बड़े-बड़े कामों के द्वार पर खड़े
“किसी में भी दूसरों से आगे निकल जाने की भावना नहीं थी। सभी चाहते थे कि सभी सफल हों,” यूँ रिचर्ड व लूसीआ ने वॉचटावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड की १०५वीं कक्षा के अपने साथियों के बारे में कहा। उन्होंने आगे कहा, “हम सब के व्यक्तित्व बहुत ही अलग हैं, लेकिन फिर भी हमारे लिए हर एक विद्यार्थी अनमोल है।” कक्षा के एक और साथी लोएल की भी यही राय है। वह कहता है: “हमारे इसी अलग-अलग व्यक्तित्व की वज़ह से हमें एक दूसरे के करीब आए हैं।”
वाकई सितंबर १२, १९९८ के दिन ग्रैजुएट होनेवाली कक्षा के सभी विद्यार्थियों में कई फर्क थे। कुछ विद्यार्थी ऐसी जगहों में पायनियर-कार्य कर चुके थे जहाँ राज्य प्रकाशकों की बहुत ज़रूरत रही है, जबकि दूसरों ने अपने घर के नज़दीक ही वफादारी से कार्य किया था। मैट्स व रोज़-मेरी जैसे कुछ विद्यार्थियों को स्कूल के लिए हाज़िर होने से पहले अंग्रेज़ी भाषा का अपना ज्ञान बढ़ाने में काफी घंटे कड़ी मेहनत करनी पड़ी। कई विद्यार्थियों के दिल में बचपन से ही मिशनरी बनने की तमन्ना थी। एक दंपती ने तो गिलियड स्कूल में हाज़िर होने के लिए १२ बार अर्ज़ी भरी थी और जब उन्हें १०५वीं कक्षा में हाज़िर होने के लिए बुलाया गया तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा!
ज़बरदस्त ट्रेनिंग के २० हफ्ते मानो चुटकी बजाते ही बीत गए। विद्यार्थियों को पता भी न चला कि कब उन्होंने अपनी आखिरी लिखित परीक्षा और ओरल टैस्ट दे दिए और कब ग्रैजुएशन का वह दिन भी आ गया।
कार्यक्रम के अध्यक्ष ऐलबर्ट श्रोडर थे जो यहोवा के साक्षियों के शासी निकाय के सदस्य हैं। उन्होंने विद्यार्थियों को याद दिलाया कि उनके सामने “बाइबल शिक्षा के क्षेत्र में बड़े-बड़े कामों का द्वार खुला है।” और इस काम में उनसे पहले के करीब ७,००० गिलियड मिशनरी जुटे हुए हैं। भाई श्रोडर ने खासकर कहा कि इन गर्मियों के दौरान विद्यार्थियों को अनुभवी मिशनरियों से मिलने-जुलने का अनोखा अवसर मिला जिसका उन्होंने मज़ा उठाया। ये अनुभवी मिशनरी अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन के संबंध में विश्व मुख्यालय में आए हुए थे।
इसके बाद भाई श्रोडर ने बॆथेल ऑपरेशन्स कमीटी के मैक्स लारसन को बुलाया। उन्होंने “ऐसी शिक्षा जो अनंत जीवन की ओर ले जाती है” विषय पर बात की। भाई लारसन ने नीतिवचन १:५, (NHT) का हवाला दिया जिसमें लिखा है: “बुद्धिमान इन्हें सुनकर अपनी विद्या बढ़ाए, और समझदार व्यक्ति बुद्धिमानी का [कुशल] परामर्श प्राप्त करे।” मिशनरी कार्य में सफल होने के लिए कुशलता की ज़रूरत है। कुशल या निपुण व्यक्ति राजाओं के सामने खड़ा होता है। (नीतिवचन २२:२९) पाँच महीने ट्रेनिंग पाने के बाद, विद्यार्थी सबसे महान राजाओं, यहोवा परमेश्वर व मसीह यीशु के प्रतिनिधि होने के लिए अच्छी तरह से तैयार थे।
इसके बाद सर्विस डिपार्टमेंट के डेविड ओलसन ने “यहोवा के दिल को खुश करने के काम कीजिए” विषय पर बात की। उन्होंने सवाल किया: “असिद्ध इंसान परमेश्वर के दिल को खुश करने के लिए क्या कर सकता है?” और जवाब? वह वफादारी, निष्ठा और आनंद से उसकी सेवा कर सकता है। यहोवा चाहता है कि उसके लोग उसकी सेवा करने में आनंद पाएँ। जब हम खुशी-खुशी परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हैं, तो इससे उसका दिल खुश होता है। (नीतिवचन २७:११) भाई ओलसन ने एक खत पढ़ा जिसे १०४वीं कक्षा से ग्रैजुएट हुए एक मिशनरी दंपती ने लिखा था। क्या वे उस नयी जगह पर अपनी सेवकाई में खुश हैं? उन्होंने अपनी कलीसिया के बारे में लिखा, “हमारी कलीसिया में करीब १४० प्रकाशक हैं लेकिन मीटिंग में आम तौर पर २५० से ३०० लोग आते हैं। सबसे ज़्यादा मज़ा तो प्रचार काम में आता है। हम दोनों के पास चार-चार बाइबल स्टडी हैं और उनमें से कुछ लोग मीटिंग में भी आने लगे हैं।”
शासी निकाय के सदस्य लाइमॆन स्विंगल ने “रुककर आशीषों पर विचार करने का समय” विषय पर भाषण दिया। गिलियड की ट्रेनिंग से कई आशीषें मिली हैं। इससे विद्यार्थियों को अपना ज्ञान बढ़ाने में, यहोवा के संगठन के लिए कदरदानी बढ़ाने में, और नम्रता जैसे ज़रूरी गुणों को विकसित करने में मदद मिली है। भाई स्विंगल ने कहा: “यहाँ आकर उपदेश सुनने में काफी समय बिताने से हम और भी ज़्यादा नम्र हो जाते हैं। आप जब यहाँ से जाते हैं तब आप यहोवा का गुणगान करने के लिए और भी बेहतर रूप से काबिल होते हैं।”
अगला भाषण था “आपका आनंद कितना बड़ा है—फिर चिंता क्यों?“ जिसे डैनियल सिडलिक ने दिया। ये भी शासी निकाय के एक सदस्य हैं। उन्होंने आग्रह किया कि जब समस्याएँ उठती हैं तब इस बारे में बाइबल क्या सलाह देती है उसे जानने की कोशिश कीजिए। मत्ती छठे अध्याय की चुनिंदा आयतों के ज़रिए भाई सिडलिक ने दिखाया कि यह कैसे किया जा सकता है। अगर हममें विश्वास की कमी है तो रोटी-कपड़ा जैसे रोज़मर्रा की ज़रूरतों की चिंता हमें सताने लगेगी। लेकिन यहोवा जानता है कि हमें किन चीज़ों की ज़रूरत है। (मत्ती ६:२५, ३०) चिंता करने से हमारी ये ज़रूरतें पूरी तो नहीं होंगी मगर बेकार में चिंता करने से हर दिन की तकलीफों का बोझ बस बढ़ता ही जाएगा। (मत्ती ६:३४) दूसरी तरफ, सोच-विचारकर काम करना भी ज़रूरी है। (लूका १४:२८ से तुलना कीजिए।) भाई सिडलिक ने बताया, “यीशु ने भविष्य के बारे में सोच-समझकर फैसले करने से मना नहीं किया था बल्कि बेकार में उसकी चिंता करने से मना किया था। जब चिंता सताती है तब किसी काम में मन लगाने से हम चिंता को कम कर सकते हैं। ऐसे वक्त में सच्चाई के बारे में दूसरों से बात करने से बिगड़ती बात बन सकती है।”
विदा होते वक्त सिखानेवालों से मिली सलाह
इसके बाद गिलियड के तीन शिक्षकों ने भाषण दिए। सबसे पहले कार्ल एडम्स का भाषण था जिसका विषय था, “आप यहोवा को बदले में क्या देंगे?” उनका भाषण भजन के ११६वें अध्याय पर आधारित था। शायद इस गीत को यीशु ने अपनी मौत से पहले की रात को गाया हो। (मत्ती २६:३०, NW, फुटनोट) गीत के ये बोल गाते वक्त यीशु के मन में क्या-क्या विचार उठे होंगे: “यहोवा ने मेरे जितने उपकार किए हैं, उनका बदला मैं उसको क्या दूं”? (भजन ११६:१२) शायद वह अपनी परिपूर्ण देह के बारे में सोच रहा हो जिसे यहोवा ने उसके लिए तैयार किया था। (इब्रानियों १०:५) अगले दिन वह इसी देह को बलिदान स्वरूप चढ़ानेवाला था जिसके द्वारा वह अपने प्यार की गहराई को साबित करेगा। १०५वीं कक्षा के विद्यार्थियों ने पिछले पाँच महीनों से यहोवा की भलाई का अनुभव किया है। अब वे जिन-जिन देशों में मिशनरी बनकर जाएँगे, वहाँ कड़ी मेहनत करके परमेश्वर के लिए अपने प्यार का इज़हार करेंगे।
भाषण देनेवाले अगले गिलियड शिक्षक थे मार्क नूमैर जिन्होंने विद्यार्थियों को इस विषय पर सलाह दी: “सही काम करते रहिए।” यूसुफ को मिस्र में दास की तरह बेच दिए जाने के बाद, उसने १३ साल तक अन्याय और बदसलूकी बरदाश्त की। दूसरों ने उसके साथ जो अन्याय किया, क्या उसकी वज़ह से उसने परमेश्वर की सेवा करनी छोड़ दी? जी नहीं, जो सही था वह उसे करता रहा। फिर परमेश्वर के ठहराए हुए समय पर यूसुफ को अपनी मुसीबतों से छुटकारा मिला। अचानक वह कैदखाने से निकलकर महलों में रहने लगा। (उत्पत्ति, अध्याय ३७-५०) शिक्षक ने अपने विद्यार्थियों से पूछा: “अगर आपके मिशनरी कार्य में आपकी उम्मीदें पूरी न हों, तो क्या आप मैदान छोड़कर भाग जाएँगे? क्या आप हार मान लेंगे? या फिर आप यूसुफ की तरह डटे रहेंगे और धीरज से काम लेंगे?”
तीसरे स्पीकर थे गिलियड स्कूल के रॆजिस्ट्रार वैल्लॆस लिवरॆन्स जिन्होंने कक्षा के सदस्यों के साथ “राजा और राज्य की घोषणा करो” विषय पर दिलचस्प चर्चा की। कुछ विद्यार्थियों ने घर-घर, दुकान से दुकान और सड़कों पर प्रचार करते वक्त हुए अपने-अपने अनुभव बताए। कुछ ने बताया कि दूसरी भाषा बोलनेवाले लोगों को उन्होंने गवाही कैसे दी। कुछ विद्यार्थियों ने यह दिखाया कि अलग-अलग धर्म के लोगों को कैसे प्रचार किया जा सकता है। सब-के-सब ग्रैजुएट्स मिशनरी क्षेत्र में जाकर प्रचार काम में पूरा-पूरा हिस्सा लेने के लिए बेताब थे।
बरसों से काम कर रहे मिशनरी खुश हैं
अगले भाग का शीर्षक था “मिशनरी सेवा के आनंद भरे नतीजे” जिसे रॉबर्ट वोलॆन ने पेश किया। इसमें मुख्यालय के स्टाफ के ऐसे चार भाइयों का इंटरव्यू लिया गया जिन्होंने हाल ही में अनुभवी मिशनरियों के साथ संगति की थी, जिससे उनका हौसला बढ़ा था। इन मिशनरियों ने कबूल किया कि एक नयी भाषा सीखना, दूसरे लोगों की संस्कृति के अनुसार खुद को ढालना या फिर अलग मौसम के हिसाब से बदलना उनके लिए आसान नहीं था। तिस पर, उन्हें बार-बार घर की भी याद सताती थी। कभी-कभी वे बीमार पड़ जाते थे। लेकिन इन सब का सामना करते वक्त मिशनरियों ने कभी हार नहीं मानी और वे अपने काम में लगे रहे, जिसकी वज़ह से उन्हें आशीष भी मिली। उनमें से कुछ मिशनरियों ने बीसियों लोगों को यहोवा के करीब आने में मदद की है। दूसरों ने कई अलग-अलग तरीकों से अपने-अपने देश में राज्य के काम को बढ़ाने में मदद की है।
सबसे आखिर में शासी निकाय के एक और सदस्य कैरी बार्बर ने भाषण दिया। उन्होंने “ईश्वरीय जीवन का मार्ग” अधिवेशन के कार्यक्रम की मुख्य-मुख्य बातें बतायीं। उन्होंने श्रोतागण से पूछा, “अधिवेशन के कार्यक्रम से यहोवा के साथ आपके रिश्ते पर क्या असर पड़ा?” स्पीकर ने यहोवा के मार्ग पर चलने से मिलनेवाले अच्छे नतीजों की तुलना दुनिया के रास्ते पर चलनेवाले लोगों के भयानक अंत के साथ की। मरीबा में मूसा के पाप का ज़िक्र करते हुए उन्होंने चिताया: “चाहे एक व्यक्ति कई साल से यहोवा की सेवा वफादारी से करता रहा हो, फिर भी अगर वह यहोवा के मुनासिब नियमों का ज़रा-सा भी उल्लंघन करता है, तो यहोवा इसे गंभीरता से लेता है।” (गिनती २०:२-१३) ऐसा हो कि दुनिया भर में परमेश्वर के सभी सेवक, सेवा में मिली अपनी अनमोल आशीषों की हिफाज़त करें!
अब सभी विद्यार्थियों को डिप्लोमा देने की बारी थी। तब कक्षा के सब विद्यार्थियों की तरफ से एक विद्यार्थी ने उन्हें मिली ट्रेनिंग के लिए कदरदानी से भरा खत पढ़ा। अंत में गीत और हृदयस्पर्शी प्रार्थना के बाद, ग्रैजुएशन का कार्यक्रम खत्म हो गया। लेकिन १०५वीं कक्षा के लिए यह तो बस शुरूआत थी क्योंकि नए मिशनरियों के सामने “बड़े-बड़े कामों का द्वार खुला” था।
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कक्षा के आँकड़े
जितने देशों से विद्यार्थी आए: ९
जितने देशों में भेजे गए: १७
विद्यार्थियों की संख्या: ४८
विवाहित दंपतियों की संख्या: २४
औसत उम्र: ३३
सच्चाई में औसतन साल: १६
पूर्ण-समय सेवकाई में औसतन साल: १२
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उन्होंने पूर्ण-समय सेवा चुनी
१०५वीं कक्षा का एक ग्रैजुएट बॆन कहता है, “जब मैं छोटा था तब मेरा पायनियर-कार्य करने का कोई इरादा नहीं था।” वह आगे कहता है, “मैं सोचता था कि जिनके पास काबिलीयत है और जिनके हालात अच्छे हैं, सिर्फ वही पायनियर-कार्य कर सकते हैं। लेकिन मैंने प्रचार काम का आनंद उठाना सीख लिया। फिर एक दिन मुझे समझ में आया कि पायनियर होने का अर्थ बस यही है कि सेवकाई में ज़्यादा हिस्सा लें। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैं भी पायनियर-कार्य कर सकता हूँ।”
लूसीआ कहती है, “हमारे घर पर पूर्ण-समय के सेवकों को हमेशा इज़्ज़त की नज़र से देखा जाता था।” वह बताती है कि हर बार जब मिशनरी उनकी कलीसिया में आते थे, तब पूरी कलीसिया खुशी और उत्साह से झूम उठती थी। वह कहती है, “जब मैं बड़ी हो रही थी तो घर पर यह मानी हुई बात थी कि आगे चलकर मैं पूर्ण-समय की सेवा ही करूँगी।”
थीएडिस जब १५ बरस का था तब उसके सर से उसकी माँ का साया उठ गया था। वह कहता है, “उस समय, कलीसिया ने वास्तव में मुझे बहुत सहारा दिया। सो मैंने खुद से पूछा, ‘मैं इसके लिए अपनी कदरदानी कैसे दिखा सकता हूँ?’” इसी वज़ह से मैंने पूर्ण-समय की सेवा शुरू की और अब मिशनरी कार्य भी शुरू कर रहा हूँ।
[पेज 25 पर तसवीर]
वॉचटावर बाइबल स्कूल ऑफ गिलियड की स्नातक होनेवाली १०५वीं कक्षा
नीचे दी गयी सूची में, पंक्तियों का क्रम आगे से पीछे की ओर है, और हर पंक्ति में नाम बाएँ से दाएँ दिए गए हैं
(१) सैम्पसॆन, एम.; ब्राउन, आइ.; हेगली, जी.; अबूयॆन, ई.; डेबवा, एम.; पूरटी, पी. (२) कासम, जी.; लिन्बर्ग, आर.; दापूज़ो, ए.; टेलर, सी.; लाफेवरे, के.; वॉकर, एस. (३) बेकर, एल.; पॆलॆस, एम.; वोगन, ई.; बोने, सी.; एस्पलॆंड, जे.; हाइले, जे. (४) पूरटी, टी.; विटाकर, जे.; पामर, एल.; नॉर्टन, एस.; गेरिंग, एम.; हाइले, डब्ल्यू. (५) वॉकर, जे.; बोने, ए.; ग्रूनवॆल्ड, सी.; वॉशिंगटन, एम.; विटाकर, डी.; अबूयॆन, जे. (६) गेरिंग, डब्ल्यू.; वॉशिंगटन, के.; पॆलॆस, एम.; डेबवा, आर.; हेगली, टी.; एस्पलॆंड, ए. (७) वोगन, बी.; लाफेवरे, आर.; टेलर, एल.; ब्राउन, टी.; ग्रूनवॆल्ड, आर.; पामर, आर. (८) नॉर्टन, पी.; सैम्पसॆन, टी.; बेकर, सी.; लिन्बर्ग, एम.; कासम, एम.; दापूज़ों, एम.