अध्याय 48
तर्क करना, कोमलता दिखाना
हम इस बात के लिए बहुत शुक्रगुज़ार हैं कि परमेश्वर के वचन ने हमारी ज़िंदगी की कायापलट कर दी है और हम चाहते हैं कि परमेश्वर के वचन से दूसरे भी फायदा पाएँ। इसके अलावा, हम जानते हैं कि लोग सुसमाचार के बारे में जो रवैया दिखाते हैं, उसी के मुताबिक उनका भविष्य तय होगा। (मत्ती 7:13, 14; यूह. 12:48) यह हमारी दिली तमन्ना है कि वे सच्चाई को स्वीकार करें। इसलिए हम पूरे यकीन के साथ और उत्साह से सुसमाचार सुनाते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ हमें समझ से भी काम लेना चाहिए, तभी हम अच्छे-से-अच्छे नतीजे हासिल कर पाएँगे।
सच क्या है, अगर हम लोगों को सीधे-सीधे यह बता दें और ऐसा करके उनके किसी गहरे विश्वास पर प्रहार करें, तो बेशक वे आपकी बात सुनना पसंद नहीं करेंगे। फिर चाहे आप अपनी बात की सच्चाई साबित करने के लिए बेहिसाब आयतें पढ़कर क्यों न सुना दें। उदाहरण के लिए, अगर हम जाने-माने त्योहारों की सीधे-सीधे बुराई करेंगे और यह कहेंगे कि उनकी शुरूआत झूठे धर्मों से हुई है, तो ज़रूरी नहीं कि लोग उन त्योहारों के बारे में अपनी राय बदल दें। इसके लिए, तर्क करके समझाने के अकसर अच्छे नतीजे निकलते हैं। तर्क के मुताबिक बात करने यानी कोमल होने का क्या मतलब है?
बाइबल हमें बताती है कि “जो ज्ञान ऊपर से आता है वह . . . मिलनसार, कोमल” होता है। (याकू. 3:17) इस आयत में जिस शब्द का अनुवाद “कोमल” किया गया है, उसका शाब्दिक अर्थ है, “झुकना।” कुछ हिंदी बाइबलों में इस शब्द का अनुवाद “सहनशील” और “नम्र” किया गया है। ध्यान दीजिए कि कोमल के साथ-साथ मिलनसार शब्द का भी ज़िक्र किया गया है। तीतुस 3:2 में कोमल स्वभाव का ज़िक्र नम्रता के साथ पाया जाता है और झगड़ालू होना इसका विपरीत है। फिलिप्पियों 4:5 हमें उकसाता है कि हम “कोमल” होने के लिए जाने जाएँ। एक कोमल इंसान, दूसरों से बात करते वक्त उनकी संस्कृति, उनके हालात और उनकी भावनाओं का ध्यान रखता है। दूसरों के साथ इस तरह पेश आने का फायदा यह है कि जब हम उनके साथ शास्त्र से तर्क करते हैं, तो वे खुले मन से हमारी बात सुनते हैं।
कहाँ से शुरू करें। इतिहासकार लूका बताता है कि प्रेरित पौलुस ने थिस्सलुनीके में रहते वक्त, शास्त्रों का इस्तेमाल करके ‘उन का अर्थ खोल खोलकर समझाया, कि मसीह को दुख उठाना, और मरे हुओं में से जी उठना, अवश्य था।’ (प्रेरि. 17:2, 3) गौर करने लायक बात यह है कि पौलुस ने ऐसा यहूदियों के आराधनालय में किया। उसने जिनसे बात की, वे इब्रानी शास्त्र की सच्चाई पर विश्वास करते थे। इसलिए पौलुस का ऐसी बातों से शुरूआत करना सही था जिन पर वे यकीन करते थे।
दूसरी तरफ, पौलुस ने अथेने के अरियुपगुस में यूनानियों को गवाही देते वक्त, शुरूआत में बाइबल का हवाला नहीं दिया। इसके बजाय, उसने पहले कुछ ऐसी बातों का ज़िक्र किया जिनसे वे वाकिफ थे और जिन्हें वे मानते थे। इनके ज़रिए, उसने सिरजनहार और उसके मकसद के बारे में गवाही देने का रास्ता तैयार किया।—प्रेरि. 17:22-31.
हमारे समय में, ऐसे लाखों-करोड़ों लोग हैं जो यह नहीं मानते हैं कि उन्हें बाइबल के उसूलों के मुताबिक अपनी ज़िंदगी जीनी चाहिए। लेकिन तकरीबन हर किसी पर दुनिया के बुरे हालात का असर ज़रूर पड़ता है। इसलिए लोग बेहतर दुनिया देखने के लिए तरस रहे हैं। इसलिए उनसे बात करते वक्त, पहले उनकी समस्या के लिए चिंता ज़ाहिर कीजिए और फिर बताइए कि उस समस्या के बारे में बाइबल क्या कहती है। इस तरह समझदारी और कोमलता से काम लेने पर वे यह जानना चाहेंगे कि बाइबल, इंसानों के लिए परमेश्वर के मकसद के बारे में क्या कहती है।
हो सकता है कि एक बाइबल विद्यार्थी अपने बाप-दादाओं के धर्म और उसके रीति-रिवाज़ों को मानता हो। लेकिन जब वह सीखता है कि उस धर्म की शिक्षाएँ और रीति-रिवाज़ परमेश्वर को स्वीकार नहीं हैं, तो वह उन्हें ठुकराकर बाइबल की शिक्षाओं को मानने लगता है। वह अपने माता-पिता को कैसे समझा सकता है कि उसने बाइबल के मुताबिक चलने का फैसला किया है? उसके माता-पिता को शायद लगे कि वह उनके पुरखों के धर्म को ठुकराकर, दरअसल उन्हीं को ठुकरा रहा है। इसलिए उस बाइबल विद्यार्थी को शायद लगे कि माता-पिता को अपने फैसले के बारे में बाइबल से समझाने से पहले उनको यह यकीन दिलाना ज़रूरी है कि उसके दिल में उनके लिए प्यार और आदर की भावना अब भी बरकरार है।
कब झुकें? यहोवा के पास दूसरों को हुक्म देने का पूरा-पूरा अधिकार है, फिर भी वह कोमलता की एक उम्दा मिसाल है। उदाहरण के लिए, लूत और उसके परिवार को सदोम से छुटकारा दिलाते वक्त, यहोवा के स्वर्गदूतों ने उनसे आग्रह किया: “पहाड़ पर भाग जाना, नहीं तो तू भी भस्म हो जाएगा।” मगर लूत ने बिनती की: “हे प्रभु, ऐसा न कर”! उसने यहोवा से मिन्नत की कि वह उन्हें सोअर नगर में भाग जाने की इजाज़त दे। तब यहोवा ने लूत की भावनाओं का लिहाज़ रखते हुए उसे सोअर जाने दिया; इसलिए वहाँ के दूसरे नगरों को नाश करते वक्त सोअर को छोड़ दिया गया। लेकिन बाद में, लूत यहोवा से पहले मिली हिदायत को मानकर, पहाड़ी इलाके में जा बसा। (उत्प. 19:17-30) यहोवा जानता था कि उसने लूत को शुरू में जो कहा वही सही है, फिर भी जब तक कि लूत को खुद यह एहसास न हुआ कि यहोवा की हिदायत मानने में ही भलाई है, यहोवा ने लूत के साथ पेश आते वक्त धीरज धरा।
हमें भी दूसरों के साथ अच्छी तरह पेश आने के लिए, कोमल होना चाहिए। हमें शायद पक्का यकीन हो कि सुननेवाला जो विश्वास करता है, वह गलत है। और शायद उसे गलत साबित करने के लिए हमारे पास ज़बरदस्त दलीलें भी मौजूद हों। लेकिन कभी-कभी ऐसे हालात में बेहतर यही होता है कि हम उस मामले पर बहस न करें। इस तरह की कोमलता का यह मतलब हरगिज़ नहीं कि हम यहोवा के स्तरों के मामले में समझौता कर लें। ऐसे में शायद यह काफी होगा कि आप उसे अपने विचार बताने के लिए धन्यवाद कहें या उसकी कही गलत बातों के जवाब में कुछ न कहें। फिर आप बातचीत का रुख इस तरह मोड़ सकते हैं कि उसका अच्छा नतीजा निकले। सुननेवाला आपके विश्वासों के बारे में चाहे बुरा-भला बोले, मगर आप उत्तेजित मत होइए। आप चाहें तो उससे पूछ सकते हैं कि वह आपके विश्वासों के बारे में ऐसा क्यों महसूस करता है। उसका जवाब ध्यान से सुनिए। तब आप समझ पाएँगे कि उसके ऐसा सोचने की वजह क्या है। और इससे शायद आगे के लिए एक अच्छी बुनियाद पड़ जाए जब आप उससे अच्छी बातचीत करने में कामयाब होंगे।—नीति. 16:23; 19:11.
यहोवा ने इंसानों को अपने फैसले खुद करने की काबिलीयत देकर बनाया है। वह उन्हें इस काबिलीयत का इस्तेमाल करने की इजाज़त देता है, चाहे वे इसका सही इस्तेमाल करें या न करें। यहोशू, यहोवा की तरफ से इस्राएल से बात करता था और उसने इस्राएलियों को यह याद दिलाया कि परमेश्वर ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया था। इसके बाद, उसने कहा: “यदि यहोवा की सेवा करनी तुम्हें बुरी लगे, तो आज चुन लो कि तुम किस की सेवा करोगे, चाहे उन देवताओं की जिनकी सेवा तुम्हारे पुरखा महानद के उस पार करते थे, और चाहे एमोरियों के देवताओं की सेवा करो जिनके देश में तुम रहते हो; परन्तु मैं तो अपने घराने समेत यहोवा ही की सेवा नित करूंगा।” (यहो. 24:15) आज हमें दूसरों को “गवाही” देने का काम सौंपा गया है और हम अपना संदेश पूरे यकीन के साथ सुनाते हैं; मगर हम अपनी बात लोगों पर ज़बरदस्ती नहीं थोपते। (मत्ती 24:14) उन्हें खुद चुनाव करना है कि वे हमारी बात पर विश्वास करेंगे या नहीं, हम उनका यह हक उनसे नहीं छीनते।
सवाल पूछिए। यीशु ने लोगों के साथ तर्क करने में एक बेजोड़ मिसाल कायम की। उसने इस बात का ध्यान रखा कि वे किस संस्कृति से हैं और ऐसे दृष्टांत बताए जिन्हें वे आसानी से समझ सकें। इसके अलावा, उसने सवालों का भी बढ़िया इस्तेमाल किया। इससे दूसरों को अपनी राय ज़ाहिर करने का मौका मिला और उनके मन की बात खुलकर सामने आयी। साथ ही, यीशु जिस मामले पर चर्चा कर रहा था, उस पर तर्क करने का भी उन्हें बढ़ावा मिला।
एक बार, व्यवस्था के एक ज्ञानी ने यीशु से पूछा: “हे गुरु, अनन्त जीवन का वारिस होने के लिये मैं क्या करूं?” यीशु चाहता तो उस सवाल का फौरन जवाब दे सकता था। मगर उसने उस आदमी से उसकी राय पूछी: “व्यवस्था में क्या लिखा है? तू कैसे पढ़ता है?” (तिरछे टाइप हमारे।) उस आदमी ने सही जवाब दिया। तो क्या उसके बाद उनकी बातचीत वही खत्म हो गयी? जी नहीं। यीशु ने उस आदमी को आगे अपनी बात कहने दी और उस आदमी के एक सवाल से यह ज़ाहिर हुआ कि वह खुद को धर्मी साबित करने की कोशिश कर रहा था। उसका सवाल था: “मेरा पड़ोसी कौन है?” इस पर यीशु ने ‘पड़ोसी’ शब्द की परिभाषा नहीं दी, वरना वह आदमी शायद बहस करने पर उतारू हो जाता क्योंकि उस ज़माने में यहूदी, गैर-यहूदियों और सामरियों का तिरस्कार करते थे। इसलिए यीशु ने उसे एक दृष्टांत बताकर उस पर तर्क करने का बढ़ावा दिया। वह दृष्टांत एक दयालु सामरी के बारे में था, जिसने एक ऐसे मुसाफिर की मदद की जिसे डाकुओं ने लूटकर बुरी तरह घायल कर दिया था। जबकि एक याजक और लेवी ने उस मुसाफिर की मदद नहीं की थी। यह दृष्टांत बताने के बाद, यीशु ने उस आदमी से एक छोटा-सा सवाल पूछा ताकि उसे दृष्टांत का असली मुद्दा समझ में आ सके। यीशु ने जिस तरह तर्क किया उससे शब्द “पड़ोसी” का वह मतलब खुलकर सामने आया जो उस आदमी ने पहले कभी नहीं सोचा था। (लूका 10:25-37) यीशु ने हमारे लिए यह क्या ही बढ़िया मिसाल कायम की! तो फिर, सुननेवाले को सारी बातें खुद ही बताने और उसके लिए खुद सोचने के बजाय कुशलता से ऐसे सवाल पूछिए और ऐसे दृष्टांत बताइए जिससे सुननेवाला आपकी बात पर सोचे।
वजह बताइए। प्रेरित पौलुस ने थिस्सलुनीके के आराधनालय में सिखाते वक्त यह नहीं सोचा कि मेरे सुननेवाले शास्त्र पर विश्वास तो करते ही हैं, इसलिए उन्हें इससे पढ़कर सुना देना ही काफी होगा। लूका बताता है कि पौलुस ने जो पढ़ा, उसका अर्थ समझाया, उसकी सच्चाई साबित की और उसे लागू भी किया। नतीजा यह हुआ कि ‘उनमें से कुछ लोगों ने विश्वास किया और वे पौलुस और सीलास के साथ मिल गए।’ (NHT)—प्रेरि. 17:1-4.
आपके सुननेवाले चाहे जो भी हों, उनसे बात करते वक्त अगर आप इस तरह तर्क करें और कोमलता दिखाएँ, तो इसका अच्छा नतीजा निकल सकता है। आप चाहें अपने रिश्तेदारों को, साथ काम करनेवालों या पढ़नेवालों को गवाही दे रहे हों, प्रचार में किसी अजनबी को संदेश सुना रहे हों, बाइबल अध्ययन करवा रहे हों, या फिर कलीसिया में भाषण दे रहे हों, हर हालात में तर्क करना और कोमलता दिखाना फायदेमंद है। जब आप किसी को आयत पढ़कर सुनाते हैं, तो हो सकता है कि आप उसका मतलब साफ जानते हैं, मगर शायद सामनेवाले को नहीं मालूम। जब आप उस आयत का मतलब बताएँगे या उसे लागू करेंगे तो सुननेवाले को शायद ऐसा लगे कि आप अपने विचार उस पर थोप रहे हैं। इसलिए क्या उस आयत के कुछ खास शब्दों के बारे में अलग से समझाना फायदेमंद नहीं होगा? क्या आप अपनी बात की सच्चाई साबित करने के लिए कुछ सबूत पेश कर सकते हैं? आप चाहें तो आस-पास की आयतों से या उसी विषय से ताल्लुक रखनेवाली किसी दूसरी आयत से सबूत दे सकते हैं। क्या आप कोई ऐसा दृष्टांत बता सकते हैं जिसकी मदद से आप दिखा सकें कि आपने जो कहा है, वह तर्क के मुताबिक भरोसे के लायक है? क्या कुछ सवालों का इस्तेमाल करने से आपके सुननेवाले उस विषय पर तर्क करेंगे? इस तरह तर्क करने और कोमलता से पेश आने से लोगों पर अच्छा असर पड़ेगा और वे आपकी बात पर गहराई से सोचेंगे।