वॉचटावर ऑनलाइन लाइब्रेरी
वॉचटावर
ऑनलाइन लाइब्रेरी
हिंदी
  • बाइबल
  • प्रकाशन
  • सभाएँ
  • w97 2/15 पेज 13-18
  • “मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य”

इस भाग के लिए कोई वीडियो नहीं है।

माफ कीजिए, वीडियो डाउनलोड नहीं हो पा रहा है।

  • “मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य”
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1997
  • उपशीर्षक
  • मिलते-जुलते लेख
  • जीवन की मुख्य चिन्ताओं का सामना करना
  • परिवार, कीर्ति, और अधिकार
  • हमारा केन्द्रबिन्दु और बाध्यता
  • आपका जीवन—इसका उद्देश्‍य क्या है?
    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1997
  • अपनी ज़िंदगी को अनमोल बनाइए
    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1998
  • क्या बात ज़िंदगी को सच्चा मकसद देती है?
    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—2008
  • उसके अच्छे और बुरे उदाहरण से सीखिए
    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—2011
और देखिए
प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1997
w97 2/15 पेज 13-18

“मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य”

“परमेश्‍वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं का पालन कर; क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य यही है।”—सभोपदेशक १२:१३.

१, २. परमेश्‍वर के प्रति हमारी बाध्यता पर ध्यान देना उचित क्यों है?

“यहोवा तुझ से . . . और क्या चाहता है?” एक प्राचीन भविष्यवक्‍ता ने यह सवाल खड़ा किया। तब उसने उल्लेख किया कि यहोवा क्या माँग करता है—न्याय से काम करना, कृपा से प्रीति रखना, और अपने परमेश्‍वर के साथ नम्रता से चलना।—मीका ६:८.

२ वैयक्‍तिक अस्तित्त्व और स्वतंत्रता के इस युग में, अनेक लोग इस विचार से परेशान हैं कि परमेश्‍वर उनसे कुछ माँग करता है। वे बाध्य होना नहीं चाहते। लेकिन उस निष्कर्ष के बारे में क्या जिस पर सुलैमान सभोपदेशक में पहुँचा था? “सब कुछ सुना गया; अन्त की बात यह है कि परमेश्‍वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं का पालन कर; क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य यही है।”—सभोपदेशक १२:१३.

३. हमें सभोपदेशक की पुस्तक पर गंभीरतापूर्वक विचार क्यों करना चाहिए?

३ जीवन में हमारी कोई भी परिस्थिति या दृष्टिकोण क्यों न हो, यदि हम इस निष्कर्ष की पृष्ठभूमि पर ग़ौर करें तो हमें भारी लाभ हो सकता है। इस उत्प्रेरित पुस्तक के लेखक, राजा सुलैमान ने कुछ ऐसी बातों पर विचार किया जो हमारे रोज़मर्रा जीवन का भाग हैं। कुछ लोग शायद जल्दबाज़ी में यह निष्कर्ष निकालें कि उसका विश्‍लेषण मूल रूप से नकारात्मक है। फिर भी यह ईश्‍वरीय उत्प्रेरित था और हमारी गतिविधियों और प्राथमिकताओं की जाँच करने में हमारी मदद कर सकता है, जिसका परिणाम अधिक आनन्द होगा।

जीवन की मुख्य चिन्ताओं का सामना करना

४. सभोपदेशक में सुलैमान ने क्या अध्ययन और किस बात की चर्चा की है?

४ सुलैमान ने ‘मनुष्यों के लिए काम’ का गूढ़ अध्ययन किया। “मैं ने अपना मन लगाया कि जो कुछ सूर्य के नीचे किया जाता है, उसका भेद बुद्धि से सोच सोचकर मालूम करूं।” “काम” से ज़रूरी नहीं कि सुलैमान का अर्थ एक कार्य, या नौकरी हो, बल्कि वह सम्पूर्ण कार्यक्षेत्र है जिसमें पुरुष और स्त्री अपने जीवन-भर व्यस्त रहते हैं। (सभोपदेशक १:१३) आइए हम कुछ मुख्य चिन्ताओं, या कामों पर विचार करें, और फिर अपनी गतिविधियों और प्राथमिकताओं से तुलना करें।

५. मनुष्यों का एक प्रमुख काम क्या है?

५ निश्‍चित रूप से अनेक मानवी चिन्ताओं और गतिविधियों की जड़ पैसा होता है। कोई भी न्यायोचित रीति से यह नहीं कह सकता कि पैसे के बारे में सुलैमान का एक लापरवाह दृष्टिकोण था जैसा कुछ अमीर लोगों का होता है। थोड़े पैसे की आवश्‍यकता को उसने शीघ्र स्वीकार किया; अर्थात्‌ सादगी से जीने या ग़रीबी में जीने से पर्याप्त धन होना उत्तम है। (सभोपदेशक ७:११, १२) लेकिन आपने देखा होगा कि पैसा, उस सम्पत्ति के साथ जो उससे ख़रीदी जाती है—ग़रीब और अमीर दोनों के लिए—जीवन में मुख्य लक्ष्य बन सकता है।

६. यीशु के एक दृष्टान्त और सुलैमान के अपने अनुभव से पैसे के बारे में हम क्या सीख सकते हैं?

६ यीशु के उस धनी व्यक्‍ति के दृष्टान्त को याद कीजिए, जो कभी-भी संतुष्ट नहीं हुआ, और जिसने और ज़्यादा पाने के लिए काम किया। परमेश्‍वर ने उसे अविवेचित ठहराया। क्यों? क्योंकि हमारा ‘जीवन हमारी संपत्ति की बहुतायत से नहीं होता।’ (लूका १२:१५-२१) सुलैमान का अनुभव—जो संभवतः हमसे अधिक विस्तृत है—यीशु के शब्दों की पुष्टि करता है। सभोपदेशक २:४-९ में वृत्तान्त पढ़िए। कुछ समय के लिए सुलैमान ने ख़ुद को धन प्राप्त करने में लगाया था। उसने उत्कृष्ट घर और बग़ीचे बनाए। वह सुन्दर स्त्री साथी रख सकता था और उसने उन्हें प्राप्त भी किया। क्या धन और जो कुछ वह उससे करने में समर्थ हुआ, वह उसे गहरी संतुष्टि, सच्ची उपलब्धि का एक भाव, और अपने जीवन में उसे अर्थ दे सका? उसने स्पष्ट जवाब दिया: “तब मैं ने फिर से अपने हाथों के सब कामों को, और अपने सब परिश्रम को देखा, तो क्या देखा कि सब कुछ व्यर्थ और वायु को पकड़ना है, और संसार में कोई लाभ नहीं।”—सभोपदेशक २:११; ४:८.

७. (क) पैसे की क़ीमत के बारे में अनुभव क्या साबित करता है? (ख) आपने व्यक्‍तिगत रूप से क्या देखा है जो सुलैमान के निष्कर्ष को साबित करता है?

७ यह यथार्थ है, एक सच्चाई जो अनेक लोगों के जीवन से प्रमाणित होती है। हमें यह ज़रूर स्वीकार करना चाहिए कि मात्र ज़्यादा पैसा होना सब समस्याओं को सुलझा नहीं देता। यह थोड़ी-बहुत समस्याएँ सुलझा सकता है, जैसे कि भोजन और कपड़े हासिल करना आसान बनाना। लेकिन एक व्यक्‍ति एक वक़्त में केवल एक जोड़ी कपड़े पहन सकता है और केवल अमुक मात्रा में ही खा या पी सकता है। और आपने उन अमीर लोगों के बारे में पढ़ा होगा जिनके जीवन तलाक़, शराब या नशीले पदार्थों के दुरुपयोग, और रिश्‍तेदारों के साथ बैर से ग्रस्त हैं। करोड़पति जे. पी. गेटी ने कहा: “ज़रूरी नहीं कि पैसे का ख़ुशी के साथ कोई सम्बन्ध हो। शायद दुःख के साथ है।” अच्छे कारण से, सुलैमान ने चांदी से प्रीति को व्यर्थता के साथ जोड़ा। इस सच्चाई की तुलना सुलैमान के अवलोकन से कीजिए: “परिश्रम करनेवाला चाहे थोड़ा खाए, या बहुत, तौभी उसकी नींद सुखदाई होती है; परन्तु धनी के धन के बढ़ने के कारण उसको नींद नहीं आती।”—सभोपदेशक ५:१०-१२.

८. पैसे के महत्त्व को हद-से-ज़्यादा न आँकने का क्या कारण है?

८ पैसा और सम्पत्ति भी भविष्य के बारे में संतुष्टि का भाव नहीं लाते। यदि आपके पास बहुत पैसा और सम्पत्ति होती, तो संभव है कि उसे सुरक्षित रखने के लिए आपको और अधिक चिन्ता होती, और आप फिर भी नहीं जानते कि कल क्या होगा। क्या आप अपने जीवन के साथ शायद इस सारे पैसे को भी खो देंगे? (सभोपदेशक ५:१३-१७; ९:११, १२) तो जब ऐसा है, तो यह देखना कठिन नहीं होना चाहिए कि क्यों हमारे जीवन, या “काम” का पैसे और सम्पत्ति से ज़्यादा ऊँचा और स्थायी अर्थ होना चाहिए।

परिवार, कीर्ति, और अधिकार

९. सुलैमान की जाँच में पारिवारिक जीवन क्यों उचित रूप से आया?

९ सुलैमान ने जीवन के विश्‍लेषण में परिवार में लवलीनता का मामला शामिल किया। बाइबल पारिवारिक जीवन को विशिष्ट करती है, जिसमें बच्चों के होने और उनका पालन-पोषण करने का आनन्द शामिल है। (उत्पत्ति २:२२-२४; भजन १२७:३-५; नीतिवचन ५:१५, १८-२०; ६:२०; मरकुस १०:६-९; इफिसियों ५:२२-३३) लेकिन, क्या यह जीवन का प्रमुख पहलू है? कुछ संस्कृतियों में विवाह, बच्चों और पारिवारिक रिश्‍तों पर दिए गए ज़ोर को देखते हुए, ऐसा लगता है कि अनेक लोग ऐसा ही सोचते हैं। तौभी सभोपदेशक ६:३ दिखाता है कि सौ बच्चों का होना भी जीवन में संतुष्टि की कुंजी नहीं है। कल्पना कीजिए कि अपने बच्चों की ख़ातिर कितने माता-पिताओं ने त्याग किए हैं ताकि उन्हें अच्छी शुरूआत दे सकें और उनके जीवन को आसान बना सकें। इतना महान त्याग होने के बावजूद भी, निश्‍चित रूप से हमारे सृष्टिकर्ता का यह अर्थ नहीं था कि हमारे अस्तित्त्व का मुख्य उद्देश्‍य केवल अगली पीढ़ी को जीवन देना हो, जैसे जानवर सहजवृति से अपनी जाति को जारी रखने के लिए करते हैं।

१०. परिवार पर अनुचित ध्यान केन्द्रित करना क्यों व्यर्थ साबित हो सकता है?

१० सुलैमान ने सोच-समझकर पारिवारिक जीवन की कुछ वास्तविकताओं को उजागर किया। उदाहरण के लिए, एक व्यक्‍ति अपने बच्चों और पोतों के लिए प्रबन्ध करने पर शायद ध्यान केन्द्रित करे। लेकिन क्या वे बुद्धिमान साबित होंगे? या वे उसके साथ मूर्खता से कार्य करेंगे जिसे उनके लिए जोड़ने में उसने मेहनत की? यदि दूसरी बात होती तो यह क्या ही “व्यर्थ और बहुत ही बुरा” होता!—सभोपदेशक २:१८-२१; १ राजा १२:८; २ इतिहास १२:१-४, ९.

११, १२. (क) कुछ लोगों ने जीवन के किन लक्ष्यों पर ध्यान केन्द्रित किया है? (ख) ऐसा क्यों कहा जा सकता है कि प्रमुखता की खोज करना “वायु को पकड़ना है”?

११ दूसरी ओर, अनेक लोगों ने अपने सामान्य पारिवारिक जीवन को कीर्ति या दूसरों पर अधिकार पाने के निश्‍चय के अधीन कर दिया है। पुरुषों में यह दोष शायद अधिक सामान्य हो। क्या आपने इसे अपने सहपाठियों, सहकर्मियों, या पड़ोसियों में देखा है? अनेक लोग दूसरों द्वारा देखे जाने, कुछ बन जाने, या दूसरों पर प्रभुत्व जताने के लिए आतुरता से संघर्ष करते हैं। लेकिन वाक़ई यह कितना अर्थपूर्ण है?

१२ सोचिए कुछ लोग कैसे मशहूर होने के लिए संघर्ष करते हैं चाहे छोटे या बड़े पैमाने पर। हम इसे स्कूल में, अपने पड़ोस में, और विभिन्‍न सामाजिक समूहों में देखते हैं। यह उन में भी प्रेरक शक्‍ति है जो लोग कला, मनोरंजन, और राजनीति में विख्यात होना चाहते हैं। लेकिन क्या यह मूल रूप से एक व्यर्थ प्रयास नहीं है? सुलैमान ने सही रूप से इसे “वायु पकड़ने का प्रयास” कहा। (सभोपदेशक ४:४, NHT) यदि एक युवा एक क्लब, एक खेल टीम में, या एक संगीत मंडली में प्रमुख बन भी गया है—या किसी पुरुष या स्त्री ने किसी कम्पनी या समाज में इज़्ज़त हासिल कर ली है—तो कितने लोग इसके बारे में जानते हैं? क्या पृथ्वी के दूसरे छोर के लोग (या उसी देश के लोग भी) जानते हैं कि वह व्यक्‍ति अस्तित्त्व में है? या क्या वे, उस पुरुष या स्त्री ने जो थोड़ी कीर्ति हासिल की है, उससे बिलकुल अनजान अपना जीवन बिताना जारी रखते हैं? और यही बात ऐसे अधिकार या प्रभुत्व के बारे में कही जा सकती है जो एक व्यक्‍ति नौकरी पर, एक शहर में या एक समूह में हासिल करता है।

१३. (क) प्रमुखता और अधिकार के पीछे भागने के बारे में उचित दृष्टिकोण रखने में कैसे सभोपदेशक ९:४, ५ हमारी मदद करता है? (ख) यदि यही जीवन सब कुछ है तो कौन-सी सच्चाइयों का हमें सामना करना चाहिए? (फुटनोट देखिए।)

१३ ऐसी प्रमुखता या प्रभुत्व का आगे चलकर क्या होता है? जैसे एक पीढ़ी जाती है और दूसरी आती है, प्रमुख या शक्‍तिशाली लोग मिट जाते हैं और भुला दिए जाते हैं। यह भवन-निर्माताओं, संगीतकार और अन्य कलाकारों, समाज सुधारकों, इत्यादि के बारे में उतना ही सच है जितना अधिकांश राजनितिज्ञों और सेना नायकों के बारे में। इन ‘कामों’ को करनेवाले, आप कितने ख़ास लोगों को जानते हैं जो वर्ष १७०० और १८०० के बीच जीवित थे? सुलैमान ने सही ढंग से मामलों का विश्‍लेषण किया, उसने कहा: “जीवता कुत्ता मरे हुए सिंह से बढ़कर है। क्योंकि जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, . . . उनका स्मरण मिट गया है।” (सभोपदेशक ९:४, ५) और यदि यही जीवन सब कुछ है तो प्रमुखता या अधिकार पाने के पीछे भागना वाक़ई व्यर्थ है।a

हमारा केन्द्रबिन्दु और बाध्यता

१४. सभोपदेशक की पुस्तक को व्यक्‍तिगत रूप से हमारी मदद क्यों करनी चाहिए?

१४ सुलैमान ने अनेक गतिविधियों, लक्ष्यों और भोग-विलासों पर टिप्पणी नहीं की जिन पर मनुष्य अपने जीवन को केन्द्रित करता है। फिर भी, जो उसने लिखा वह पर्याप्त है। इस पुस्तक पर हमारे विचार करने को निराशाजनक या नकारात्मक लगने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि हमने बाइबल की उस पुस्तक पर यथार्थ रूप से पुनर्विचार किया है जिसे यहोवा परमेश्‍वर ने हमारे लाभ के लिए संकल्पित रूप से उत्प्रेरित किया है। यह जीवन के बारे में हमारे दृष्टिकोण और हमारे केन्द्रबिन्दु को सुधारने में हममें से हरेक की मदद कर सकती है। (सभोपदेशक ७:२; २ तीमुथियुस ३:१६, १७) ऐसा ख़ास तौर पर उन निष्कर्षों को ध्यान में रखते हुए सही है जिन तक पहुँचने में यहोवा ने सुलैमान की मदद की।

१५, १६. (क) जीवन का आनन्द उठाने के बारे में सुलैमान का क्या दृष्टिकोण था? (ख) जीवन का आनन्द उठाने पर सुलैमान ने कौन-सी उचित सीमाएँ रखीं?

१५ एक मुद्दा जिसे सुलैमान ने लगातार उठाया वह था कि सच्चे परमेश्‍वर के सेवकों को उसके सामने अपनी गतिविधियों में आनन्द पाना चाहिए। “मैं ने जान लिया है कि मनुष्यों के लिये आनन्द करने और जीवन भर भलाई करने के सिवाय, और कुछ भी अच्छा नहीं; और यह भी परमेश्‍वर का दान है कि मनुष्य खाए-पीए और अपने सब परिश्रम में सुखी रहे।” (सभोपदेशक २:२४; ३:१२, १३; ५:१८; ८:१५) ग़ौर कीजिए की सुलैमान रंगरलियों को बढ़ावा नहीं दे रहा था; न ही वह इस मनोवृत्ति का समर्थन कर रहा था कि ‘आओ, खाए-पीए, और आनन्द मनाएँ क्योंकि कल तो मर ही जाएंगे।’ (१ कुरिन्थियों १५:१४, ३२-३४) उसका अर्थ था कि जब हम ‘अपने जीवन-भर भलाई करते हैं’ तो हमें सामान्य भोग-विलास, जैसे खाने और पीने में आनन्द पाना चाहिए। यह अविवाद्य रूप से हमारा जीवन सृष्टिकर्ता की इच्छा पर केन्द्रित करता है, जो यह निर्धारित करता है कि सचमुच अच्छा क्या है।—भजन २५:८; सभोपदेशक ९:१; मरकुस १०:१७, १८; रोमियों १२:२.

१६ सुलैमान ने लिखा: “अपने मार्ग पर चला जा, अपनी रोटी आनन्द से खाया कर, और मन में सुख मानकर अपना दाखमधु पिया कर; क्योंकि परमेश्‍वर तेरे कामों से प्रसन्‍न हो चुका है।” (सभोपदेशक ९:७-९) जी हाँ, वह पुरुष या स्त्री जिसके पास वास्तव में उत्तम और भरपूर जीवन है ऐसे कार्य में सक्रिय रहता है जिससे यहोवा को प्रसन्‍नता होती है। यह हमसे उसे लगातार ध्यान में रखने की माँग करता है। यह दृष्टिकोण उन अधिकांश लोगों के दृष्टिकोण से कितना भिन्‍न है, जो मानवी सोच-विचारों के आधार पर जीवन को लेते हैं!

१७, १८. (क) अनेक लोग जीवन की वास्तविकताओं के प्रति कैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं? (ख) कौन-सा परिणाम हमें हमेशा मन में रखना चाहिए?

१७ हालाँकि कुछ धर्म भावी जीवन की शिक्षा देते हैं, अनेक लोग विश्‍वास करते हैं कि यही जीवन है जिसके बारे में वे निश्‍चित हो सकते हैं। आपने उन्हें उस तरह प्रतिक्रिया दिखाते देखा होगा जैसा सुलैमान ने वर्णन किया: “बुरे काम के दण्ड की आज्ञा फुर्ती से नहीं दी जाती; इस कारण मनुष्यों का मन बुरा काम करने की इच्छा से भरा रहता है।” (सभोपदेशक ८:११) यहाँ तक कि वे लोग भी जो भ्रष्ट कार्यों में तल्लीन नहीं होते यह दिखाते हैं कि वे केवल अब और आज के बारे में मुख्यतः चिन्ता करते हैं। यह एक कारण है कि क्यों पैसा, सम्पत्ति, प्रतिष्ठा, दूसरों पर अधिकार, परिवार, या अन्य ऐसी दिलचस्पियाँ उनके लिए बहुत ज़्यादा महत्त्व ले लेती हैं। लेकिन, सुलैमान ने इस विचार को यहीं नहीं छोड़ दिया। उसने आगे कहा: “यद्यपि पापी सैकड़ों दुष्कर्म करते हुए अपना जीवन-काल बढ़ा ले, फिर भी मैं जानता हूं कि जो परमेश्‍वर का भय मानते, हां, जो प्रकट रूप से भय मानते हुए चलते हैं उनका भला ही होगा। परन्तु दुष्ट मनुष्य का भला नहीं होगा, और वह अपने दिन छाया के समान नहीं बढ़ा सकेगा, क्योंकि वह परमेश्‍वर का भय नहीं मानता।” (सभोपदेशक ८:१२, १३, NHT) स्पष्ट रूप से, सुलैमान आश्‍वस्त था कि यदि हम ‘परमेश्‍वर का भय माने’ तो हमारा भला होगा। कितना भला? जो विषमता उसने की उसमें हम जवाब पा सकते हैं। यहोवा ‘हमारा जीवन-काल बढ़ा’ सकता है।

१८ वे जो अभी अपेक्षाकृत रूप से युवा हैं उन्हें ख़ास तौर पर इस पूर्णतया विश्‍वसनीय सच्चाई पर विचार करना चाहिए कि यदि वे परमेश्‍वर का भय मानेंगे तो उनका भला होगा। जैसा कि शायद आपने व्यक्‍तिगत रूप से देखा हो, सबसे तेज़ भागनेवाला ठोकर खा सकता है और दौड़ में हार सकता है। एक शक्‍तिशाली सेना पराजित हो सकती है। एक चतुर व्यवसायी निर्धन हो सकता है। और अनेक अन्य अनिश्‍चितताएँ जीवन को ऐसा बना सकती हैं जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन आप इस बात के विषय में पूर्णतया निश्‍चित हो सकते हैं: सबसे बुद्धिमत्ता और निश्‍चितता का मार्ग यह है कि परमेश्‍वर के नैतिक नियमों के अधीन और उसकी इच्छा के अनुसार अच्छा काम करते हुए जीवन का आनन्द उठाना। (सभोपदेशक ९:११) इसमें बाइबल से परमेश्‍वर की इच्छा क्या है यह सीखना, अपने जीवन को उसे समर्पित करना, और एक बपतिस्मा-प्राप्त मसीही बनना शामिल है।—मत्ती २८:१९, २०.

१९. युवा अपने जीवन को कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन बुद्धिमानी का मार्ग क्या है?

१९ सृष्टिकर्ता युवाओं या दूसरों को उसके निर्देशनों का पालन करने के लिए ज़बरदस्ती नहीं करेगा। वे ख़ुद को शिक्षा में तल्लीन कर सकते हैं, संभवतः अनगिनत मानवी ज्ञान की पुस्तकों के आजीवन विद्यार्थी बनकर भी। जो आख़िरकार शरीर के लिए कष्टदायक साबित होगा। या वे अपने अपरिपूर्ण मानव हृदय के मार्गों पर चल सकते हैं या अपनी आँखों की चाहत के पीछे भाग सकते हैं। यह निश्‍चित रूप से मुसीबत लाएगा, और इस प्रकार बिताया गया जीवन आगे चलकर व्यर्थ साबित होगा। (सभोपदेशक ११:९-१२:१२; १ यूहन्‍ना २:१५-१७) सो सुलैमान युवाओं से एक अपील करता है—एक ऐसी अपील जिस पर हम सभी को गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए चाहे हमारी उम्र जो भी हो: “अपनी जवानी के दिनों में अपने सृजनहार को स्मरण रख, इस से पहिले कि विपत्ति के दिन और वे वर्ष आएं, जिन में तू कहे कि मेरा मन इन में नहीं लगता।”—सभोपदेशक १२:१.

२०. सभोपदेशक के सन्देश का संतुलित दृष्टिकोण क्या है?

२० तब हम क्या निष्कर्ष निकालें? उस निष्कर्ष के बारे में क्या जिस पर सुलैमान पहुँचा था? ‘सूर्य के नीचे किए जानेवाले सब कामों को’ उसने देखा और उनकी जाँच की, “देखो वे सब व्यर्थ और मानो वायु को पकड़ना है।” (सभोपदेशक १:१४) सभोपदेशक की पुस्तक में हम किसी सनकी या एक असंतुष्ट व्यक्‍ति के शब्द नहीं पाते। वे परमेश्‍वर के उत्प्रेरित वचन का भाग हैं और हमारे ध्यान के योग्य हैं।

२१, २२. (क) जीवन के किन पहलुओं पर सुलैमान ने विचार किया? (ख) कौन-से बुद्धिमत्तापूर्ण निष्कर्ष पर वह पहुँचा? (ग) सभोपदेशक की बातों की जाँच ने आपको कैसे प्रभावित किया है?

२१ सुलैमान ने मानव परिश्रम, संघर्षों, और महत्त्वकांक्षाओं का जायज़ा लिया। उसने विचार किया कि जीवन के सामान्य दौर में मामलों का अन्त किस प्रकार होता है, वह निराशाजनक और खोखला परिणाम जिसका अनेक मनुष्य अनुभव करते हैं। उसने मानव अपरिपूर्णता और उससे परिणित होनेवाली मृत्यु की वास्तविकता पर ध्यान दिया। और उसने मृतकों की दशा के बारे में परमेश्‍वर-प्रदत ज्ञान और किसी भी भावी जीवन की प्रत्याशा पर ध्यान दिया और उसे शामिल किया। यह सब एक ऐसे मनुष्य द्वारा जाँचा गया था जिसके पास परमेश्‍वर द्वारा बढ़ायी गई बुद्धि थी, जी हाँ, सबसे बुद्धिमान मनुष्यों में से एक। फिर जिस निष्कर्ष पर वह पहुँचा था उसे उन सभी के लाभ के लिए जो एक सचमुच अर्थपूर्ण जीवन की इच्छा रखते हैं, पवित्र शास्त्र में लेखबद्ध कराया गया। क्या हमें सहमत नहीं होना चाहिए?

२२ “सब कुछ सुना गया; अन्त की बात यह है कि परमेश्‍वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं का पालन कर; क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण कर्त्तव्य यही है। क्योंकि परमेश्‍वर सब कामों और सब गुप्त बातों का, चाहे वे भली हों या बुरी, न्याय करेगा।”—सभोपदेशक १२:१३, १४.

[फुटनोट]

a प्रहरीदुर्ग (अंग्रेज़ी) ने एक बार यह अन्तर्दृष्टि-भरी टिप्पणी की थी: “हमें यह जीवन व्यर्थ बातों में गँवाना नहीं चाहिए . . . यदि यही जीवन सब कुछ है, तो कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं। यह जीवन उस गेंद के समान है जिसे हवा में फेंका जाता है और जल्द ही वह मिट्टी में दोबारा गिर जाती है। यह एक भागती छाया, एक मुर्झाता फूल, ऐसी घास का एक तिनका है जो कटने और जल्दी सूखने पर हो। . . . अनन्तता के पैमाने पर हमारा जीवन काल एक नगण्य कण के समान है। समय की धारा में यह एक पूरी बूँद भी नहीं है। निश्‍चित रूप से [सुलैमान] सही है जब वह अनेक मानव चिन्ताओं और गतिविधियों पर पुनर्विचार करता है और उन्हें व्यर्थ घोषित करता है। हम इतनी जल्दी चले जाते हैं कि आए ही न होते तो अच्छा था, आने और जानेवाले अरबों में से एक, और इतने थोड़े लोग ही जानते हैं कि हम कभी यहाँ पर थे भी। यह दृष्टिकोण निन्दक या निराशाजनक या रूखा अथवा विकृत नहीं है। यह एक सच्चाई है, वास्तविकता, एक व्यावहारिक दृष्टिकोण, यदि यही जीवन सब कुछ है।”—अगस्त १, १९५७, पृष्ठ ४७२.

क्या आपको याद है?

◻ आपके जीवन में सम्पत्ति की भूमिका की बुद्धिमत्तापूर्ण जाँच क्या है?

◻ हमें परिवार, कीर्ति, या दूसरों के ऊपर प्रभुत्व पर बेहद ज़ोर क्यों नहीं देना चाहिए?

◻ आनन्द मनाने के बारे में कौन-सी ईश्‍वरीय मनोवृत्ति को सुलैमान ने प्रोत्साहित किया?

◻ सभोपदेशक की पुस्तक पर विचार करने से आपने कैसे लाभ उठाया है?

[पेज 15 पर तसवीरें]

पैसा और सम्पत्ति संतुष्टि की गारंटी नहीं देते

[पेज 17 पर तसवीर]

युवा लोग इस बात से निश्‍चित हो सकते हैं कि यदि वे परमेश्‍वर का भय मानते हैं तो उनका भला होगा

    हिंदी साहित्य (1972-2025)
    लॉग-आउट
    लॉग-इन
    • हिंदी
    • दूसरों को भेजें
    • पसंदीदा सेटिंग्स
    • Copyright © 2025 Watch Tower Bible and Tract Society of Pennsylvania
    • इस्तेमाल की शर्तें
    • गोपनीयता नीति
    • गोपनीयता सेटिंग्स
    • JW.ORG
    • लॉग-इन
    दूसरों को भेजें