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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1997
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शकेम—घाटी में बसा नगर

उस देश के भीतरी भाग में जो परमेश्‍वर ने अपने लोगों के लिए चुना था, एबाल पर्वत और गिरिज्जीम पर्वत के बीच सुरक्षित, शकेम नगर बसा था। यहीं—लगभग चार हज़ार साल पहले—यहोवा ने इब्राहीम से प्रतिज्ञा की: “यह देश मैं तेरे वंश को दूंगा।”—उत्पत्ति १२:६, ७.

इस प्रतिज्ञा के सामंजस्य में, इब्राहीम के पोते याकूब ने शकेम में डेरा डाला और एक वेदी खड़ी की जिसे उसने “ईश्‍वर इस्राएल का परमेश्‍वर” कहा। संभवतः याकूब ने अपने परिवार और जानवरों को पानी प्रदान करने के लिए इस क्षेत्र में एक कूआँ खोदा, वह कूआँ जो सदियों बाद “याकूब का कूआं” कहलाता।—उत्पत्ति ३३:१८-२०, फुटनोट; यूहन्‍ना ४:५, ६, १२.

लेकिन, याकूब के परिवार के सभी सदस्यों ने सच्ची उपासना के लिए जोश नहीं दिखाया। उसकी पुत्री, दीना ने शकेम की कनानी लड़कियों के साथ संगति की। दीना, जो उस समय एक युवती ही थी, अपने परिवार के तम्बुओं की सुरक्षा छोड़कर पास के नगर में जाने लगी, और वहाँ मित्र बनाए।

उस नगर के युवक इस कुँवारी युवती को किस दृष्टि से देखते जो बार-बार उनके नगर में आती थी—प्रत्यक्षतः अकेली? एक प्रधान के पुत्र ने “उसे देखा, और उसे ले जाकर उसके साथ कुकर्म करके उसको भ्रष्ट कर डाला।” दीना ने अनैतिक कनानियों के साथ संगति करके ख़तरा क्यों मोल लिया? क्या इसलिए कि उसे लगा उसे अपनी उम्र की लड़कियों की संगति की ज़रूरत है? क्या वह अपने कुछ भाइयों के जितनी ज़िद्दी और मनमौजी थी? उत्पत्ति वृत्तान्त पढ़िए, और याकूब और लिआः ने अपनी पुत्री के बार-बार शकेम जाने के दुःखद परिणामों के कारण जो व्यथा और लज्जा महसूस की होगी उसे समझने की कोशिश कीजिए।—उत्पत्ति ३४:१-३१; ४९:५-७. जून १५, १९८५ की प्रहरीदुर्ग (अंग्रेज़ी) का पृष्ठ ३१ भी देखिए।

लगभग ३०० साल बाद, ईश्‍वरशासित मार्गदर्शन की उपेक्षा करने के परिणाम एक बार फिर सामने आए। शकेम में, यहोशू ने इस्राएली इतिहास में एक अति स्मरणीय सम्मेलन का प्रबन्ध किया। घाटी के दृश्‍य की कल्पना कीजिए। दस लाख से अधिक लोग—पुरुष, स्त्रियाँ, और बच्चे—जो इस्राएल के छः गोत्रों से थे गिरिज्जीम पर्वत के सामने खड़े हैं। घाटी के उस पार दूसरे छः गोत्रों के लगभग उतने ही लोग एबाल पर्वत के सामने खड़े हैं।a और वहाँ नीचे, वाचा के संदूक के पास और इस्राएलियों के दो समूहों के बीच, याजक और यहोशू खड़े हैं। क्या ही दृश्‍य!—यहोशू ८:३०-३३.

इस विशाल भीड़ से ऊँचे उठे, ये दो पर्वत सुंदरता और अनुर्वरता के बीच बड़ी विषमता दिखाते हैं। गिरिज्जीम की ऊपरी ढलानें हरी-भरी और उपजाऊ दिखती हैं, जबकि एबाल की ढलानें मुख्यतः धूसर और बंजर हैं। जब इस्राएली यहोशू के बोलने की घड़ी की प्रतीक्षा करते हैं तब रोमांच से जो कोलाहल होता है क्या आप उसे सुन सकते हैं? इस प्राकृतिक रंगमंच पर हर आवाज़ गूँजती है।

उन चार से छः घंटों के दौरान जो यहोशू ‘मूसा की व्यवस्था की पुस्तक’ को पढ़ने में लगाता है, लोग भी भाग लेते हैं। (यहोशू ८:३४, ३५) प्रत्यक्षतः, गिरिज्जीम के सामने खड़े इस्राएली हर आशिष के बाद आमीन! कहते हैं, जबकि एबाल के सामने खड़े लोगों की आमीन! हर शाप पर ज़ोर देती है। संभवतः एबाल पर्वत का बंजर दृश्‍य लोगों को अवज्ञा के विनाशक परिणाम की याद दिलाने का काम करता है।

“शापित हो वह जो अपने पिता वा माता को तुच्छ जाने,” यहोशू चिताता है। एकस्वर में, दस लाख से अधिक लोग उत्तर देते हैं: “आमीन।” यहोशू आगे बढ़ने से पहले इस उत्तर की प्रचंड गूँज को शान्त होने देता है: “शापित हो वह जो किसी दूसरे के सिवाने को हटाए।” एक बार फिर छः गोत्र, जिनके साथ अनेक परदेशी भी हैं, चिल्लाते हैं: “आमीन।” (व्यवस्थाविवरण २७:१६, १७) यदि आप वहाँ होते, तो क्या आप पर्वतों के बीच हुई उस सभा को कभी भूलते? क्या आज्ञाकारिता की ज़रूरत आपके मन में अमिट छाप नहीं बनाती?

कुछ २० साल बाद अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले, यहोशू ने एक बार फिर उस जाति को एकसाथ शकेम में बुलवाया ताकि वे अपना संकल्प पक्का कर लें। उसने उनके सामने वह चुनाव रखा जो हर व्यक्‍ति को करना है। “आज चुन लो कि तुम किस की सेवा करोगे,” उसने कहा। “परन्तु मैं तो अपने घराने समेत यहोवा ही की सेवा नित करूंगा।” (यहोशू २४:१, १५) प्रत्यक्षतः, शकेम में हुए इन विश्‍वास-वर्धक अधिवेशनों ने अपनी छाप छोड़ी। क्योंकि यहोशू की मृत्यु के अनेक साल बाद, इस्राएलियों ने उसके विश्‍वासी उदाहरण का अनुकरण किया।—यहोशू २४:३१.

कुछ १५ शताब्दियों बाद जब यीशु गिरिज्जीम पर्वत की छाँव में आराम कर रहा था, तब एक हृदयस्पर्शी बातचीत हुई। लम्बी यात्रा के कारण थका हुआ, यीशु याकूब के कूएँ के पास बैठा हुआ था जब पानी का घड़ा लिए हुए एक सामरी स्त्री वहाँ आयी। वह स्त्री बहुत ही चकित हो गयी जब यीशु ने उससे पानी माँगा, क्योंकि यहूदी सामरियों के साथ बात नहीं करते थे, उनके बर्तन से पीने की तो बात ही दूर रही। (यूहन्‍ना ४:५-९) यीशु के अगले शब्दों ने उसे और चकित कर दिया।

“जो कोई यह जल पीएगा वह फिर पियासा होगा। परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूंगा, वह फिर अनन्तकाल तक पियासा न होगा: बरन जो जल मैं उसे दूंगा, वह उस में एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा।” (यूहन्‍ना ४:१३, १४) उस प्रतिज्ञा में उस स्त्री की दिलचस्पी की कल्पना कीजिए, क्योंकि इस गहरे कूएँ से पानी भरना मेहनत का काम था। यीशु ने यह भी समझाया कि अपने ऐतिहासिक महत्त्व के बावजूद, न यरूशलेम न ही गिरिज्जीम पर्वत वे धार्मिक स्थल थे जो परमेश्‍वर के सम्मुख आने के लिए ज़रूरी थे। स्थान का नहीं, हृदय की मनोवृत्ति और आचरण का महत्त्व था। “सच्चे भक्‍त पिता का भजन आत्मा और सच्चाई से करेंगे,” उसने कहा। “पिता अपने लिये ऐसे ही भजन करनेवालों को ढूंढता है।” (यूहन्‍ना ४:२३) ये शब्द कितने सांत्वनादायी रहे होंगे! एक बार फिर यह घाटी वह स्थान बनी जहाँ लोगों से यहोवा की सेवा करने के लिए आग्रह किया गया।

आज नैबलस नगर प्राचीन शकेम के खंडहरों के पास है। गिरिज्जीम पर्वत और एबाल पर्वत अभी भी घाटी पर प्रबल हैं, अतीत की घटनाओं के मूक साक्षियों के रूप में खड़े हैं। इन पर्वतों के तल पर, अभी भी याकूब के कूएँ पर जाया जा सकता है। जब हम उन घटनाओं पर मनन करते हैं जो वहाँ घटीं, तब हमें सच्ची उपासना का समर्थन करने के महत्त्व का अनुस्मारक मिलता है, जैसे यहोशू और यीशु ने हमें करना सिखाया।—यशायाह २:२, ३ से तुलना कीजिए।

[फुटनोट]

a गिरिज्जीम पर्वत के सामने शिमोन, लेवी, यहूदा, इस्साकार, यूसुफ, और बिन्यामीन के छः गोत्र खड़े थे। एबाल पर्वत के सामने रूबेन, गाद, आशेर, जबूलून, दान और नप्ताली के छः गोत्र खड़े थे।—व्यवस्थाविवरण २७:१२, १३.

[पेज 31 पर चित्र का श्रेय]

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