यहोवा का भय मानो, जो प्रार्थना के सुननेवाले हैं
“हे प्रार्थना के सुननेवाले! सब प्राणी तेरे ही पास आएँगे।”—भजन ६५:२.
१. हमें यहोवा से यह अपेक्षा क्यों करनी चाहिए कि उनके पास प्रार्थना में आए चाहनेवालों से उनकी कुछ माँगें होंगी?
यहोवा परमेश्वर “युग युग के राजा” हैं। वह “प्रार्थना के सुननेवाले” भी हैं, जिनके पास “सब प्राणी . . . आएँगे।” (प्रकाशितवाक्य १५:३; भजन ६५:२) लेकिन उन्हें उनके पास किस तरह आना चाहिए? इस दुनिया के राजा ऐसी बातों को नियंत्रित करते हैं, जैसे उन लोगों का पोशाक और आचरण, जिन्हें उनकी मौजूदगी में आने दिया जाता है। तो फिर, बेशक, हमें सनातन राजा से यह अपेक्षा करनी चाहिए कि प्रार्थना और बिनती के साथ उनके पास आनेवाले हर किसी से कुछेक माँगें की जाएँगी, जिन को उन्हें पूरा करना पड़ेगा।—फिलिप्पियों ४:६, ७.
२. प्रार्थना के विषय पर कौनसे सवाल उठते हैं?
२ प्रार्थना में उनके पास आनेवालों से सनातन राजा किन बातों की माँग करते हैं? कौन प्रार्थना कर सकता है और किसकी सुनी जाएगी? और वे किस के बारे में प्रार्थना कर सकते हैं?
सनातन राजा के पास आना
३. आप परमेश्वर के आदि काल के सेवकों द्वारा की गयी प्रार्थनाओं की कौनसी मिसालें दे सकते हैं, और क्या वे एक बिचवाई के ज़रिए उनके पास आते थे?
३ पापी बन जाने से पहले, ‘परमेश्वर का पुत्र,’ आदम प्रत्यक्षतः युग युग के राजा के साथ संलाप करता था। (लूका ३:३८; उत्पत्ति १:२६-२८) जब आदम के बेटे, हाबिल ने परमेश्वर के सामने “अपनी भेड़-बकरियों के कई एक पहिलौठे बच्चे” पेश किए, तो बेशक इस चढ़ावे के साथ-साथ बिनती और स्तुति की अभिव्यक्तियाँ भी पेश की गयीं। (उत्पत्ति ४:२-४) नूह, इब्राहीम, इसहाक, और याकूब ने वेदियाँ बाँधीं और अपना चढ़ावा लिए प्रार्थनापूर्वक यहोवा के पास आए। (उत्पत्ति ८:१८-२२; १२:७, ८; १३:३, ४, १८; २२:९-१४; २६:२३-२५; ३३:१८-२०; ३५:१, ३, ७) और सुलैमान, एज्रा, तथा ईश्वरीय रूप से उत्प्रेरित भजनहारों की प्रार्थनाओं से सूचित होता है कि इस्राएली लोग किसी भी बिचवाई के बग़ैर परमेश्वर के पास आते थे।—१ राजा ८:२२-२४; एज्रा ९:५, ६; भजन ६:१, २; ४३:१; ५५:१; ६१:१; ७२:१; ८०:१; १४३:१.
४. (अ) पहली सदी में प्रार्थना में परमेश्वर के पास आने का कौनसा नया उपगम स्थापित किया गया? (ब) यह ख़ास तौर से क्यों उपयुक्त है कि प्रार्थना यीशु के नाम में की जाए?
४ हमारे सामान्य युग की पहली सदी में प्रार्थना में परमेश्वर के पास आने का एक नया उपगम स्थापित किया गया। यह उनके बेटे, यीशु मसीह के ज़रिए था, जिसे मनुष्यजाति के लिए ख़ास प्रेम था। अपने पूर्व-मानवीय अस्तित्व में, यीशु ने हर्ष से एक “कारीगर” के तौर से काम किया था, जिसे मनुष्यजाति से संबद्ध बातों के लिए स्नेह था। (नीतिवचन ८:३०, ३१) पृथ्वी पर एक इंसान के रूप में, यीशु ने प्रेममयता से अपरिपूर्ण इंसानों को आध्यात्मिक तौर से मदद की, बीमारों को स्वस्थ किया, और मरे हुओं को फिर से ज़िन्दा भी किया। (मत्ती ९:३५-३८; लूका ८:१-३, ४९-५६) सबसे बढ़कर, यीशु ने ‘बहुतों की छुड़ौती के लिए अपना प्राण’ दिया। (मत्ती २०:२८) तो फिर, यह कितना उपयुक्त है कि जो लोग छुड़ौती का लाभ उठा रहे हैं, उन्हें परमेश्वर के सामने इस व्यक्ति के ज़रिए आना चाहिए, जो मनुष्यजाति से इतना प्रेम करता है! अब यह सनातन राजा के पास आने का एक-मात्र उपगम का मार्ग है, इसलिए कि स्वयं यीशु ने कहा: “बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता” और, “यदि पिता से कुछ माँगोगे, तो वह मेरे नाम से तुम्हें देगा।” (यूहन्ना १४:६; १६:२३) यीशु के नाम से किसी बात को माँगने का मतलब है, प्रार्थना के सुननेवाले के पास आने के मार्ग के तौर से उसको स्वीकार करना।
५. मनुष्यजाति के जगत की ओर परमेश्वर की अभिवृत्ति क्या है, और प्रार्थना से इसका क्या संबंध है?
५ विशेष रूप से हमें उस प्रेम की क़दर करनी चाहिए जो यहोवा ने छुड़ौती का प्रबंध करके दिखाया। यीशु ने कहा: “परमेश्वर ने [मनुष्यजाति के] जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उस ने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए।” (यूहन्ना ३:१६) परमेश्वर के प्रेम की गहराई भजनहारे के इन शब्दों में भली-भाँति व्यक्त की गयी है: “जैसे आकाश पृथ्वी के ऊपर ऊँचा है, वैसे ही उसकी करुणा उसके डरवैयों के ऊपर प्रबल है। उदयाचल अस्ताचल से जितनी दूर है, उस ने हमारे अपराधों को हम से उतनी ही दूर कर दिया है। जैसे पिता अपने बालकों पर दया करता है, वैसे ही यहोवा अपने डरवैयों पर दया करता है। क्योंकि वह हमारी सृष्टि जानता है; और उसको स्मरण रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही हैं।” (भजन १०३:११-१४) यह जानना कितना उत्साहवर्धक है कि यहोवा के समर्पित सेवकों की प्रार्थनाएँ ऐसे प्रेममय पिता की ओर उनके पुत्र के ज़रिए चढ़ती हैं!
एक नियंत्रित ख़ास अनुग्रह
६. प्रार्थना में यहोवा के पास कौनसी अभिवृत्ति के साथ आना चाहिए?
६ मानवीय राजा बस किसी भी व्यक्ति को राजमहल में अघोषित आने नहीं देते। किसी राजा से मुलाक़ात करना एक नियंत्रित ख़ास अनुग्रह है। और युग युग के राजा से प्रार्थना करना भी उसी तरह है। अवश्य, जो लोग यीशु मसीह के ज़रिए परमेश्वर की शानदार राजसत्ता के लिए उचित क़दर के साथ उनके पास आते हैं, वे अपेक्षा कर सकते हैं कि उनकी सुनी जाएगी। सनातन राजा के पास एक श्रद्धालु, भक्तिपूर्ण अभिवृत्ति के साथ आना चाहिए। और जो लोग चाहते हैं कि उनकी सुनी जाए, उन्हें “यहोवा का भय” प्रकट करना चाहिए।—नीतिवचन १:७.
७. “यहोवा का भय” क्या है?
७ “यहोवा का भय” क्या है? यह परमेश्वर के लिए एक गहरी श्रद्धा है, और साथ ही उन्हें अप्रसन्न करने का एक हितकर भय। यह विस्मय उनकी प्रेममय कृपा और भलाई के लिए गहरी एहसानमन्दी से उत्पन्न होता है। (भजन १०६:१) इस में युग युग के राजा के तौर से उन्हें मानना सम्मिलित है, जिन्हें यह हक़ और ताक़त है, कि वह अपनी अवज्ञा करनेवाले कोई भी व्यक्ति पर दण्ड लाए, जिस दण्ड में मरण भी शामिल है। जो लोग यहोवा का भय प्रकट करते हैं, वे सुने जाने की अपेक्षा के साथ उनसे प्रार्थना कर सकते हैं।
८. परमेश्वर उनके भय माननेवालों की प्रार्थनाएँ क्यों सुनते हैं?
८ स्वाभाविक है, परमेश्वर बुरे, अविश्वसनीय और आत्म-धर्माभिमानी लोगों की प्रार्थनाओं का जवाब नहीं देते। (नीतिवचन १५:२९; यशायाह १:१५; लूका १८:९-१४) परन्तु जो लोग यहोवा का भय मानते हैं, उनकी सुनी जाती है इसलिए कि वे उनके धर्मी मानदण्डों के अनुरूप हो गए हैं। फिर भी, उन्होंने इस से ज़्यादा किया है। यहोवा का भय माननेवालों ने प्रार्थना में परमेश्वर के प्रति समर्पण किया है और इसके प्रतीक के रूप में पानी में बपतिस्मा लिया है। इस प्रकार उन्हें प्रार्थना में एक अनियंत्रित ख़ास अनुग्रह प्राप्त होता है।
९, १०. क्या बपतिस्मा-रहित व्यक्ति इस उम्मीद से प्रार्थना कर सकते हैं कि उनकी सुनी जाएगी?
९ परमेश्वर द्वारा सुने जाने के लिए, एक व्यक्ति को ऐसी प्रार्थनापूर्ण भावनाएँ व्यक्त करनी चाहिए जो ईश्वरीय इच्छा के अनुरूप हैं। जी हाँ, उसे निष्कपट तो होना ही चाहिए, लेकिन इस से कुछ अधिक आवश्यक है। “विश्वास बिना [परमेश्वर को] प्रसन्न करना अनहोना है,” प्रेरित पौलुस ने लिखा, “क्योंकि परमेश्वर के पास आनेवाले को विश्वास करना चाहिए, कि वह है, और अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है।” (इब्रानियों ११:६) ख़ैर, तो फिर, क्या बपतिस्मा-रहित व्यक्तियों को इस अपेक्षा के साथ, कि उनकी सुनी जाएगी, प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है?
१० यह जानकर कि प्रार्थना एक नियंत्रित ख़ास अनुग्रह है, राजा सुलैमान ने बिनती की कि यहोवा उन विदेशियों की सुने जो यरूशलेम में परमेश्वर के मंदिर की ओर मुड़कर प्रार्थना करते। (१ राजा ८:४१-४३) सदियों बाद, अन्यजातीय विदेशी कुरनेलियुस ने एक भक्त के तौर से “बराबर परमेश्वर से प्रार्थना” की। यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने पर, कुरनेलियुस ने अपने आप को परमेश्वर के प्रति समर्पित किया, जिन्होंने इसके बाद उसे पवित्र आत्मा प्रदान की। इसके बाद, कुरनेलियुस और दूसरे अन्यजातीय लोगों ने बपतिस्मा लिया। (प्रेरितों के काम १०:१-४४) कुरनेलियुस के जैसे, जो कोई आज बपतिस्मा की ओर प्रगति कर रहा हो, उसे प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। लेकिन जो व्यक्ति धर्मशास्त्रों का अध्ययन करने के बारे में झूठा है, प्रार्थना के लिए ईश्वरीय आवश्यकताओं को नहीं जानता, और जिसने अभी तक परमेश्वर को प्रसन्न करनेवाली अभिवृत्ति नहीं दर्शायी है, उस के बारे में नहीं कहा जा सकता कि वह यहोवा का भय मानता है, या उस में विश्वास है, या वह उनके लिए सच्चे दिल से खोज रहा है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाएँ देने की स्थिति में नहीं है।
११. ऐसे कुछेक लोगों का क्या हुआ है जो समर्पण की ओर प्रगति कर रहे थे, और उन्हें अपने आप से क्या पूछना चाहिए?
११ कुछ लोग जो किसी समय समर्पण की ओर प्रगति कर रहे थे, बाद में कुछ-कुछ हिचकते हुए प्रतीत होंगे। अगर उन्हें अपने दिल में परमेश्वर के लिए इस हद तक प्रेम नहीं, कि उनके प्रति एक अबाधित समर्पण करें, तो उन्हें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या उनके पास प्रार्थना का वह अत्युत्तम ख़ास अनुग्रह अब भी है या नहीं। प्रत्यक्ष रूप से नहीं, इसलिए कि जो लोग परमेश्वर के पास आते हैं, उन्हें सच्चे दिल से उनकी खोज करते रहना चाहिए और धर्म तथा नम्रता को भी ढूँढ़ते रहना चाहिए। (सपन्याह २:३) जो कोई सचमुच ही यहोवा का भय मानता है, वह एक ऐसा विश्वासी है जो परमेश्वर के प्रति समर्पण करता है और उस के प्रतीक के तौर से बपतिस्मा लेता है। (प्रेरितों के काम ८:१३; १८:८) और सिर्फ़ बपतिस्मा-प्राप्त विश्वासियों को ही प्रार्थना में सनातन राजा के पास आने का अनियंत्रित ख़ास अनुग्रह प्राप्त है।
“पवित्र आत्मा से प्रार्थना करते हुए”
१२. यह कब कहा जा सकता है कि कोई व्यक्ति ‘पवित्र आत्मा से प्रार्थना कर’ रहा है?
१२ किसी व्यक्ति का परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसके प्रतीक के रूप में बपतिस्मा लेने के बाद, वह ‘पवित्र आत्मा से प्रार्थना करने’ की स्थिति में है। इसके संबंध में, यहूदा ने लिखा: “पर हे प्रियो, तुम अपने अति पवित्र विश्वास में अपनी उन्नति करते हुए और पवित्र आत्मा में प्रार्थना करते हुए, अपने आप को परमेश्वर के प्रेम में बनाए रखो; और अनन्त जीवन के लिए हमारे प्रभु यीशु मसीह की दया की आशा देखते रहो।” (यहूदा २०, २१) जब कोई व्यक्ति परमेश्वर की आत्मा, या सक्रिय ताक़त, के प्रभाव के अधीन प्रार्थना करता है, और उनके वचन में कही गयी बातों के अनुसार प्रार्थना करता है, तब वह व्यक्ति पवित्र आत्मा से प्रार्थना कर रहा होता है। धर्मशास्त्रों में, जो यहोवा की आत्मा की प्रेरणा में लिखे गए, हमें दिखाया गया है कि हमें किस तरह प्रार्थना करनी चाहिए और प्रार्थना में किन बातों के लिए बिनती करनी चाहिए। मसलन, हम यक़ीन के साथ प्रार्थना कर सकते हैं कि परमेश्वर हमें अपनी पवित्र आत्मा दें। (लूका ११:१३) जब हम पवित्र आत्मा से प्रार्थना करते हैं, हमारी प्रार्थनाओं में दिल की एक ऐसी अवस्था प्रकट होती है जो यहोवा को बहुत ही अच्छी लगती है।
१३. अगर हम पवित्र आत्मा से प्रार्थना करते हैं, तो हम किस बात से बचे रहेंगे, और हम यीशु की कौनसी सलाह पर अमल करेंगे?
१३ जब हम पवित्र आत्मा से प्रार्थना करते हैं, हमारी प्रार्थनाएँ आडंबरी शब्दों से भरी हुई नहीं होतीं। उन में कोई फ़ारमूले नहीं, जिन्हें यंत्रवत् दोहराया जाता है। जी नहीं, उन में तक़रीबन निरर्थक स्तुतिगान, स्तुति की झूठी अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं। उस क़िस्म की प्रार्थनाएँ ईसाईजगत् में और बड़ी बाबेलोन, झूठे धर्म के विश्व साम्राज्य, के बाक़ी हिस्से में भरपूर हैं। लेकिन सच्चे मसीही यीशु की सलाह का अनुपालन करते हैं: “और जब तुम प्रार्थना करते हो, तब तुम्हें पाखण्डियों के जैसे नहीं होना है; क्योंकि लोगों को दिखाने के लिए सभाघरों में और बड़ी सड़कों की मोड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना उन को बहुत ही अच्छा लगता है . . . और प्रार्थना करते समय काफ़िरों के जैसे शब्दों को न रटना; क्योंकि वे [ग़लत रूप से] समझते हैं कि उनके बहुत बोलने से उन की सुनी जाएगी। सो तुम उन के जैसे न बनना।”—मत्ती ६:५-८, बाइंग्टन.
१४. कुछ लोगों ने प्रार्थना के बारे में किस तरह की अनुबोधक उक्तियाँ की हैं?
१४ यीशु और बाइबल लेखकों के अतिरिक्त, दूसरों ने प्रार्थना के संबंध में अनुबोधक उक्तियाँ की हैं। मसलन, अँग्रेज़ लेखक जॉन बन्यन (१६२८-८८) ने कहा: “प्रार्थना मसीह के ज़रिए, और आत्मा की ताक़त और सहायता से, परमेश्वर से किया गया निष्कपट, समझदार, और स्नेहपूर्ण भावोद्गार है, उन बातों के लिए जिनका परमेश्वर ने वादा किया है।” प्यूरिटन पादरी थॉमस ब्रुक्स (१६०८-८०) ने कहा: “परमेश्वर आपकी प्रार्थनाओं की वाक्पटुता नहीं देखते, कि ये कितने सुरुचिपूर्ण हैं; न आपकी प्रार्थनाओं की ज्यामिति को देखते, कि ये कितने लम्बे हैं; न आपकी प्रार्थनाओं के अंकगणित को देखते, कि ये कितने ज़्यादा हैं; न आपकी प्रार्थनाओं की तर्कसंगति को देखते, कि ये कितने सिलसिलेवार हैं; पर वह उनकी निष्कपटता को देखते हैं।” इस टिप्पणी से बन्यन की एक उक्ति जोड़ी जा सकती है: “दिली लेकिन मौन प्रार्थना उस प्रार्थना से बेहतर है जिसमें शब्द तो हैं, पर दिल नहीं।” लेकिन अगर हम निष्कपट हैं और ईश्वरीय आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, तो हमें किस तरह यक़ीन हो सकता है कि युग युग के राजा हमारी प्रार्थनाओं को सुनेंगे?
कभी लौटाया नहीं जाएगा
१५. सारांश में, यीशु ने लूका ११:५-८ में क्या कहा?
१५ यहोवा परमेश्वर अपने समर्पित सेवकों की प्रार्थनाओं की ओर कभी अनसुनी नहीं करते। यह बात यीशु के दिल को खुश कर देनेवाले शब्दों में स्पष्ट की गयी, जब उसके शिष्यों ने प्रार्थना के विषय पर कुछ सिखाने के लिए बिनती की। अंशतः, उसने कहा: “तुम में से कौन है कि उसका एक मित्र हो, और वह आधी रात को उसके पास जाकर उस से कहे, ‘हे मित्र; मुझे तीन रोटियाँ उधार दे। क्योंकि एक यात्री मित्र मेरे पास आया है, और उसके आगे रखने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है।’ और वह भीतर से उत्तर दे, ‘मुझे दुःख न दे; अब तो द्वार बन्द है, और मेरे बालक मेरे पास बिछौने पर हैं, इसलिए मैं उठकर तुझे दे नहीं सकता’? मैं तुम से कहता हूँ, यदि उसका मित्र होने पर भी उसे उठकर न दे, तौभी उसके लज्जा छोड़कर माँगने के कारण उसे जितनी आवश्यकता हो उतनी उठकर देगा।” (लूका ११:१, ५-८, न्यू.व.) इस दृष्टान्त का मुद्दा क्या था?
१६. प्रार्थना के संबंध में, यीशु चाहते थे कि हम क्या करें?
१६ यीशु का मतलब बेशक यह नहीं था कि यहोवा हमारी मदद करने के लिए अनिच्छुक हैं। उलटा, मसीह चाहते हैं कि हम निर्विवाद रूप से परमेश्वर पर भरोसा रखें और उन से इतना प्रेम करें कि लगातार प्रार्थना करते रहें। इस प्रकार, यीशु ने आगे कहा: “मैं तुम से कहता हूँ, कि ‘माँगते रहो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ते रहो, तो तुम पाओगे, खटखटाते रहो, तो तुम्हारे लिए खोला जाएगा। क्योंकि जो कोई माँगता है, उसे मिलता है; और जो ढूँढ़ता है, वह पाता है; और जो खटखटाता है; उसके लिए खोला जाएगा।” (लूका ११:९, १०, न्यू.व.) तो फिर, निश्चय ही, जब हम उत्पीड़न, कोई गहरी जड़ोंवाली निजी कमज़ोरी की वजह से परेशानी, या अन्य किसी परीक्षण का अनुभव करते हैं, तब हमें निश्चय ही प्रार्थना करते रहना चाहिए। यहोवा अपने विश्वसनीय सेवकों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार हैं। वह हम से कभी नहीं कहते: “मुझे दुःख न दे।”
१७, १८. (अ) यीशु ने हमें पवित्र आत्मा के लिए माँगने के लिए किस तरह प्रोत्साहित किया, और उसके शब्दों का बल किस बात से बढ़ जाता है? (ब) यीशु ने एक पार्थिव जनक के व्यवहार की तुलना परमेश्वर के व्यवहार से किस तरह की?
१७ अगर हमें परमेश्वर के साथ एक गहरे संबंध का आनन्द लेना है, तो हमें उनकी पवित्र आत्मा, या सक्रिय ताक़त की ज़रूरत है। इसलिए, यीशु ने आगे कहा: “तुम में से ऐसा कौन पिता होगा, कि जब उसका पुत्र मछली माँगे, तो मछली के बदले उसे साँप दे? या अण्डा माँगे तो उसे बिच्छू दे? सो जब तुम बुरे होकर अपने लड़के-बालों को अच्छी वस्तुएँ देना जानते हो, तो स्वर्गीय पिता अपने माँगनेवालों को पवित्र आत्मा क्यों ने देगा!” (लूका ११:११-१३, न्यू.व.) मत्ती ७:९-११ में रोटी के बदले पत्थर देने के बोर में बताया गया है। यीशु के शब्दों का बल बढ़ जाता है अगर हम जानते हैं कि प्राचीन बाइबल के देशों में मिलनेवाली रोटी एक चपटे, गोल पत्थर के माप और आकार की होती थी। कुछ क़िस्म के साँप कुछेक प्रकार की मछलियों के जैसे दिखायी देते हैं, और एक ऐसा छोटा सफ़ेद बिच्छू है जो कुछ हद तक एक अण्डे के जैसे दिखता है। लेकिन अगर रोटी, मछली, या अण्डे के लिए पूछा जाए, तो किस तरह का पिता अपने बच्चे को एक पत्थर, साँप, या बिच्छू देगा?
१८ इसके बाद यीशु ने किसी पार्थिव जनक के व्यवहार की तुलना परमेश्वर के अपने उपासक-परिवार के सदस्यों की ओर व्यवहार से की। अगर हम, हालाँकि हम विरासत में पाए हुए पापीपन के कारण तक़रीबन बुरे ही हैं, अपने बच्चों को अच्छे उपहार देना जानते हैं, तो हमें उससे कहीं अधिक अपने स्वर्गीय पिता से अपेक्षा करनी चाहिए कि वह अपने उन वफ़ादार सेवकों को पवित्र आत्मा का शानदार उपहार देंगे, जो विनम्रता से इस के लिए माँगते हैं!
१९. (अ) लूका ११:११-१३ और मत्ती ७:९-११ में लिपिबद्ध यीशु के शब्दों से क्या सूचित होता है? (ब) अगर हम पवित्र आत्मा के द्वारा चलाए चलते हैं, तो हम अपनी परीक्षाओं का कैसे विचार करेंगे?
१९ यीशु के शब्दों से सूचित होता है कि हमें परमेश्वर से उनकी पवित्र आत्मा के एक ज़्यादा हिस्से के लिए माँगना चाहिए। अगर हम उसके द्वारा चलाए चलते हैं, तो हम ‘अपनी ज़िन्दगी के बारे में नहीं कुड़कुड़ाएँगे’ और परीक्षणों तथा निराशाओं का विचार इस तरह करेंगे कि ये हमारे लिए सचमुच ही हानिकारक हैं। (यहूदा १६) सच है, “मनुष्य जो स्त्री से उत्पन्न होता है, वह थोड़े दिनों का और दुःख से भरा रहता है,” और अनेक लोग अपनी समस्याओं या दुःखों का अन्त देखने तक ज़िन्दा नहीं रहे हैं। (अय्यूब १४:१) लेकिन हम कभी अपने परीक्षणों को पत्थर, साँप, और बिच्छू न समझें, जो किसी तरह प्रार्थना के सुननेवाले ने हमें सौंप दी हैं। वह पूर्णतया प्रेम के प्रतीक हैं और वह बुरी बातों से किसी की भी परीक्षा नहीं करते। उलटा, वह हमें ‘हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान’ देते हैं। आख़िर में, वह उन लोगों के लिए सब कुछ ठीक कर देंगे जो उस से प्रेम करते और उनका भय मानते हैं। (याकूब १:१२-१७; १ यूहन्ना ४:८) अब बरसों से जो लोग सच्चाई में चलते आए हैं, उन्हें अपने अनुभव से मालूम है कि, प्रार्थना और विश्वास के ज़रिए, उनकी कुछ सबसे कठिन परीक्षाएँ उनके फ़ायदे के लिए हल हुई हैं और उन से उनकी ज़िन्दगी में परमेश्वर की आत्मा के फल बढ़ गए हैं। (३ यूहन्ना ४) दरअसल, अपने स्वर्गीय पिता पर निर्भर होना सीखने, तथा प्रेम, हर्ष, शान्ति, धीरज, कृपा, भलाई, विश्वास, नम्रता, और आत्म-संयम के आत्मा के फलों को विकसित करने की मदद किए जाने का और कौनसा बेहतर तरीक़ा है?—गलतियों ५:२२, २३.
२०. लूका ११:५-१३ में लिपिबद्ध यीशु के शब्दों से हम पर कैसा असर होना चाहिए?
२० इस प्रकार लूका ११:५-१३ में लिपिबद्ध यीशु के शब्दों से हमें यहोवा के प्रेम और स्नेहशील चिन्ता का धन्य आश्वासन मिलता है। इस से हमारा हृदय गहरी से गहरी एहसानमन्दी और प्रेम से भर जाना चाहिए। और हमारे विश्वास का बल बढ़ना चाहिए तथा सनातन राजा के पैरों की चौकी के पास अक्सर जाने तथा उनके प्रेममय सान्निध्य में ठहरने की हमारी इच्छा बढ़नी चाहिए। इसके अतिरिक्त, यीशु के शब्दों से हमें आश्वासन मिलता है कि हमें कभी खाली हाथ लौटाया नहीं जाएगा। हमारे स्वर्गीय पिता को बहुत ही खुशी होगी अगर हम अपना बोझ उन पर डाल देंगे। (भजन ५५:२२; १२१:१-३) और जब हम, उनके विश्वस्त, समर्पित सेवक होने के तौर से, उनकी पवित्र आत्मा के लिए माँगते हैं, तो वह हमें अबाधित रूप से यह देते हैं। यही हमारे प्रेममय परमेश्वर हैं, और हमें पूरा विश्वास हो सकता है कि वह हमारी प्रार्थनाओं के सुननेवाले हैं।
क्या आपको याद है?
◻ हमें प्रार्थना में परमेश्वर के पास किस के ज़रिए आना चाहिए, और क्यों?
◻ किस रीति से प्रार्थना एक नियंत्रित ख़ास अनुग्रह है?
◻ ‘पवित्र आत्मा से प्रार्थना करने’ का मतलब क्या है?
◻ आप धर्मशास्त्रों में से किस तरह साबित कर सकते हैं कि यहोवा के विश्वस्त बपतिस्मा-प्राप्त गवाहों की प्रार्थनाएँ सुनी जाती हैं?
[पेज 15 पर तसवीरें]
जैसे मानवीय पिता अपने बच्चों को अच्छे-अच्छे उपहार देते हैं, उसी तरह यहोवा उन लोगों को पवित्र आत्मा देते हैं, जो उन से माँग करते हैं