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  • यीशु—एक वाद-विवाद का केन्द्र

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  • यीशु—एक वाद-विवाद का केन्द्र
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यीशु का जीवन और सेवकाई

यीशु​—एक वाद-विवाद का केन्द्र

शिमौन के यहाँ अतिथि सत्कार के पश्‍चात, यीशु, गलील का अपना दूसरा प्रचार अभियान प्रारम्भ करता है। इस क्षेत्र के अपने पहले दौरे में यीशु के साथ उसके प्रथम शिष्य, पतरस, अन्द्रियास, याकूब और यूहन्‍ना थे। परन्तु अब १२ प्रेरित और कुछ स्त्रियाँ उसके साथ थे। इनमें मरियम मगदलीनी, सुसान और जोअन, जिसका पति राजा हेरोद का एक अधिकारी था शामिल थी।

जैसे यीशु की सेवकाई का दायरा बढ़ता है वै

से ही उसकी गतिविधियों के लिए विवाद भी बढ़ता जाता है। एक मनुष्य जिसमें दुष्टात्मा थी और जो गूंगा और अंधा था यीशु के पास लाया गया। यीशु ने उसे अच्छा किया ताकि वह दुष्टात्मा से घूट जाये और बोलने व देखने लगे। इस पर भीड़ चकित हो गई और वे कहने लगे: “क्या यह दाऊद की सन्तान का है?”

जहाँ यीशु ठहरा था उस घर के आसपास भीड़ ऐसी एकत्रित हो गई कि वह और उसके चेले भोजन भी नहीं कर सके। उसे “दाऊद का पुत्र” समझने वाले लोगों के अलावा, वहाँ शास्त्री और फरीसी भी थे जो यरूशलेम से वहाँ इसलिये आये थे कि उसकी निन्दा कर सकें। उसके बारे में हो रहा होहल्ला सुनकर उसके सम्बन्धि उसे लेने आये। किस कारण से?

क्योंकि स्वयं यीशु के भाई भी यह विश्‍वास नहीं करते थे कि वह परमेश्‍वर का पुत्र है। लोगों का आक्रोश और झगड़े भी एक कारण थे क्योंकि जैसा उसे वे नासरत में जानते थे, वह यीशु के इस चरित्र के एकदम विपरीत था। इसलिये वे विश्‍वास करते थे कि यीशु मानसिक रूप से अस्वस्थ है। “वे कहते थे कि उसका चित्त ठिकाने नहीं है।” अतः वे उसे पकड़कर वहाँ से दूर ले जाना चाहते थे।

तौभी यह प्रमाण स्पष्ट था कि यीशु ने दुष्टात्मा से पीड़ित व्यक्‍ति को चंगा किया था। शास्त्री और फरीसी जानते थे कि वे इसकी वास्तविकता और साथ ही साथ यीशु के अन्य चमत्कारों का भी इन्कार नहीं कर सकते थे। अतः यीशु की निन्दा करने के लिये उन्होंने लोगों को कहा, “यह तो दुष्टात्माओं के सरदार शैतान की सहायता के बिना दुष्टात्माओं को नहीं निकालता।” उनके विचारों को जानकर यीशु ने शास्त्री व फरीसियों को बुलाया और कहा: “जिस किसी राज्य में फूट होती है वह उजड़ जाता है और कोई नगर या घराना जिस में फूट होती है बना न रहेगा। और यदि शैतान ही शैतान को निकाले तो वह अपना ही विरोधी हो गया है फिर उसका राज्य क्योंकर बना रहेगा?”

कितना विध्वंसकारी तर्क! चूंकि फरीसी दावा करते थे कि उन्हीं के वर्ग का एक व्यक्‍ति दुष्टात्माओं को निकालता था, यीशु ने यह भी पूछा: “भला यदि मैं शैतान की सहायता से दुष्टात्माओं को निकालता हूँ तो तुम्हारे वंश किस की सहायता से निकालते हैं?” दूसरे शब्दों में यीशु पर लगाया गया उनका आरोप उस की जगह उन पर ही लागू हो गया। तब यीशु ने चेतावनी दी “पर यदि मैं परमेश्‍वर के आत्मा की सहायता से दुष्टात्माओं को निकालता हूँ तो परमेश्‍वर का राज्य तुम्हारे पास आ पहुँचा है।”

यह समझाने के लिये कि उसका दुष्टात्माओं को निकालना शैतान के ऊपर उसकी सामर्थ का प्रमाण है, यीशु ने कहा: “कोई मनुष्य कैसे किसी बलवन्त के घर में घुसकर उसका माल लूट सकता, जब तक कि पहले उस बलवन्त कौन बांध ले? और तब वह उसका घर लूट लेगा। जो मेरे साथ नहीं वह मेरे विरोध में हैं और जो मेरे साथ नहीं बटोरता वह बियराता है।” स्पष्ट रूप से वे, यीशु के विरुद्ध खड़े होकर स्वयं को शैतान की सन्तान प्रदर्शित कर रहे थे। वे इस्राएलियों को उससे दूर कर रहे थे।

फलतः यीशु ने उन शैतानी विरोधियों को चेतावनी दी: “आत्मा की निन्दा क्षमा नहीं की जायेगी,” उसने व्याख्या की: “जो कोई मनुष्य के पुत्र के विरोध में कोई बात कहेगा उसका यह अपराध क्षमा किया जायेगा, परन्तु जो पवित्र आत्मा के विरोध में कुछ बात कहेगा उसका अपराध न तो इस रीति में और न आनेवाले रीति रिवाज़ में क्षमा होगा।” उन शास्त्री व फरीसियों ने विद्वेषपूर्णता से, परमेश्‍वर की पवित्र आत्मा द्वारा किये गये आश्‍चर्यकर्म को शैतान का बताकर अक्षम्य पाप किया था। मत्ती १२:२२-३२; मरकुस ३:१९-३०; यूहन्‍ना ७:५.

◆ यीशु की गलील के लिये दूसरी यात्रा पहली से भिन्‍न क्यों है?

◆ यीशु के रिश्‍तेदार उसे पकड़ना क्यों चाहते हैं?

◆ फरीसी यीशु के आश्‍चर्यकर्म की निन्दा कैसे करते हैं, और यीशु उनका खण्डन कैसे करता है?

◆ वे फरीसी किस बात के दोषी हैं और क्यों?

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