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शाऊल ने मसीहियों को क्यों सताया?प्रहरीदुर्ग—1999 | जून 15
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दमिश्क यरूशलेम से करीब २२० किलोमीटर दूर था—पैदल सात-आठ दिन का रास्ता। लेकिन “चेलों को धमकाने और घात करने की धुन में” शाऊल महायाजक के पास गया और दमिश्क के आराधनालयों के नाम पर चिट्ठियाँ माँगीं। क्यों? ताकि उसे “इस पंथ” के जितने लोग मिलें उन सब को बाँधकर यरूशलेम ले आए। महायाजक से अनुमति लेकर, शाऊल ‘कलीसिया को उजाड़ने लगा, और घर घर घुसकर पुरुषों और स्त्रियों को घसीट घसीटकर बन्दीगृह में डालने लगा।’ दूसरों को उसने ‘आराधनालय में पिटवाया,’ और उन्हें प्राणदंड देने के पक्ष में उसने ‘अपनी सम्मति’ दी।—प्रेरितों ८:३; ९:१, २, १४; २२:५, १९; २६:१०.
गमलीएल के चरणों में शाऊल ने जो शिक्षा प्राप्त की और अब उसे जो अधिकार मिले थे, उन्हें ध्यान में रखते हुए कुछ विद्वान मानते हैं कि उसने बहुत प्रगति कर ली थी। अब वह व्यवस्था का सिर्फ एक छात्र नहीं था बल्कि यहूदीवाद पर उसका कुछ हद तक अधिकार हो गया था। उदाहरण के लिए, एक विद्वान का अनुमान है कि शायद शाऊल यरूशलेम के एक आराधनालय में शिक्षक बन गया हो। लेकिन, इसका क्या अर्थ है कि शाऊल ने “अपनी सम्मति” दी—अदालत के एक सदस्य के तौर पर सम्मति दी या मसीहियों को प्राणदंड देने के पक्ष में अपना नैतिक समर्थन दिया—यह हमें ठीक से नहीं मालूम।a
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शाऊल ने मसीहियों को क्यों सताया?प्रहरीदुर्ग—1999 | जून 15
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a एमील शूरर की जर्मन पुस्तक यीशु मसीह के युग में यहूदी जाति का इतिहास (ई.पू. १७५-ई.स. १३५) के अनुसार, हालाँकि मिशना में ७१ सदस्यीय महासभा की संचालन प्रक्रिया के बारे में कुछ नहीं बताया गया है, लेकिन २३ सदस्यीय महासभा के बारे में हर बारीकी दी गयी है। व्यवस्था के छात्र छोटी महासभाओं में चल रहे मृत्युदंड के मुकद्दमों में उपस्थित हो सकते थे, लेकिन वहाँ उन्हें सिर्फ मुलज़िम के पक्ष में बोलने की अनुमति थी, उसके विरोध में नहीं। और जिन मुकद्दमों में मृत्युदंड की बात नहीं थी, उनमें वे मुलज़िम के पक्ष और विरोध दोनों में बोल सकते थे।
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