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  • “सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र” सच्चा और फायदेमंद (मत्ती–कुलुस्सियों)
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“सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र” सच्चा और फायदेमंद (मत्ती–कुलुस्सियों)
bsi08-1 पेज 18-21

बाइबल की किताब नंबर 45—रोमियों

लेखक: पौलुस

लिखने की जगह: कुरिन्थुस

लिखना पूरा हुआ: लगभग सा.यु. 56

प्रेरितों की किताब में हमने देखा कि पौलुस, एक वक्‍त पर यहूदी मसीहियों को बेदर्दी से सताता था। मगर फिर वह गैर-यहूदी जातियों में मसीह का एक जोशीला प्रेरित बना। रोमियों की किताब बाइबल की उन 14 किताबों में से पहली है, जिन्हें लिखने के लिए पवित्र आत्मा ने परमेश्‍वर के इस वफादार सेवक को, जो पहले एक फरीसी था, प्रेरित किया। जब पौलुस ने रोमियों की पत्री लिखी, तब तक वह अपनी दो मिशनरी यात्राएँ खत्म कर चुका था और तीसरी यात्रा पर था। उस वक्‍त तक वह पाँच ईश्‍वर-प्रेरित पत्रियाँ भी लिख चुका था। वे थीं, पहला और दूसरा थिस्सलुनीकियों, गलतियों, पहला और दूसरा कुरिन्थियों। लेकिन आजकल की बाइबलों में रोमियों की किताब, उन पत्रियों से पहले आती है। और यह सही भी है, क्योंकि इसमें यहूदी और गैर-यहूदियों के बीच नयी समानता के बारे में ब्यौरेवार चर्चा की गयी है। पौलुस ने इन दोनों वर्गों को प्रचार किया था। इस किताब में समझाया गया है कि परमेश्‍वर जिस तरह अपने लोगों के साथ बर्ताव करता आया था, उसमें एक अहम बदलाव हुआ। इसमें यह भी बताया गया है कि इब्रानी शास्त्र में बहुत पहले यह भविष्यवाणी की गयी थी कि गैर-यहूदियों को भी सुसमाचार सुनाया जाएगा।

2 पौलुस ने तिरतियुस से रोमियों की किताब लिखवायी। पौलुस ने इसमें एक-के-बाद-एक दलीलें इस्तेमाल कीं और इब्रानी शास्त्र से ढेरों हवाले दिए, जिससे कि यह किताब मसीही यूनानी शास्त्र की सबसे दमदार किताब है। पौलुस बड़ी खूबसूरत भाषा का इस्तेमाल करता है और पहली सदी में यहूदी और यूनानी मसीहियों से बनी कलीसिया में उठनेवाली समस्याओं की चर्चा करता है। क्या इब्राहीम की संतान होने की वजह से यहूदियों को ज़्यादा तवज्जह दी जानी चाहिए? क्या प्रौढ़ मसीहियों को यह सोचना चाहिए कि वे मूसा की व्यवस्था के अधीन नहीं हैं, तो उन्हें उन यहूदी भाइयों को ठोकर खिलाने का अधिकार है, जो विश्‍वास में कमज़ोर थे और अभी-भी पुराने दस्तूरों को मानकर चल रहे थे? रोमियों को लिखी इस पत्री में पौलुस पक्के तौर पर साबित करता है कि यहूदी और गैर-यहूदी परमेश्‍वर की नज़र में बराबर हैं। और यह भी कि इंसान मूसा की व्यवस्था के ज़रिए नहीं, बल्कि यीशु मसीह पर विश्‍वास करने और परमेश्‍वर की अपार कृपा के ज़रिए धर्मी ठहराए जाते हैं। साथ ही, परमेश्‍वर मसीहियों से माँग करता है कि वे सही मायने में अलग-अलग अधिकारियों के अधीन रहें।

3 रोमी कलीसिया की शुरूआत कैसे हुई थी? रोमी शासक पॉम्पी ने सा.यु. 63 में जब यरूशलेम पर कब्ज़ा किया, उस वक्‍त से रोम में यहूदियों की बहुत बड़ी आबादी थी। प्रेरितों 2:10 में साफ बताया गया कि रोम से आए कुछ यहूदी, सा.यु. 33 के पिन्तेकुस्त के दिन यरूशलेम में मौजूद थे, जहाँ उन्होंने सुसमाचार सुना था। अलग-अलग जगहों से आनेवाले लोग मसीही बनने के बाद प्रेरितों से सीखने के लिए यरूशलेम में कुछ दिन और ठहर गए। इसके कुछ समय बाद रोम से आए यहूदी वापस अपने घर लौट गए। उनमें से कुछ शायद तब वापस गए होंगे, जब यरूशलेम में मसीहियों पर ज़ुल्म होने लगे। (प्रेरि. 2:41-47; 8:1, 4) इसके अलावा, उस ज़माने के लोग जगह-जगह सफर करते थे। शायद यही वजह है कि पौलुस रोमी कलीसिया के कई लोगों को अच्छी तरह जानता था। हो सकता है, उनमें से कुछ लोगों ने यूनान या एशिया में पौलुस को प्रचार करते सुना हो।

4 रोमी कलीसिया के बारे में हमें भरोसेमंद जानकारी सबसे पहले पौलुस की पत्री से मिलती है। इसमें साफ बताया गया है कि यह कलीसिया यहूदी और गैर-यहूदी मसीहियों से मिलकर बनी थी और उनका जोश काबिले-तारीफ था। पौलुस उनसे कहता है, “तुम्हारे विश्‍वास की चर्चा सारे जगत में हो रही है” और “तुम्हारे आज्ञा मानने की चर्चा सब लोगों में फैल गई है।” (रोमि. 1:8; 16:19) दूसरी सदी का लेखक सूटोनियस बताता है कि रोमी सम्राट क्लौदियुस की हुकूमत के दौरान (सा.यु. 41-54), यहूदियों को रोम से देशनिकाला दिया गया था। लेकिन बाद में वे वापस लौट आए, जैसा कि रोम में अक्विला और प्रिस्किल्ला की मौजूदगी से पता चलता है। ये दोनों यहूदी थे, जो क्लौदियुस के हुक्म पर रोम छोड़कर कुरिन्थुस गए थे और जहाँ उनकी मुलाकात पौलुस से हुई थी। जब तक पौलुस ने रोमी कलीसिया को अपनी पत्री लिखी, तब तक अक्विला और प्रिस्किल्ला वापस रोम लौट आए थे।—प्रेरि. 18:2; रोमि. 16:3.

5 रोमियों की पत्री के सच होने के कई सबूत हैं। इसकी शुरूआत में कहा गया कि यह पत्री “पौलुस की ओर से [है] जो यीशु मसीह का दास है, और प्रेरित होने के लिए बुलाया गया” है और यह पत्री “उन सब के नाम [है] जो रोम में परमेश्‍वर के प्यारे हैं और पवित्र होने के लिये बुलाए गए हैं।” (रोमि. 1:1, 7) मसीही यूनानी शास्त्र में रोमियों की किताब ऐसी पहली किताब है जिसका ज़िक्र दूसरी किताबों, दस्तावेज़ों वगैरह में पाया जाता है। पतरस अपनी पहली पत्री में (जो कि छः से आठ साल बाद लिखा गया था) रोमियों की किताब से बहुत-से मिलते-जुलते शब्द इस्तेमाल करता है। इसलिए कई विद्वान मानते हैं कि पतरस रोमियों की पत्री से अच्छी तरह वाकिफ था। इसमें कोई शक नहीं कि रोमियों को पौलुस की रचनाओं का हिस्सा माना जाता था। और इस पत्री में से कई विद्वानों ने हवाले भी दिए जैसे रोम के क्लैमेंट, स्मुरना का पॉलिकार्प और अन्ताकिया का इग्नेशीअस। ये सब-के-सब सा.यु. पहली सदी के आखिर और दूसरी सदी की शुरूआत में जीए थे।

6 रोमियों की पत्री पौलुस की दूसरी आठ पत्रियों के साथ एक कोडेक्स (किताब के आकार की हस्तलिपि) में रखी गयी है, जिसे चेस्टर बीटी पपाइरस नं. 2 (P46) कहा जाता है। इस प्राचीन कोडेक्स के बारे सर फ्रेड्रिक केन्यन ने लिखा: “यह पौलुस की करीब-करीब सारी पत्रियों की हस्तलिपि है, जिसे शायद तीसरी सदी की शुरूआत में लिखा गया था।”a चेस्टर बीटी के यूनानी शास्त्र के दूसरे पपाइरस, सा.यु. चौथी सदी की जानी-मानी साइनाइटिक हस्तलिपि और वैटिकन हस्तलिपि नं. 1209 से भी पुराने हैं। इन पपाइरसों में भी रोमियों की किताब पायी जाती है।

7 रोमियों की पत्री कब और कहाँ लिखी गयी थी? बाइबल के टीकाकार इस बात पर एकमत हैं कि पौलुस ने यह पत्री यूनान में, शायद कुरिन्थुस शहर से लिखी थी। यह उस वक्‍त की बात है जब पौलुस अपनी तीसरी मिशनरी यात्रा के आखिर में, कुछ महीनों के लिए कुरिन्थुस में था। बाइबल में दिए सबूत भी इशारा करते हैं कि यह पत्री कुरिन्थुस में लिखी गयी थी। पौलुस ने इसे गयुस के घर से लिखा था, जो कुरिन्थुस कलीसिया का सदस्य था। उसने पत्री में फीबे की भी सिफारिश की, जो कुरिन्थुस के बंदरगाह के पासवाली किंख्रिया कलीसिया से थी। ऐसा लगता है कि पौलुस ने फीबे के ज़रिए यह पत्री रोम की कलीसिया को भेजी थी। (रोमि. 16:1, 23; 1 कुरि. 1:14) रोमियों 15:23 में पौलुस ने लिखा, ‘अब इन प्रदेशों में ऐसा कोई इलाका नहीं बचा, जहाँ प्रचार करना बाकी है।’ (NW) और अगली आयत में उसने इशारा किया कि वह पश्‍चिम की ओर इसपानिया (स्पेन) में अपनी मिशनरी सेवा जारी रखने की सोच रहा है। पौलुस यह बात अपनी तीसरी मिशनरी यात्रा के आखिर में ही लिख सकता था, यानी सा.यु. 56 की शुरूआत में।

क्यों फायदेमंद है

20 रोमियों की किताब परमेश्‍वर पर विश्‍वास करने की बढ़िया वजह देती है। यह बताती है: “उसके अनदेखे गुण, अर्थात्‌ उस की सनातन सामर्थ, और परमेश्‍वरत्व जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैं।” लेकिन इससे भी बढ़कर यह किताब, परमेश्‍वर की धार्मिकता का गुणगान करती है और उसकी बड़ी दया और अनुग्रह का ऐलान करती है। यह बात, जलपाई या जैतून पेड़ के दृष्टांत के ज़रिए बहुत ही खूबसूरत तरीके से समझायी गयी है। दृष्टांत में बताया गया कि जब जैतून की स्वाभाविक डालियों को काट डाला गया, तो उनकी जगह जंगली डालियों की कलम लगायी गयी। परमेश्‍वर ने सख्ती बरतने के साथ-साथ जो कृपा दिखायी उस पर मनन करने के बाद पौलुस बोल उठा: “आहा! परमेश्‍वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है! उसके विचार कैसे अथाह, और उसके मार्ग कैसे अगम हैं!”—1:20; 11:33.

21 इसी सिलसिले में रोमियों की किताब परमेश्‍वर के पवित्र भेद के एक और पहलू के बारे में समझाती है। मसीही कलीसिया में यहूदियों और गैर-यहूदियों में कोई भेद न रहा। इसके बजाय, हर जाति और देश के लोग यीशु मसीह के ज़रिए यहोवा की अपार कृपा का फायदा उठा सकते हैं। “परमेश्‍वर किसी का पक्षपात नहीं करता।” (NHT) “यहूदी वही है, जो मन में है; और खतना वही है, जो हृदय का और आत्मा में है; न कि लेख का।” “यहूदियों और यूनानियों में कुछ भेद नहीं, इसलिये कि वह सब का प्रभु है; और अपने सब नाम लेनेवालों के लिये उदार है।” इन सब मामलों में एक इंसान अपने कामों की वजह से नहीं, बल्कि विश्‍वास की वजह से धर्मी ठहराया जाता है।—2:11, 29; 10:12; 3:28.

22 इस पत्री में रोम के मसीहियों को दी कारगर सलाह, आज के मसीहियों के लिए भी फायदेमंद है। क्योंकि रोम के मसीहियों की तरह उन्हें भी इस बैरी संसार में मुश्‍किलों का सामना करना पड़ता है। मसीहियों को उकसाया जाता है कि वे ‘सब मनुष्यों के साथ मेल मिलाप रखें,’ यहाँ तक कि बाहरवालों के साथ भी। हर इंसान को “प्रधान अधिकारियों के आधीन” रहना चाहिए, क्योंकि ये परमेश्‍वर के ठहराए इंतज़ाम का हिस्सा हैं। इतना ही नहीं, ये अधिकारी कानून माननेवालों के लिए नहीं बल्कि बुरे काम करनेवालों के लिए डर का कारण है। मसीहियों को सिर्फ सज़ा के डर से ही नहीं, बल्कि अपने मसीही विवेक की वजह से भी कानूनों का पालन करना चाहिए और अधिकारियों के अधीन रहना चाहिए। इसलिए वे अपना कर अदा करते हैं, हरेक का हक चुकाते हैं और “आपस के प्रेम को छोड़” और किसी बात में किसी के कर्ज़दार नहीं होते। जी हाँ प्रेम, व्यवस्था को पूरा करता है।—12:17-21; 13:1-10.

23 पौलुस ने लोगों को गवाही देने की बात पर ज़ोर दिया। हालाँकि धार्मिकता के लिये मन से विश्‍वास किया जाता है, लेकिन उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है। “जो कोई प्रभु का नाम लेगा, वह उद्धार पाएगा।” लेकिन इसके लिए यह ज़रूरी है कि प्रचारक, लोगों को “अच्छी बातों का सुसमाचार सुना[एँ]।” अगर हम भी उन प्रचारकों में से हैं, जिनकी आवाज़ “जगत की छोर तक” पहुँच गयी है, तो हम धन्य हैं! (10:13, 15, 18) प्रचार का यह काम करने के लिए आइए हम पौलुस की तरह ईश्‍वर-प्रेरित शास्त्र यानी बाइबल से अच्छी तरह वाकिफ हों। शास्त्र से वाकिफ होने की वजह से ही पौलुस ने इस वचन में (10:11-21) इब्रानी शास्त्र से एक-के-बाद-एक हवाले दिए। (यशा. 28:16; योए. 2:32; यशा. 52:7; 53:1; भज. 19:4; व्यव. 32:21; यशा. 65:1, 2) इसलिए वह कह सका: “जितनी बातें पहिले से लिखी गईं, वे हमारी ही शिक्षा के लिये लिखी गईं हैं कि हम धीरज और पवित्र शास्त्र की शान्ति के द्वारा आशा रखें।”—रोमि. 15:4.

24 इस पत्री में मसीही भाई-बहनों के साथ आपसी रिश्‍तों के बारे में भी बेहतरीन और कारगर सलाह दी गयी है। सच्चाई में आने से पहले हम चाहे किसी भी देश या जाति से क्यों न हों, या समाज में हमारा ओहदा चाहे जो भी हो, लेकिन हम सबको अपनी बुद्धि या मन को नया करना है, ताकि परमेश्‍वर की “भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा” के मुताबिक उसकी पवित्र सेवा कर सकें। (11:17-22; 12:1, 2) पौलुस ने रोमियों 12:3-16 में क्या ही व्यावहारिक और उचित सलाह दी! वाकई इन आयतों में मसीही कलीसिया के सभी सदस्यों को जोश पैदा करने, नम्रता और कोमल स्नेह दिखाने की बढ़िया सलाह दी गयी है। किताब के आखिरी अध्यायों में पौलुस फूट पैदा करनेवालों से होशियार रहने और उनसे दूर रहने की कड़ी सलाह देता है। लेकिन वह उस खुशी और ताज़गी के बारे में भी बताता है, जो कलीसिया में शुद्ध लोगों के साथ संगति करने से मिलती है।—16:17-19; 15:7, 32.

25 मसीही होने के नाते हमें दूसरों के साथ अपने रिश्‍ते पर ध्यान देते रहना चाहिए। “क्योंकि परमेश्‍वर का राज्य खाना-पीना नहीं; परन्तु धार्मिकता, मेल और वह आनन्द है जो पवित्र आत्मा में है।” (14:17, NHT) यह धार्मिकता, मेल और आनन्द खासकर उन लोगों को मिलता है, जो “मसीह के संगी वारिस” हैं और जो स्वर्ग के राज्य में ‘उसके साथ महिमा पाएँगे।’ ध्यान दीजिए कि यह किताब अदन में किए राज्य के वादे के एक और पहलू के बारे में क्या बताती है: ‘शान्ति का परमेश्‍वर शैतान को तुम्हारे पांवों से शीघ्र कुचल देगा।’ (रोमि. 8:17; 16:20; उत्प. 3:15) ऐसा हो कि हम इन महान सच्चाइयों पर विश्‍वास करने के ज़रिए सब प्रकार के आनन्द और शांति से परिपूर्ण हो जाए और आशा में बढ़ते जाए। आइए ठान लें कि हम राज्य के वंश के साथ जीत हासिल करेंगे, क्योंकि हमें पूरा यकीन है कि स्वर्ग में और धरती पर न तो कोई ताकत और “न [ही] कोई और सृष्टि, हमें परमेश्‍वर के प्रेम से, जो हमारे प्रभु मसीह यीशु में है, अलग कर सकेगी।”—रोमि. 8:39; 15:13.

[फुटनोट]

a हमारी बाइबल और प्राचीन हस्तलिपियाँ (अँग्रेज़ी), सन्‌ 1958, पेज 188.

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