अय्यूब
3 इसके बाद अय्यूब ने बोलना शुरू किया। वह उस दिन को कोसने लगा जिस दिन उसका जन्म हुआ था।+ 2 अय्यूब ने कहा,
4 काश! वह दिन काली रात में बदल जाता,
परमेश्वर आसमान से उस पर ध्यान न देता,
उस दिन उजाला ही न होता।
5 काश! घुप अँधेरा* उसे निगल जाता,
घनघोर घटा उस पर छा जाती,
आसमान का भयानक मंज़र देख वह दिन सहम जाता।
6 काश! वह रात गुमनामी के अँधेरे में कहीं खो जाती।+
साल के किसी भी दिन उसे याद न किया जाता,
न ही महीनों में उसे गिना जाता।
7 काश! वह रात बाँझ हो जाती,
खुशियों की आवाज़ सुनायी न देती।
9 काश! भोर के टिमटिमाते तारे बुझ जाते,
सूरज की किरणों को वह देख न पाता,
उजाले की आस में बैठे-बैठे वह थक जाता।
11 हाय! मैं पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया?
माँ के पेट से निकलते ही मेरा दम क्यों नहीं निकल गया?+
13 नहीं तो आज मैं बेखबर पड़ा रहता,+
गहरी नींद में चैन से सोया रहता,+
14 उन राजाओं, उन सलाहकारों के साथ,
जिनकी बनायी इमारतें आज खंडहर हो चुकी हैं।*
15 उन राजकुमारों* के साथ जिनके पास सोना था
और जिनके घर चाँदी से भरे थे।
16 काश, मैं गर्भ में बढ़ने से पहले ही मिट जाता,
उस बच्चे-सा होता, जिसने कभी उजाला न देखा हो।
18 कैदियों को कब्र में चैन मिलता है,
काम लेनेवालों की घुड़कियाँ उन्हें सुनायी नहीं देतीं।
21 जो मौत के लिए तरसते हैं, उन्हें मौत क्यों नहीं आती?+
उन्हें छिपे खज़ाने से भी ज़्यादा इसकी तलाश रहती है।
22 उसे पाकर वे खुश हो जाते हैं,
कब्र देखकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता।
23 परमेश्वर क्यों उस इंसान को रौशनी दिखाता है,
जो राह भटक गया है और जिसका रास्ता खुद परमेश्वर ने रोका है?+
25 जिसका मुझे डर था, वही मेरे साथ हुआ,
जिस बात से मैं घबराता था, वही मेरे साथ घट गयी।
26 मेरा सुख-चैन छिन गया, मुझे कोई आराम नहीं,
और मुसीबतें हैं कि मेरा पीछा ही नहीं छोड़तीं।”