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  • अपने परिवार के लिए स्थायी भविष्य सुरक्षित कीजिए

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पारिवारिक सुख का रहस्य
fy अध्या. 16 पेज 183-191

अध्याय सोलह

अपने परिवार के लिए स्थायी भविष्य सुरक्षित कीजिए

१. पारिवारिक प्रबन्ध के लिए यहोवा का उद्देश्‍य क्या था?

जब यहोवा ने आदम और हव्वा को विवाह में जोड़ा, तब आदम ने अभिलिखित सबसे पुरानी इब्रानी कविता कहने के द्वारा अपना आनन्द व्यक्‍त किया। (उत्पत्ति २:२२, २३) लेकिन, सृष्टिकर्ता के मन में अपने मानव बच्चों को मात्र सुख देने से अधिक था। वह चाहता था कि विवाहित दम्पति और परिवार उसकी इच्छा पर चलें। उसने पहले जोड़े से कहा: “फूलो-फलो, और पृथ्वी में भर जाओ, और उसको अपने वश में कर लो; और समुद्र की मछलियों, तथा आकाश के पक्षियों, और पृथ्वी पर रेंगनेवाले सब जन्तुओं पर अधिकार रखो।” (उत्पत्ति १:२८) वह कितनी बड़ी, फलदायी कार्य-नियुक्‍ति थी! वे और उनके भावी बच्चे कितने सुखी रहते यदि आदम और हव्वा पूर्ण आज्ञाकारिता से यहोवा की इच्छा पर चले होते!

२, ३. आज परिवार सबसे बड़ा सुख कैसे पा सकते हैं?

२ आज भी, परिवार सबसे सुखी तब होते हैं जब वे परमेश्‍वर की इच्छा पर चलने के लिए एकसाथ कार्य करते हैं। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “भक्‍ति सब बातों में लाभदायक है, क्योंकि इस पर वर्तमान और आने वाले जीवन की प्रतिज्ञा निर्भर है।” (१ तीमुथियुस ४:८, NHT) जो परिवार ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ जीता है और जो बाइबल में दिए गए यहोवा के मार्गदर्शन पर चलता है वह ‘वर्तमान जीवन’ में सुख पाएगा। (भजन १:१-३; ११९:१०५; २ तीमुथियुस ३:१६) यदि परिवार का केवल एक सदस्य बाइबल सिद्धान्तों पर अमल करता है, तो भी स्थिति उससे तो बेहतर होती है जब कोई नहीं करता।

३ इस पुस्तक में अनेक बाइबल सिद्धान्तों पर चर्चा की गयी है जो पारिवारिक सुख में योग देते हैं। संभवतः आपने ध्यान दिया होगा कि उनमें से कुछ सिद्धान्त पूरी पुस्तक में बार-बार आते हैं। क्यों? क्योंकि वे शक्‍तिशाली सच्चाइयों को चित्रित करते हैं जो पारिवारिक जीवन के विभिन्‍न पहलुओं में सभी के भले के लिए काम करती हैं। जो परिवार इन बाइबल सिद्धान्तों पर अमल करने का प्रयास करता है वह पाता है कि वास्तव में ईश्‍वरीय भक्‍ति पर ‘वर्तमान जीवन की प्रतिज्ञा निर्भर है।’ आइए उन में से चार महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को फिर से देखते हैं।

आत्म-संयम का महत्त्व

४. विवाह में आत्म-संयम अति-महत्त्वपूर्ण क्यों है?

४ राजा सुलैमान ने कहा: “जिस मनुष्य की आत्मा उसके वश में नहीं, वह उस ध्वस्त नगर के समान है जिसकी दीवारें ढह गयीं।” (नीतिवचन २५:२८, NHT; २९:११) ‘अपनी आत्मा वश में करना,’ आत्म-संयम रखना उनके लिए अति-महत्त्वपूर्ण है जो एक सुखी विवाह चाहते हैं। क्रोध या अनैतिक कामुकता जैसे विनाशक भावों में आ जाना ऐसी हानि पहुँचाएगा जिसकी पूर्ति में सालों लगते हैं—यदि पूर्ति की कोई संभावना है भी।

५. एक अपरिपूर्ण मनुष्य आत्म-संयम कैसे विकसित कर सकता है, और इसके लाभ क्या हैं?

५ निःसंदेह, आदम का कोई वंशज पूरी तरह से अपने अपरिपूर्ण शरीर को वश में नहीं कर सकता। (रोमियों ७:२१, २२) फिर भी, आत्म-संयम आत्मा का एक फल है। (गलतियों ५:२२, २३) अतः, यदि हम इस गुण के लिए प्रार्थना करते हैं, यदि हम उपयुक्‍त सलाह पर अमल करते हैं जो शास्त्र में दी गयी है, और यदि हम उनके साथ संगति करते हैं जो इसे दर्शाते हैं और उनसे दूर रहते हैं जो इसे नहीं दर्शाते, तो परमेश्‍वर की आत्मा हमारे अन्दर आत्म-संयम उत्पन्‍न करेगी। (भजन ११९:१००, १०१, १३०; नीतिवचन १३:२०; १ पतरस ४:७) ऐसा मार्ग हमें उस समय भी ‘व्यभिचार से बचे रहने’ में मदद देगा जब हम पर प्रलोभन आते हैं। (१ कुरिन्थियों ६:१८) हम हिंसा को ठुकराएँगे और मद्यव्यसनता से दूर रहेंगे अथवा उस पर विजय पाएँगे। और हम उत्तेजित किए जाने पर तथा कठिन स्थितियों में अधिक शान्ति से व्यवहार करेंगे। ऐसा हो कि सभी—बच्चे भी—आत्मा के इस अति-महत्त्वपूर्ण फल को विकसित करना सीखें।—भजन ११९:१, २.

मुखियापन के प्रति उचित दृष्टिकोण

६. (क) मुखियापन का ईश्‍वरीय रूप से स्थापित क्रम क्या है? (ख) यदि एक पुरुष के मुखियापन से उसके परिवार को सुख मिलना है तो उसे क्या याद रखना चाहिए?

६ दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है मुखियापन को स्वीकार करना। पौलुस ने उचित क्रम का वर्णन किया जब उसने कहा: “मैं चाहता हूं, कि तुम यह जान लो, कि हर एक पुरुष का सिर मसीह है: और स्त्री का सिर पुरुष है: और मसीह का सिर परमेश्‍वर है।” (१ कुरिन्थियों ११:३) इसका अर्थ है कि परिवार में पुरुष अगुवाई लेता है, उसकी पत्नी निष्ठा के साथ समर्थन करती है, और बच्चे अपने माता-पिता की आज्ञा मानते हैं। (इफिसियों ५:२२-२५, २८-३३; ६:१-४) लेकिन, ध्यान दीजिए कि मुखियापन सुख का कारण केवल तब बनता है जब उसे उचित रीति से चलाया जाता है। जो पति ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ जीते हैं वे जानते हैं कि मुखियापन तानाशाही नहीं है। वे अपने सिर, यीशु की नक़ल करते हैं। हालाँकि यीशु को “सब वस्तुओं पर शिरोमणि” होना था, वह “इसलिये नहीं आया कि उस की सेवा टहल किई जाए, परन्तु इसलिये आया कि आप सेवा टहल करे।” (इफिसियों १:२२; मत्ती २०:२८) समान रीति से, एक मसीही पुरुष स्वयं को लाभ पहुँचाने के लिए नहीं, बल्कि अपनी पत्नी और बच्चों के हितों की चिन्ता करने के लिए मुखियापन चलाता है।—१ कुरिन्थियों १३:४, ५.

७. कौन-से शास्त्रीय सिद्धान्त एक पत्नी को परिवार में अपनी परमेश्‍वर-नियुक्‍त भूमिका को पूरा करने में मदद देंगे?

७ अपनी भूमिका में, जो पत्नी ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ जीती है वह अपने पति के साथ होड़ नहीं लगाती या उस पर प्रभुत्व नहीं करना चाहती। वह उसे समर्थन देने में और उसके साथ काम करने में सुखी है। बाइबल कभी-कभी पत्नी के बारे में कहती है कि वह अपने पति की “सम्पत्ति” है, जिससे कोई संदेह नहीं रह जाता कि वह उसका सिर है। (उत्पत्ति २०:३, NW) विवाह के द्वारा वह अपने “पति की व्यवस्था” के अधीन आ जाती है। (रोमियों ७:२) साथ ही, बाइबल उसे एक “सहायक” और एक “सम्पूरक” कहती है। (उत्पत्ति २:२०, NW) वह उन गुणों और योग्यताओं को प्रदान करती है जिनकी कमी उसके पति में है, और वह उसे आवश्‍यक सहारा देती है। (नीतिवचन ३१:१०-३१) बाइबल यह भी कहती है कि पत्नी एक “संगिनी” है, जो अपने विवाह-साथी के साथ-साथ काम करती है। (मलाकी २:१४) ये शास्त्रीय सिद्धान्त एक पति-पत्नी को मदद देते हैं कि एक दूसरे के पद की क़दर करें और एक दूसरे से उचित आदर और गरिमा के साथ व्यवहार करें।

“सुनने के लिये तत्पर”

८, ९. कुछ सिद्धान्त समझाइए जो परिवार में सभी को अपने संचार कौशल सुधारने में मदद देंगे।

८ इस पुस्तक में संचार की ज़रूरत को बारंबार विशिष्ट किया गया है। क्यों? क्योंकि काम ज़्यादा अच्छी तरह बनता है जब लोग एक दूसरे से बात करते और सचमुच एक दूसरे की सुनते हैं। इस बात पर बार-बार ज़ोर दिया गया था कि संचार दोतरफ़ा होता है। शिष्य याकूब ने इसे इस प्रकार व्यक्‍त किया: “हर एक मनुष्य सुनने के लिये तत्पर और बोलने में धीरा . . . हो।”—याकूब १:१९.

९ इस बारे में सतर्क रहना भी महत्त्वपूर्ण है कि हम कैसे बोलते हैं। अविचारित, अप्रिय, या अति आलोचनात्मक वचनों से सफल संचार नहीं होता। (नीतिवचन १५:१; २१:९; २९:११, २०) जब हमारी बात सही होती है तब भी, यदि हम उसे क्रूर, घमंडी, या रूखे ढंग से व्यक्‍त करते हैं, तो यह संभव है कि भला कम बुरा ज़्यादा होगा। हमारी बोली रुचिपूर्ण, ‘सलोनी’ होनी चाहिए। (कुलुस्सियों ४:६) हमारे वचन “चान्दी की टोकरियों में सोनहले सेब” के समान होने चाहिए। (नीतिवचन २५:११) जो परिवार अच्छी तरह संचार करना सीखते हैं उन्होंने सुख प्राप्त करने की ओर एक बड़ा डग भरा है।

प्रेम की अति-महत्त्वपूर्ण भूमिका

१०. विवाह में किस क़िस्म का प्रेम अति-महत्त्वपूर्ण है?

१० शब्द “प्रेम” इस पूरी पुस्तक में बार-बार आता है। क्या आपको याद है कि मुख्यतः किस क़िस्म के प्रेम का उल्लेख किया गया है? यह सच है कि विवाह में रोमानी प्रेम (यूनानी, ईरॉस) एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और सफल विवाहों में पति-पत्नी के बीच बहुत स्नेह और मित्रता (यूनानी, फिलीआ) बढ़ जाती है। लेकिन यूनानी शब्द अगापे द्वारा चित्रित प्रेम और भी महत्त्वपूर्ण है। यह वह प्रेम है जो हम यहोवा, यीशु, और अपने पड़ोसी के लिए विकसित करते हैं। (मत्ती २२:३७-३९) यह वह प्रेम है जो यहोवा मानवजाति के प्रति व्यक्‍त करता है। (यूहन्‍ना ३:१६) कितना अद्‌भुत है कि हम अपने विवाह-साथी और बच्चों के लिए इसी क़िस्म का प्रेम दिखा सकते हैं!—१ यूहन्‍ना ४:१९.

११. प्रेम एक विवाह के भले के लिए कैसे काम करता है?

११ विवाह में यह उन्‍नत प्रेम सचमुच “एकता का सिद्ध बन्ध है।” (कुलुस्सियों ३:१४, NHT) यह एक दम्पति को एकसाथ बाँधता है और उन्हें वह करने की चाह देता है जो एक दूसरे के लिए और उनके बच्चों के लिए सर्वोत्तम है। जब परिवार कठिन परिस्थितियों का सामना करते हैं, तब प्रेम एक होकर स्थिति से निपटने में उनकी मदद करता है। जैसे-जैसे दम्पति की उम्र ढलती है, प्रेम एक दूसरे को सहारा देने और सम्मान देना जारी रखने में उनकी मदद करता है। “प्रेम . . . अपनी भलाई नहीं चाहता, . . . वह सब बातें सह लेता है, सब बातों की प्रतीति करता है, सब बातों की आशा रखता है, सब बातों में धीरज धरता है। प्रेम कभी टलता नहीं।”—१ कुरिन्थियों १३:४-८.

१२. विवाहित दम्पति का परमेश्‍वर के लिए प्रेम उनके विवाह को क्यों मज़बूत बनाता है?

१२ विवाह बंधन ख़ासकर मज़बूत होता है जब वह मात्र विवाह-साथियों के बीच प्रेम के द्वारा नहीं बल्कि मुख्यतः यहोवा के लिए प्रेम के द्वारा जुड़ा होता है। (सभोपदेशक ४:९-१२) क्यों? क्योंकि प्रेरित यूहन्‍ना ने लिखा: “परमेश्‍वर का प्रेम यह है, कि हम उस की आज्ञाओं को मानें।” (१ यूहन्‍ना ५:३) अतः, एक दम्पति को अपने बच्चों को ईश्‍वरीय भक्‍ति में प्रशिक्षित करना चाहिए मात्र इसलिए नहीं कि वे अपने बच्चों से गहरा प्रेम करते हैं बल्कि इसलिए कि यह यहोवा की आज्ञा है। (व्यवस्थाविवरण ६:६, ७) उन्हें अनैतिकता से दूर रहना चाहिए सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वे एक दूसरे से प्रेम करते हैं बल्कि मुख्यतः इसलिए कि वे यहोवा से प्रेम करते हैं, जो “व्यभिचारियों, और परस्त्रीगामियों का न्याय करेगा।” (इब्रानियों १३:४) यदि एक साथी विवाह में बड़ी समस्याएँ उत्पन्‍न करता है, तो भी यहोवा के लिए प्रेम दूसरे को प्रेरित करेगा कि बाइबल सिद्धान्तों पर चलता रहे। सचमुच, सुखी हैं वे परिवार जिनमें एक दूसरे के लिए प्रेम को यहोवा के लिए प्रेम के द्वारा मज़बूत किया गया है!

परमेश्‍वर की इच्छा पर चलनेवाला परिवार

१३. परमेश्‍वर की इच्छा पर चलने का दृढ़-निश्‍चय व्यक्‍तियों की मदद कैसे करेगा कि अपनी आँखें सचमुच महत्त्वपूर्ण बातों पर रखें?

१३ एक मसीही का पूरा जीवन परमेश्‍वर की इच्छा पूरी करने पर केंद्रित होता है। (भजन १४३:१०) ईश्‍वरीय भक्‍ति का वास्तव में यही अर्थ है। परमेश्‍वर की इच्छा पर चलना परिवारों की मदद करता है कि अपनी आँखें सचमुच महत्त्वपूर्ण बातों पर रखें। (फिलिप्पियों १:९, १०) उदाहरण के लिए, यीशु ने चिताया: “मैं तो आया हूं, कि मनुष्य को उसके पिता से, और बेटी को उस की मां से, और बहू को उस की सास से अलग कर दूं। मनुष्य के बैरी उसके घर ही के लोग होंगे।” (मत्ती १०:३५, ३६) यीशु की चेतावनी सही निकली क्योंकि उसके अनेक अनुयायियों को परिवार के सदस्यों द्वारा सताया गया है। कितनी दुःखद, पीड़ादायी स्थिति! परन्तु, पारिवारिक बंधनों को यहोवा परमेश्‍वर और यीशु मसीह के लिए हमारे प्रेम से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं होना चाहिए। (मत्ती १०:३७-३९) यदि एक व्यक्‍ति पारिवारिक विरोध के बावजूद धीरज धरता है, तो ईश्‍वरीय भक्‍ति के अच्छे प्रभाव देखने पर विरोधी शायद बदल जाएँ। (१ कुरिन्थियों ७:१२-१६; १ पतरस ३:१, २) यदि ऐसा नहीं होता है, तो भी विरोध के कारण परमेश्‍वर की सेवा करना छोड़ने से कोई स्थायी लाभ नहीं होता।

१४. परमेश्‍वर की इच्छा पर चलने की अभिलाषा माता-पिताओं की मदद कैसे करेगी कि अपने बच्चों के हित में कार्य करें?

१४ परमेश्‍वर की इच्छा पर चलना सही फ़ैसले करने में माता-पिताओं की मदद करता है। उदाहरण के लिए, कुछ समुदायों में माता-पिता अकसर बच्चों को अपनी पूँजी समझते हैं, और वे अपने बच्चों पर भरोसा करते हैं कि उनके बुढ़ापे में वे उनकी सेवा करेंगे। जबकि सयाने बच्चों के लिए यह सही और उचित है कि अपने बूढ़े होते माता-पिताओं की सेवा करें, इसका यह अर्थ नहीं कि माता-पिता अपने बच्चों पर एक भौतिकवादी जीवन-शैली अपनाने के लिए दबाव डालें। यदि माता-पिता अपने बच्चों को इस प्रकार बड़ा करते हैं कि वे भौतिक सम्पत्ति को आध्यात्मिक बातों से अधिक महत्त्व दें, तो वे उनका भला नहीं करते।—१ तीमुथियुस ६:९.

१५. तीमुथियुस की माँ, यूनीके किस प्रकार एक ऐसी जनक का अत्युत्तम उदाहरण थी जो परमेश्‍वर की इच्छा पर चली?

१५ इस सम्बन्ध में पौलुस के युवा मित्र तीमुथियुस की माँ, यूनीके एक उत्तम उदाहरण है। (२ तीमुथियुस १:५) हालाँकि वह एक अविश्‍वासी से विवाहित थी, यूनीके ने तीमुथियुस की नानी, लोइस के साथ मिलकर सफलतापूर्वक तीमुथियुस को बड़ा किया कि ईश्‍वरीय भक्‍ति का पीछा करे। (२ तीमुथियुस ३:१४, १५) जब तीमुथियुस बड़ा हो गया, तब यूनीके ने उसे पौलुस के मिशनरी साथी के रूप में राज्य-प्रचार कार्य करने के लिए घर छोड़कर जाने दिया। (प्रेरितों १६:१-५) वह कितनी प्रसन्‍न हुई होगी जब उसका पुत्र एक उल्लेखनीय मिशनरी बना! एक वयस्क के रूप में उसकी ईश्‍वरीय भक्‍ति ने दिखाया कि उसे अच्छा प्रारंभिक प्रशिक्षण मिला था। निश्‍चित ही, यूनीके को तीमुथियुस की विश्‍वासयोग्य सेवकाई के समाचार मिलने पर संतुष्टि और आनन्द मिला, जबकि संभवतः उसे घर में उसका अभाव खटकता हो।—फिलिप्पियों २:१९, २०.

परिवार और आपका भविष्य

१६. एक पुत्र होने के नाते, यीशु ने कैसी उचित चिन्ता दिखायी, लेकिन उसका मुख्य उद्देश्‍य क्या था?

१६ यीशु का पालन-पोषण एक धर्म-परायण परिवार में हुआ, और वयस्क होने पर उसने अपनी माँ के लिए एक पुत्र की उचित चिन्ता दिखायी। (लूका २:५१, ५२; यूहन्‍ना १९:२६) लेकिन, यीशु का मुख्य उद्देश्‍य था परमेश्‍वर की इच्छा पूरी करना, और उसके लिए इसमें यह सम्मिलित था कि मनुष्यों के लिए अनन्त जीवन का आनन्द लेने का मार्ग खोले। उसने यह तब किया जब उसने पापी मानवजाति के लिए एक छुड़ौती के रूप में अपना परिपूर्ण मानव जीवन दे दिया।—मरकुस १०:४५; यूहन्‍ना ५:२८, २९.

१७. जो परमेश्‍वर की इच्छा पर चलते हैं उनके लिए यीशु के विश्‍वासी मार्ग ने कौन-सी शानदार प्रत्याशाएँ संभव बनायीं?

१७ यीशु की मृत्यु के बाद, यहोवा ने उसे स्वर्गीय जीवन के लिए जी उठाया और उसे बड़ा अधिकार दिया, अंततः उसे स्वर्गीय राज्य में राजा के रूप में बिठाया। (मत्ती २८:१८; रोमियों १४:९; प्रकाशितवाक्य ११:१५) यीशु के बलिदान ने कुछ मनुष्यों के लिए यह संभव बनाया कि वे उस राज्य में उसके साथ शासन करने के लिए चुने जाएँ। इसने बाक़ी की सत्हृदयी मानवजाति के लिए भी एक परादीसीय स्थिति में पुनःस्थापित पृथ्वी पर परिपूर्ण जीवन का आनन्द लेने का मार्ग खोला। (प्रकाशितवाक्य ५:९, १०; १४:१, ४; २१:३-५; २२:१-४) आज हमारे पास एक सबसे बड़ा विशेषाधिकार यह है कि अपने पड़ोसियों को यह शानदार सुसमाचार दें।—मत्ती २४:१४.

१८. परिवारों और व्यक्‍तियों, दोनों को कौन-सा अनुस्मारक और क्या प्रोत्साहन दिया गया है?

१८ जैसा प्रेरित पौलुस ने दिखाया, ईश्‍वरीय भक्‍ति का जीवन जीना यह प्रतिज्ञा देता है कि लोग “आने वाले” जीवन में इन आशिषों को प्राप्त कर सकते हैं। निश्‍चित ही, यह सुख पाने का सर्वोत्तम मार्ग है! याद रखिए, “संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्‍वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा।” (१ यूहन्‍ना २:१७) अतः, चाहे आप एक बच्चे हैं या जनक, पति हैं या पत्नी, अथवा एकल वयस्क हैं जिसके पास बच्चे हैं या नहीं, परमेश्‍वर की इच्छा पर चलने की कोशिश कीजिए। जब आप दबाव में हैं या नितांत कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, तब भी यह कभी मत भूलिए कि आप जीवते परमेश्‍वर के सेवक हैं। अतः, ऐसा हो कि आपके कार्य यहोवा को आनन्द लाएँ। (नीतिवचन २७:११) और ऐसा हो कि आपके आचरण से आपको अभी सुख मिले और आनेवाले नए संसार में अनन्त जीवन!

ये बाइबल सिद्धान्त . . . सुखी होने में आपके परिवार की कैसे मदद कर सकते हैं?

आत्म-संयम विकसित किया जा सकता है।—गलतियों ५:२२, २३.

मुखियापन के प्रति उचित दृष्टिकोण होने से, पति-पत्नी परिवार के हितों की चिन्ता करते हैं।—इफिसियों ५:२२-२५, २८-३३; ६:४.

संचार में सुनना सम्मिलित है।—याकूब १:१९.

यहोवा के लिए प्रेम एक विवाह को मज़बूत करेगा।—१ यूहन्‍ना ५:३.

परमेश्‍वर की इच्छा पर चलना एक परिवार के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है।—भजन १४३:१०; १ तीमुथियुस ४:८.

अविवाहित अवस्था की देन

सभी जन विवाह नहीं करते। और सभी विवाहित दम्पति बच्चे पैदा करने का चुनाव नहीं करते। यीशु अविवाहित था, और उसने कहा कि यदि “स्वर्ग के राज्य के लिये” अविवाहित रहें तो वह एक देन है। (मत्ती १९:११, १२) प्रेरित पौलुस ने भी विवाह न करने का चुनाव किया। उसने अविवाहित और विवाहित, दोनों ही अवस्थाओं को “बरदान” कहा। (१ कुरिन्थियों ७:७, ८, २५-२८) अतः, हालाँकि इस पुस्तक में अधिकांशतः उन विषयों पर चर्चा की गयी है जो विवाह और बच्चों के पालन-पोषण से सम्बन्धित हैं, हमें अविवाहित रहने की या विवाहित होने परन्तु निःसन्तान रहने की संभावित आशिषों और प्रतिफलों को नहीं भूलना चाहिए।

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