी हुनर है, वह यहोवा की तरफ से है। हम इसके लायक नहीं थे, पर उसने हम पर महा-कृपा की है और हमें ये तोहफे दिए हैं।—रोमि. 12:3, 6; इफि. 2:8, 9.

तसवीरें: भाई-बहन यहोवा की सेवा में अलग-अलग काम कर रहे हैं। 1. एक भाई संगठन की इमारत में पाइप का प्रेशर देख रहा है। 2. एक बहन साइन लैंग्वेज के सर्किट सम्मेलन में इंटरव्यू दे रही है। 3. एक भाई मंडली की सभा में भाषण दे रहा है।

हमारे पास जो भी तोहफे हैं, वे यहोवा की महा-कृपा की वजह से हैं (पैराग्राफ 9)b


10. हम नम्र बनने के लिए क्या कर सकते हैं?

10 अगर हम यीशु की मिसाल पर गहराई से सोचें, तो हम भी नम्र बनना सीख सकते हैं। ध्यान दीजिए कि जिस रात यीशु ने अपने प्रेषितों के पैर धोए थे, उस बारे में बाइबल में क्या लिखा है। प्रेषित यूहन्‍ना ने लिखा, “यीशु यह जानते हुए कि [1] पिता ने सबकुछ उसके हाथ में सौंप दिया है और [2] वह परमेश्‍वर की तरफ से आया है और [3] परमेश्‍वर के पास जा रहा है, . . . अपने चेलों के पैर धोने लगा।” (यूह. 13:3-5) यीशु ने यह नहीं सोचा, ‘मैं परमेश्‍वर का बेटा हूँ और चेलों को मेरे पैर धोने चाहिए।’ ना ही धरती पर रहते वक्‍त उसने कभी आराम की ज़िंदगी चाही। (लूका 9:58) यीशु नम्र था और उसके पास जो कुछ था उससे वह संतुष्ट था। उसने हमारे लिए क्या ही बढ़िया मिसाल रखी!—यूह. 13:15.

11. नम्र बनने से डेनिस कैसे संतुष्ट रह पाया है?

11 नीदरलैंड्‌स का रहनेवाला भाई डेनिस यीशु की तरह नम्र बनने की कोशिश कर रहा है। लेकिन उसके लिए यह आसान नहीं है। वह कहता है, “जब किसी को वह ज़िम्मेदारी मिल जाती है जिसे मैं पाना चाहता हूँ, तो मुझे अंदर-ही-अंदर बुरा लगने लगता है। जब ऐसा होता है, तो मैं अध्ययन करता हूँ कि मैं कैसे नम्र रह सकता हूँ। मैंने JW लाइब्रेरी ऐप पर नम्र रहने के बारे में कुछ आयतें टैग कर रखी हैं। इससे मैं उन आयतों को आसानी से ढूँढ़ पाता हूँ और उन्हें बार-बार पढ़ता हूँ। मैंने अपने फोन पर नम्र रहने के बारे में कुछ भाषण भी डाउनलोड कर रखे हैं। मैं उन्हें भी बार-बार सुनता हूँ।a मैंने सीखा है कि हम जो भी करें यहोवा की महिमा के लिए करें, ना कि अपनी महिमा के लिए। देखा जाए तो यहोवा सबकुछ कर रहा है, हम तो बस उसका थोड़ा-बहुत हाथ बँटा रहे हैं।” अगर आप कभी इस बात को लेकर निराश होने लगें कि आपको वह ज़िम्मेदारी नहीं मिली जिसे आप पाना चाहते हैं, तो नम्र बनने की कोशिश कीजिए। ऐसा करने से आप यहोवा के साथ अपनी दोस्ती मज़बूत कर पाएँगे और आपके पास जो भी है, उसमें संतुष्ट रह पाएँगे।—याकू. 4:6, 8.

अपनी आशा पर मनन कीजिए

12. भविष्य के लिए हमारे पास क्या आशा है जिस वजह से आज हम संतुष्ट रह पाते हैं? (यशायाह 65:21-25)

12 यहोवा ने हमें एक अच्छे भविष्य की आशा दी है। अगर हम उस पर मनन करें, तो हम संतुष्ट रहना सीख सकते हैं। भविष्यवक्‍ता यशायाह के शब्दों से साफ पता चलता है कि यहोवा हमारी परेशानियाँ अच्छी तरह जानता है और उसने वादा किया है कि वह उन्हें हमेशा के लिए दूर कर देगा। (यशायाह 65:21-25 पढ़िए।) नयी दुनिया में हमारे पास रहने के लिए अच्छे घर होंगे और हम सुरक्षित रहेंगे। हमारे पास ऐसा काम होगा जिससे हमें खुशी मिलेंगी। हम बढ़िया-से-बढ़िया खाना खाएँगे और सेहतमंद रहेंगे। हमें यह चिंता नहीं सताएगी कि हमारा या हमारे बच्चों का क्या होगा। (यशा. 32:17, 18; यहे. 34:25) यहोवा ने हमारे लिए एक शानदार भविष्य सोच रखा है जो हमें ज़रूर मिलेगा!

13. हमें किन मुश्‍किलों का सामना करना पड़ता है और अपनी आशा के बारे में सोचने से हमें कैसे मदद मिलती है?

13 आज हमें पहले से कहीं ज़्यादा अपनी आशा पर ध्यान लगाए रखना चाहिए। वह क्यों? क्योंकि हम “आखिरी दिनों में” जी रहे हैं “जिसका सामना करना मुश्‍किल” है। (2 तीमु. 3:1) लेकिन यहोवा हमें हर दिन सही राह दिखाता है, हमें हिम्मत देता है और हमारी मदद करता है। (भज. 145:14) यही नहीं, उसने हमें भविष्य के लिए जो शानदार आशा दी है, वह हमें मुश्‍किलों में सँभाले रखती है। हो सकता है, आप अपने परिवार के लिए दिन-रात मेहनत करते हों, पर बस दो वक्‍त की रोटी ही जुटा पाते हों। क्या इसका यह मतलब है कि आप हमेशा गरीबी की मार झेलते रहेंगे? बिलकुल नहीं। यहोवा ने वादा किया है कि वह फिरदौस में आपकी हर ज़रूरत पूरी करेगा। वह हमारी उम्मीदों से भी बढ़कर हमें देगा। (भज. 9:18; 72:12-14) हो सकता है, आपको कोई गंभीर बीमारी हो या आप हमेशा दर्द में रहते हों या फिर निराशा से जूझ रहे हों। क्या इसका यह मतलब है कि आप हमेशा यूँ ही दर्द में जीते रहेंगे, आपको कोई राहत नहीं मिलेगी? बिलकुल नहीं। परमेश्‍वर नयी दुनिया में हर तरह की बीमारी दूर कर देगा और मौत को भी मिटा देगा। (प्रका. 21:3, 4) जब हम इस आशा के बारे में सोचते हैं, तो मुश्‍किल-से-मुश्‍किल हालात में भी हम कड़वाहट या गुस्से से नहीं भर जाते, बल्कि खुश रहते हैं। जब हमारे साथ कोई नाइंसाफी होती है या हमारे किसी अपने की मौत हो जाती है या हम बीमार हो जाते हैं या हमें किसी और मुश्‍किल का सामना करना पड़ता है, तब भी हम खुश रह पाते हैं। वह क्यों? क्योंकि हम जानते हैं कि “हमारी दुख-तकलीफें पल-भर” की हैं और नयी दुनिया में हमें इनसे हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाएगा।—2 कुरिं. 4:17, 18.

14. हम अपनी आशा कैसे पक्की कर सकते हैं?

14 संतुष्ट रहने के लिए भविष्य के लिए एक आशा होना बहुत ज़रूरी है। तो फिर हम अपनी आशा कैसे पक्की कर सकते हैं? ठीक जैसे चश्‍मा लगाने से एक व्यक्‍ति दूर की चीज़ें साफ देख पाता है, उसी तरह जब हम अपनी आशा को पक्का करने के लिए कुछ कदम उठाएँगे, तो हम मन की आँखों से आनेवाले फिरदौस को साफ देख पाएँगे। जैसे जब हमें पैसे की चिंता खाए जाती है, तब हम फिरदौस के बारे में सोच सकते हैं जहाँ ना तो पैसों की ज़रूरत होगी, ना कर्ज़ लेना पड़ेगा और ना ही गरीबी होगी। अगर हमें यह चिंता सता रही है कि हमें फलाँ ज़िम्मेदारी नहीं मिल रही है, तो हम सोच सकते हैं कि जब हम परिपूर्ण हो जाएँगे और हमें यहोवा की सेवा करते हुए हज़ारों साल हो चुके होंगे, तो हमारी यह चिंता हमें कितनी छोटी लगेगी। (1 तीमु. 6:19) हो सकता है, अपनी चिंताओं से ध्यान हटाकर नयी दुनिया में मिलनेवाली आशीषों के बारे में मनन करना हमें मुश्‍किल लगे। लेकिन अगर हम उन आशीषों के बारे में सोचते रहें, तो अपनी आशा पर ध्यान लगाए रखना हमारे लिए आसान हो जाएगा।

15. आपने बहन क्रिस्टा के अनुभव से क्या सीखा?

15 भाई डेनिस, जिसके बारे में इस लेख में पहले बताया गया था, उनकी पत्नी क्रिस्टा के अनुभव पर ध्यान दीजिए। बहन क्रिस्टा कहती हैं, “मुझे एक ऐसी बीमारी है जिससे मेरी माँस-पेशियाँ कमज़ोर होती जा रही हैं। अब मैं चल-फिर नहीं पाती और व्हीलचेयर का इस्तेमाल करती हूँ। मैं ज़्यादातर समय बिस्तर पर ही रहती हूँ। हर दिन मुझे बहुत दर्द रहता है। हाल में डॉक्टर ने मुझसे कहा कि मेरी हालत और बिगड़ती जाएगी और अब कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन मैं मन-ही-मन सोचने लगी, ‘इसे नहीं पता कि मुझे कितना शानदार भविष्य मिलनेवाला है।’ मैं अपनी आशा पर ध्यान लगाए रखती हूँ, इससे मुझे मन की शांति मिलती है। मुझे पता है कि आज इस दुनिया में मुझे यह सब सहना पड़ रहा है, लेकिन नयी दुनिया में मेरे सारे दर्द दूर हो जाएँगे और मैं ज़िंदगी का पूरा मज़ा ले पाऊँगी।”

“उसका डर माननेवालों को कोई कमी नहीं होती”

16. राजा दाविद ने ऐसा क्यों लिखा कि जो यहोवा का डर मानते हैं, उन्हें “कोई कमी नहीं होती”?

16 परमेश्‍वर के जो सेवक संतुष्ट रहते हैं, उन्हें भी मुश्‍किलों का सामना करना पड़ता है। राजा दाविद के उदाहरण पर ध्यान दीजिए। बाइबल में बताया है कि उसने अपने तीन बच्चों को मौत में खोया था। उस पर गलत इलज़ाम लगाया गया था, उसे धोखा दिया गया था और अपनी जान बचाने के लिए उसे कई सालों तक यहाँ-वहाँ भागना पड़ा था। इतना सब सहने के बाद भी उसने यहोवा के बारे में कहा, “उसका डर माननेवालों को कोई कमी नहीं होती।” (भज. 34:9, 10) दाविद ने ऐसा क्यों कहा? वह जानता था कि यहोवा अपने सेवकों को हमेशा मुश्‍किलों से नहीं बचाता, लेकिन वह उन्हें वह हर चीज़ देता है जिसकी उन्हें ज़रूरत होती है। (भज. 145:16) हम भी यकीन रख सकते हैं कि यहोवा हमें कोई कमी नहीं होने देगा। वह हर मुश्‍किल में हमें सँभालेगा। इसलिए हमारे हालात चाहे जैसे भी हों, हम खुश और संतुष्ट रह सकते हैं।

17. आप क्यों संतोष करने का राज़ सीखना चाहते हैं?

17 यहोवा चाहता है कि आप खुश और संतुष्ट रहें। (भज. 131:1, 2) इसलिए संतोष करने का राज़ सीखने की पूरी कोशिश कीजिए। अगर आप अपने दिल में एहसानमंदी की भावना बढ़ाने के लिए मेहनत करेंगे, यहोवा की मरज़ी पूरी करने पर ध्यान लगाए रखेंगे और नम्र बने रहेंगे, साथ ही अपनी आशा को पक्का करेंगे, तो आप भी कह पाएँगे कि मैं खुश और संतुष्ट हूँ।—भज. 16:5, 6.

आपका जवाब क्या होगा?

  • एहसानमंदी की भावना बढ़ाने से आप कैसे संतुष्ट रह पाएँगे?

  • यहोवा की मरज़ी पूरी करने पर ध्यान लगाए रखने और नम्र रहने से आप कैसे संतुष्ट रह पाएँगे?

  • अपनी आशा के बारे में मनन करने से आप कैसे संतुष्ट रह पाएँगे?

गीत 118 “हमारा विश्‍वास बढ़ा”

a उदाहरण के लिए jw.org पर सुबह की उपासना के ये कार्यक्रम देखें: यहोवा नम्र लोगों का खयाल रखता है और विनाश से पहले घमंड।

b तसवीर के बारे में: एक भाई संगठन की एक इमारत का रख-रखाव कर रहा है, एक बहन ने साइन लैंग्वेज सीखी है और सर्किट सम्मेलन में इंटरव्यू दे रही है और एक भाई जन भाषण दे रहा है।

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