परमेश्वर पर आपका भरोसा कितना मज़बूत है?
“इसलिये पहिले तुम उसके राज्य . . . की खोज करो।”—मत्ती 6:33.
1, 2. नौकरी के सिलसिले में एक जवान ने क्या फैसला लिया, और क्यों?
एक मसीही जवान की बहुत तमन्ना थी कि वह अपनी कलीसिया की और ज़्यादा मदद करे। मगर उसके सामने एक रुकावट थी। उसकी नौकरी ऐसी थी कि वह सभाओं में लगातार जा नहीं पा रहा था। उसने इस रुकावट को कैसे पार किया? उसने अपनी ज़िंदगी को सादा किया और नौकरी से इस्तीफा दे दिया। थोड़े समय बाद, उसे एक ऐसी नौकरी मिली जो उसके मसीही कामों में आड़े नहीं आयी। आज भले ही यह जवान पहले जितना नहीं कमा रहा है, मगर वह अपने परिवार की देखभाल कर पा रहा है और कलीसिया में पहले से ज़्यादा मदद दे रहा है।
2 क्या आप समझ सकते हैं कि इस जवान ने अपनी ज़िंदगी में ऐसे फेर-बदल क्यों किए? अगर आप भी कुछ इस तरह के हालात में होते, तो क्या यही फैसला करते? कई मसीहियों ने इस जवान की तरह फैसले किए हैं जो कि तारीफ के काबिल है। ऐसा करके उन्होंने यीशु के इस वादे पर भरोसा दिखाया है: “इसलिये पहिले तुम उसके राज्य और धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएं भी तुम्हें मिल जाएंगी।” (मत्ती 6:33) उन्होंने दुनिया पर भरोसा रखने के बजाय, यहोवा पर अपना भरोसा रखा है कि वह उनकी देखभाल करेगा।—नीतिवचन 3:23, 26.
3. कुछ लोग ऐसा क्यों सोच सकते हैं कि आज के ज़माने में राज्य को पहली जगह देना समझदारी होगी या नहीं?
3 आज हम जिस मुश्किल वक्त में जी रहे हैं, उसे देखते हुए शायद कुछ लोग सोचें कि क्या उस जवान ने समझदारी का काम किया है। आज जहाँ दुनिया की आबादी का एक हिस्सा घोर तंगहाली में जी रहा है, वहीं बाकी लोग ऐसी सुख-सुविधाओं का मज़ा ले रहे हैं जिनके बारे में पहले कभी लोगों ने ख्वाब में भी नहीं सोचा था। गरीब देशों में लोगों का यह हाल है कि उन्हें अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाने का चाहे जो भी मौका मिले, उसे वे फौरन झपट लेते हैं। दूसरी तरफ, अमीर देशों में कई लोगों को अपने रहन-सहन का स्तर बनाए रखने की चिंता दिन-रात खाए जाती है, क्योंकि उनके यहाँ की आर्थिक हालत में अचानक कभी-भी बदलाव आ सकता है, नौकरी कब छूट जाए इसका कोई ठिकाना नहीं रहता और काम की जगह मालिक उनका खून चूसते हैं। आज जब ज़िंदगी का गुज़ारा करने के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़ रही है, तो ऐसे में शायद कुछ लोग सोचें कि ‘क्या आज के ज़माने में भी राज्य को ज़िंदगी में पहली जगह देना समझदारी होगी?’ इस सवाल का जवाब जानने के लिए, ध्यान दीजिए कि यीशु ने राज्य को पहली जगह देने की बात किन लोगों से कही थी।
“चिन्ता न करना”
4, 5. यीशु ने किस तरह दृष्टांत देकर समझाया कि अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को लेकर हद-से-ज़्यादा परेशान न होना, परमेश्वर के लोगों के लिए समझदारी है?
4 यीशु गलील में लोगों के एक बड़े झुंड से बात कर रहा था जो अलग-अलग जगहों से आए थे। (मत्ती 4:25) इस भीड़ में गिने-चुने लोगों को छोड़ ज़्यादातर गरीब थे। फिर भी, यीशु ने उनसे गुज़ारिश की कि वे धन-दौलत के पीछे भागने के बजाय आध्यात्मिक धन इकट्ठा करने में मेहनत लगाएँ, क्योंकि यह ज़्यादा मोल रखता है। (मत्ती 6:19-21, 24) उसने कहा: “अपने प्राण के लिये यह चिन्ता न करना कि हम क्या खाएंगे? और क्या पीएंगे? और न अपने शरीर के लिये कि क्या पहिनेंगे? क्या प्राण भोजन से, और शरीर वस्त्र से बढ़कर नहीं?”—मत्ती 6:25.
5 भीड़ में बैठे कई लोगों को शायद लगा हो कि इस सलाह पर चलना नामुमकिन है। उन्हें पता था कि अगर वे मेहनत नहीं करेंगे तो उनके बाल-बच्चे भूखे मर जाएँगे। मगर यीशु अपनी बात समझाने के लिए परिंदों की तरफ उनका ध्यान खींचता है। वह कहता है कि परिंदों को हर दिन अपने लिए दाने का जुगाड़ करना पड़ता है और बसेरा ढूँढ़ना पड़ता है। मगर यहोवा इस बात का ध्यान रखता है कि उनकी ज़रूरतें पूरी हों। फिर यीशु बताता है कि यहोवा कैसे जंगली फूलों का खयाल रखता है, जिनकी खूबसूरती सुलैमान के उन वस्त्रों से कहीं बढ़कर है जो उसने अपने पूरे वैभव में पहने थे। अगर यहोवा परिंदों और फूलों की देखभाल करता है, तो सोचिए वह हमारी और भी कितनी देखभाल करेगा? (मत्ती 6:26-30) जैसे यीशु ने कहा था, हमारा जीवन (प्राण) भोजन से बढ़कर है जो हम इसलिए खरीदते हैं कि खाकर ज़िंदा रह सकें, और शरीर कपड़ों से बढ़कर है जो हम तन ढकने के लिए खरीदते हैं। अगर हम खाने-पहनने की ज़रूरतें पूरी करने में ही सारी ज़िंदगी लगा दें, तो हमारे पास यहोवा की सेवा के लिए न समय बचेगा, ना ताकत। फिर तो हमारे जीने का कोई मकसद ही नहीं रहेगा।—सभोपदेशक 12:13.
सही तालमेल बिठाना
6. (क) मसीहियों पर क्या ज़िम्मेदारी है? (ख) मसीही अपना पूरा भरोसा किस पर रखते हैं?
6 बेशक, यीशु अपने सुननेवालों से यह नहीं कह रहा था कि वे अपना काम-धंधा छोड़ दें और बस हाथ-पर-हाथ धरे इस इंतज़ार में बैठे रहें कि यहोवा किसी तरह उनके परिवार के लिए रोटी-कपड़े और हर चीज़ का बंदोबस्त कर देगा। यीशु ने बताया था कि परिंदों को भी अपने लिए और अपने बच्चों के लिए खाना ढूँढ़ने जाना पड़ता है। तो शुरू के उन मसीहियों को भी रोज़ी-रोटी के लिए काम करना ज़रूरी था। अपने परिवार की देखभाल करना उनकी ज़िम्मेदारी थी। जो मसीही दूसरों के यहाँ काम करते या उनके दास थे, उन्हें अपने मालिकों के लिए जी-जान लगाकर मेहनत करनी थी। (2 थिस्सलुनीकियों 3:10-12; 1 तीमुथियुस 5:8; 1 पतरस 2:18) प्रेरित पौलुस अपना गुज़ारा करने के लिए अकसर तंबू बनाने का काम करता था। (प्रेरितों 18:1-4; 1 थिस्सलुनीकियों 2:9) लेकिन गौरतलब है कि उन मसीहियों ने नौकरी को कभी अपना आसरा नहीं बनाया, बल्कि यहोवा पर भरोसा रखा कि वह उनकी देखभाल करेगा। इसलिए, उन्होंने ऐसी अंदरूनी शांति का एहसास किया जिससे दूसरे अनजान थे। वाकई, भजनहार ने ठीक ही कहा है: “जो यहोवा पर भरोसा रखते हैं, वे सिय्योन पर्वत के समान हैं, जो टलता नहीं, वरन सदा बना रहता है।”—भजन 125:1.
7. जो इंसान यहोवा पर अपना पूरा भरोसा नहीं रखता, उसका क्या नज़रिया हो सकता है?
7 अगर एक इंसान ने अपना पूरा भरोसा यहोवा पर नहीं रखा है, तो उसका नज़रिया एकदम अलग हो सकता है। आज ज़्यादातर लोग मानते हैं कि सुरक्षित भविष्य के लिए पैसा कमाना बहुत ज़रूरी है। इसलिए कई माता-पिताओं ने अपने बच्चों को ऊँची पढ़ाई के लिए जाने का बढ़ावा दिया है। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे अपनी जवानी के ज़्यादा-से-ज़्यादा साल पढ़ाई में लगाएँ, ताकि उन्हें मोटी तनख्वाहवाली नौकरियाँ मिलें। मगर दुःख की बात है कि कुछ मसीही माता-पिताओं को ऐसा करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी है, क्योंकि उनके बच्चों का ध्यान आध्यात्मिक बातों से हट गया है और वे ऐशो-आराम की खोज में लग गए हैं।
8. मसीही अपने जीवन में कैसा तालमेल बनाए रखते हैं?
8 इसलिए समझदार मसीही जानते हैं कि यीशु की सलाह को मानना आज भी उतना ही फायदेमंद है जितना पहली सदी में था। और वे नौकरी-धंधे और आध्यात्मिक कामों के बीच सही तालमेल बनाए रखने की कोशिश करते हैं। हो सकता है, उन्हें परमेश्वर से मिली परिवार की ज़िम्मेदारियाँ निभाने के लिए नौकरी में ज़्यादा घंटे बिताने पड़ें। फिर भी वे नौकरी की वजह से आध्यात्मिक बातों को दाँव पर नहीं लगाते, जो कि सबसे ज़्यादा अहमियत रखती हैं।—सभोपदेशक 7:12.
“चिन्ता न करो”
9. जो यहोवा पर पूरा भरोसा रखते हैं, उन्हें यीशु ने क्या कहकर हिम्मत दिलायी?
9 यीशु ने अपने पहाड़ी उपदेश में ज़ोर देकर बताया था: “तुम चिन्ता करके यह न कहना, कि हम क्या खाएंगे, या क्या पीएंगे, या क्या पहिनेंगे? क्योंकि अन्यजाति इन सब वस्तुओं की खोज में रहते हैं [“इन सब वस्तुओं के पीछे दौड़ते रहते हैं,” ईज़ी-टू-रीड वर्शन] और तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है, कि तुम्हें ये सब वस्तुएं चाहिए।” (मत्ती 6:31, 32) यीशु की इस बात से हमें कितनी हिम्मत मिलती है! अगर हम अपना पूरा भरोसा यहोवा पर रखें तो वह हमेशा हमारी मदद करेगा। मगर, यीशु ने जो कहा उसमें एक गंभीर बात भी है। वह यह कि अगर हम खाने-पहनने की चीज़ों के पीछे ‘दौड़ते रहें’ तो हमारी सोच भी “अन्यजाति” के लोगों यानी दुनियावी लोगों की तरह बन जाएगी, जो सच्चे मसीही नहीं हैं।
10. जब एक नौजवान यीशु से सलाह लेने आया, तो यीशु ने कैसे ज़ाहिर किया कि उस जवान को किस चीज़ से ज़्यादा लगाव है?
10 एक बार यीशु के पास एक नौजवान आया जो बहुत अमीर था, और उसने पूछा कि उसे हमेशा की ज़िंदगी पाने के लिए क्या करना चाहिए। यीशु ने उसे व्यवस्था की वे माँगें पूरी करने के लिए कहा जो उस ज़माने में भी लागू थीं। तब उस नौजवान ने पूरे यकीन के साथ यीशु से कहा: “इन सब को तो मैं ने माना है अब मुझ में किस बात की घटी है?” इस पर यीशु ने एक ऐसी सलाह दी जिसे मानना शायद कई लोगों को कारगर नहीं लगता था। उसने कहा: “यदि तू सिद्ध होना चाहता है; तो जा, अपना माल बेचकर कंगालों को दे; और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा; और आकर मेरे पीछे हो ले।” (मत्ती 19:16-21) यीशु की इस बात से वह नौजवान दुःखी होकर चला गया क्योंकि उसे अपनी दौलत को अलविदा कहना मंज़ूर नहीं था। इसमें शक नहीं कि उस नौजवान को यहोवा से प्यार था, मगर उसे यहोवा से भी ज़्यादा अपनी धन-संपत्ति से लगाव था।
11, 12. (क) यीशु ने धन-दौलत के बारे में कौन-सी गंभीर चेतावनी दी? (ख) धन-संपत्ति कैसे यहोवा की सेवा करने में रुकावट बन सकती है?
11 इसी वाकये को ध्यान में रखते हुए यीशु ने यह चौंका देनेवाली बात कही: “धनवान का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना कठिन है। . . . परमेश्वर के राज्य में धनवान के प्रवेश करने से ऊंट का सूई के नाके में से निकल जाना सहज है।” (मत्ती 19:23, 24) क्या यीशु के कहने का यह मतलब था कि कोई भी अमीर आदमी राज्य का वारिस नहीं हो सकता? ऐसी बात नहीं है, क्योंकि उसने आगे कहा था: “परमेश्वर से सब कुछ हो सकता है।” (मत्ती 19:25, 26) वाकई, उस ज़माने में भी कुछ रईस लोग परमेश्वर की मदद से अभिषिक्त मसीही बने थे जिससे उन्हें राज्य के वारिस होने का मौका मिला। (1 तीमुथियुस 6:17) फिर भी, यीशु ने धनवानों के बारे में जो चौंका देनेवाली बात कही, उसके पीछे एक वाजिब कारण था। दरअसल, यीशु एक चेतावनी दे रहा था।
12 उस नौजवान की तरह अगर एक इंसान को अपनी धन-संपत्ति से लगाव हो जाए, तो वह पूरे दिल से यहोवा की सेवा नहीं कर पाएगा, क्योंकि दौलत उसके लिए एक रुकावट बन जाएगी। ऐसा उन लोगों के साथ भी हो सकता है जो पहले से धनवान हैं और उन लोगों के साथ भी, जो “धनी होना चाहते हैं।” (1 तीमुथियुस 6:9, 10) दौलत पर हद-से-ज़्यादा भरोसा रखने से एक इंसान ‘अपनी आध्यात्मिक ज़रूरतों के प्रति सचेत रहने’ के बजाय सुस्त हो सकता है। (मत्ती 5:3, NW) नतीजा, उसे शायद यहोवा की मदद की इतनी ज़रूरत महसूस न हो जितनी वह पहले महसूस करता था। (व्यवस्थाविवरण 6:10-12) यहाँ तक कि उसे लग सकता है कि वह कलीसिया में खास इज़्ज़त पाने का हकदार है। (याकूब 2:1-4) और हो सकता है कि यहोवा की सेवा के बजाय, उसका ज़्यादातर वक्त ऐशो-आराम का लुत्फ उठाने में निकल जाए।
सही नज़रिया पैदा कीजिए
13. लौदीकिया की कलीसिया ने कौन-सा गलत नज़रिया पैदा कर लिया रखा था?
13 पहली सदी में, धन-दौलत के बारे में गलत नज़रिया रखनेवालों में से एक थी लौदीकिया की कलीसिया। यीशु ने उनसे कहा: “तू जो कहता है, कि मैं धनी हूं, और धनवान हो गया हूं, और मुझे किसी वस्तु की घटी नहीं, और यह नहीं जानता, कि तू अभागा और तुच्छ और कंगाल और अन्धा, और नङ्गा है।” लौदीकिया की कलीसिया की आध्यात्मिक हालत इतनी खराब होने की वजह उनकी धन-दौलत नहीं थी, बल्कि यह थी कि वे यहोवा के बजाय अपनी दौलत पर भरोसा रखने लगे थे। अंजाम, वे आध्यात्मिक बातों में इतने गुनगुने हो गए थे कि बहुत जल्द यीशु उन्हें अपने “मुंह में से उगलने” पर था।—प्रकाशितवाक्य 3:14-17.
14. इब्रानी मसीही क्यों पौलुस से तारीफ पाने के लायक थे?
14 दूसरी तरफ, इब्रानी मसीहियों ने इस मामले में अच्छी मिसाल पेश की थी। एक वक्त जब उन पर ज़ुल्म ढाए गए थे, तब उन्होंने धन-दौलत की तरफ सही नज़रिया बनाए रखा। इसलिए पौलुस उनकी तारीफ में कहता है: “तुम कैदियों के दुख में भी दुखी हुए, और अपनी संपत्ति भी आनन्द से लुटने दी; यह जानकर, कि तुम्हारे पास एक और भी उत्तम और सर्वदा ठहरनेवाली संपत्ति है।” (इब्रानियों 10:34) जब उन इब्रानी मसीहियों की संपत्ति लूट ली गयी, तो वे गम के मारे मायूस नहीं हो गए। इसके बजाय, उन्होंने अपनी खुशी बरकरार रखी, क्योंकि उन्हें एक और किस्म की संपत्ति से गहरा लगाव था, जो उनकी “उत्तम और सर्वदा ठहरनेवाली संपत्ति” थी। जिस तरह यीशु के एक दृष्टांत के व्यापारी ने एक बहुमूल्य मोती को पाने के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया था, उसी तरह उन इब्रानी मसीहियों ने ठान लिया था कि वे हर हाल में राज्य की आशा को थामे रहेंगे, फिर चाहे उन्हें कितनी ही भारी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। (मत्ती 13:45, 46) वाकई, कितना बढ़िया नज़रिया था उनका!
15. लाइबेरिया में एक जवान मसीही बहन ने किस तरह राज्य को पहली जगह दी?
15 आज भी बहुत-से मसीहियों ने ऐसा बढ़िया नज़रिया पैदा किया है। मिसाल के लिए, लाइबेरिया में एक जवान मसीही बहन के आगे यूनीवर्सिटी की पढ़ाई करने की पेशकश रखी गयी। इस देश में माना जाता है कि ऐसी पेशकश मिल गयी तो समझो एक इंसान की ज़िंदगी बन गयी। मगर यह बहन एक पायनियर थी, इसलिए उसे थोड़े समय के लिए खास पायनियर सेवा करने का मौका मिला था। तो बहन ने राज्य को पहली जगह देने का चुनाव किया और ऊँची पढ़ाई के लिए जाने के बजाय पूरे समय की सेवा को जारी रखा। जहाँ यह बहन खास पायनियर सेवा के लिए गयी, वहाँ उसने तीन महीनों के अंदर 21 बाइबल अध्ययन शुरू किए। इस जवान बहन ने और उसके जैसे हज़ारों भाई-बहनों ने पैसा-शोहरत कमाने के मौके ठुकराकर राज्य को पहली जगह दी है। ऐशो-आराम के पीछे भागनेवाली इस दुनिया में रहते हुए भी ये भाई-बहन सही नज़रिया कैसे बनाए रख पाते हैं? इसकी वजह यह है कि उन्होंने अपने अंदर कई अच्छे गुण पैदा किए हैं। आइए इनमें से कुछ गुणों पर चर्चा करें।
16, 17. (क) यहोवा पर भरोसा रखने के लिए अपनी मर्यादा में रहना क्यों ज़रूरी है? (ख) हमें यहोवा के वादों पर भरोसा क्यों पैदा करना चाहिए?
16 मर्यादा: बाइबल कहती है: “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण करके सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा। अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न होना।” (नीतिवचन 3:5-7) कभी-कभी, दुनिया के नज़रिए से देखें तो एक रास्ता सही लग सकता है। (यिर्मयाह 17:9) लेकिन एक सच्चा मसीही, यहोवा से मार्गदर्शन लेता है। (भजन 48:14) अपनी मर्यादा या हद पहचानते हुए वह अपने ‘सब कामों में’ यहोवा की सम्मति या सलाह लेता है, फिर चाहे वह कलीसिया के मामले हों, या पढ़ाई, नौकरी, मनोरंजन या कोई और बात हो।—भजन 73:24.
17 यहोवा के वादों पर भरोसा: पौलुस ने कहा था: “परमेश्वर के पास आनेवाले को विश्वास करना चाहिए, कि वह है; और अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है।” (इब्रानियों 11:6) अगर हम यहोवा के वादों पर शक करने लगें, तो हमें ‘संसार का उपभोग करने में लिप्त हो जाना’ सही लग सकता है। (1 कुरिन्थियों 7:31, NHT) लेकिन यहोवा पर विश्वास मज़बूत होने से हम ठान लेंगे कि हालात चाहे जैसे भी हों, हम राज्य को पहली जगह देंगे। हम ऐसा मज़बूत विश्वास कैसे पैदा कर सकते हैं? अगर हम लगातार सच्चे दिल से प्रार्थना करने और नियमित तौर पर निजी अध्ययन करने के ज़रिए यहोवा के करीब आएँगे तो हमारा विश्वास मज़बूत होगा। (भजन 1:1-3; फिलिप्पियों 4:6, 7; याकूब 4:8) तब हम भी राजा दाऊद की तरह यहोवा से यह प्रार्थना कर सकेंगे: “हे यहोवा मैं ने तो तुझी पर भरोसा रखा है, मैं ने कहा, तू मेरा परमेश्वर है। आहा, तेरी भलाई क्या ही बड़ी है!”—भजन 31:14, 19.
18, 19. (क) मेहनत करने से यहोवा पर हमारा भरोसा कैसे मज़बूत होता है? (ख) एक मसीही को क्यों त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए?
18 यहोवा की सेवा में कड़ी मेहनत: पौलुस ने दिखाया कि यहोवा के वादों पर भरोसा रखने और मेहनत करने के बीच नाता है। उसने लिखा: “हम बहुत चाहते हैं, कि तुम में से हर एक जन अन्त तक पूरी आशा के लिये ऐसा ही प्रयत्न करता रहे।” (इब्रानियों 6:11) अगर हम यहोवा की सेवा में व्यस्त रहेंगे, तो अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में वह हमारी मदद करेगा। और जब भी हम यहोवा से मदद पाएँगे, तो उस पर हमारा भरोसा और भी बढ़ेगा। हम सच्चाई में “दृढ़ और अटल” रहेंगे। (1 कुरिन्थियों 15:58) इस तरह हमारा विश्वास मज़बूत और हमारी आशा पक्की होती जाएगी।—इफिसियों 3:16-19.
19 त्याग करने के लिए तैयार रहना: पौलुस ने यीशु के नक्शेकदम पर चलने के लिए, एक ऐसे करियर को त्याग दिया जिससे वह काफी मशहूर हो सकता था। इस वजह से भले ही उसे कभी-कभी तंगी झेलनी पड़ी, मगर उसने जो फैसला किया था वह बिलकुल सही था। (1 कुरिन्थियों 4:11-13) यहोवा ने यह वादा नहीं किया है कि उसके सेवक ऐशो-आराम की ज़िंदगी बिताएँगे, इसलिए कभी-कभी उसके सेवकों को मुश्किल हालात का सामना करना पड़ता है। अगर हम अपनी ज़िंदगी को सादा बनाए रखेंगे और त्याग करने के लिए तैयार रहेंगे, तो साबित कर पाएँगे कि यहोवा की सेवा करने का हमारा इरादा कितना मज़बूत है।—1 तीमुथियुस 6:6-8.
20. जो अपने जीवन में राज्य के कामों को पहली जगह देता है, उसके लिए धीरज धरना क्यों ज़रूरी है?
20 धीरज: शिष्य याकूब ने अपने साथी मसीहियों से गुज़ारिश की थी: “सो हे भाइयो, प्रभु के आगमन तक धीरज धरो।” (याकूब 5:7) इस भाग-दौड़वाली दुनिया में धीरज से काम लेना बहुत मुश्किल है। हम चाहते हैं कि हर काम फटाफट हो। मगर पौलुस हमसे गुज़ारिश करता है कि हमें उन लोगों की तरह बनना है “जो विश्वास और धीरज के द्वारा प्रतिज्ञाओं के वारिस होते हैं।” (इब्रानियों 6:12) इसलिए यहोवा के ठहराए वक्त का खुशी-खुशी इंतज़ार कीजिए। एक खूबसूरत फिरदौस में हमेशा की ज़िंदगी—वाकई एक ऐसा नायाब तोहफा है जिसके लिए इंतज़ार करना हर तरह से वाजिब है!
21. (क) अपने जीवन में राज्य को पहली जगह देकर हम क्या दिखाते हैं? (ख) अगले लेख में किस बात पर चर्चा की जाएगी?
21 जी हाँ, राज्य को पहली जगह देने की यीशु की सलाह को मानना सचमुच समझदारी है। ऐसा करके हम दिखाते हैं कि हमें यहोवा पर पूरा-पूरा भरोसा है और ज़िंदगी का वह रास्ता चुनते हैं जिस पर चलने से ही सच्ची सुरक्षा मिल सकती है। मगर, यीशु ने यह सलाह भी दी थी कि ‘तुम पहले परमेश्वर की धार्मिकता की खोज में लगे रहो।’ (NHT) अगले लेख में हम देखेंगे कि आज के ज़माने में इस सलाह को मानना क्यों खास तौर से ज़रूरी है।
क्या आप समझा सकते हैं?
• खाने-पहनने की चीज़ों के मामले में, यीशु ने हमें कैसा तालमेल बनाए रखने का बढ़ावा दिया?
• यीशु ने ऊँट और सूई के नाके का जो दृष्टांत बताया था, उससे हम क्या सीखते हैं?
• पहले परमेश्वर के राज्य की खोज करने में कौन-से मसीही गुण हमारी मदद कर सकते हैं?
[पेज 21 पर तसवीर]
यीशु का उपदेश सुननेवाली भीड़ में ज़्यादातर गरीब थे
[पेज 23 पर तसवीर]
उस अमीर नौजवान को यहोवा से ज़्यादा अपनी संपत्ति से लगाव था
[पेज 23 पर तसवीर]
यीशु के दृष्टांत में व्यापारी ने एक बहुमूल्य मोती पाने के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया था
[पेज 24 पर तसवीर]
अगर हम यहोवा की सेवा में व्यस्त रहेंगे तो अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में वह हमारी मदद करेगा