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  • आरंभिक मसीहियत और सरकार
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1996
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1996
w96 5/1 पेज 5-8

आरंभिक मसीहियत और सरकार

अपनी मृत्यु से कुछ घंटे पहले यीशु ने अपने शिष्यों से कहा: “तुम संसार के नहीं, बरन मैं ने तुम्हें संसार में से चुन लिया है इसी लिये संसार तुम से बैर रखता है।” (यूहन्‍ना १५:१९) लेकिन, क्या इसका यह अर्थ है कि मसीही इस संसार के अधिकारियों के प्रति एक शत्रुतापूर्ण मनोवृत्ति अपना लेते?

सांसारिक नहीं परन्तु शत्रुतापूर्ण भी नहीं

प्रेरित पौलुस ने रोम में रह रहे मसीहियों से कहा: “हर एक व्यक्‍ति प्रधान अधिकारियों के आधीन रहे।” (रोमियों १३:१) उसी प्रकार, प्रेरित पतरस ने लिखा: “प्रभु के लिये मनुष्यों के ठहराए हुए हर एक प्रबन्ध के आधीन में रहो, राजा के इसलिये कि वह सब पर प्रधान है। और हाकिमों के, क्योंकि वे कुकर्मियों को दण्ड देने और सुकर्मियों की प्रशंसा के लिये उसके भेजे हुए हैं।” (१ पतरस २:१३, १४) सरकार और उसके विधिवत्‌ नियुक्‍त प्रतिनिधियों के प्रति अधीनता स्पष्ट रूप से आरंभिक मसीहियों के बीच एक स्वीकृत सिद्धान्त था। उन्होंने विधि-पालक नागरिक होने और सभी मनुष्यों के साथ शान्तिपूर्वक रहने का प्रयास किया।—रोमियों १२:१८.

“चर्च और सरकार” विषय के नीचे, धर्म विश्‍वकोश (अंग्रेज़ी) कहता है: “सा.यु. की पहली तीन शताब्दियों में मसीही गिरजा काफ़ी हद तक शासकीय रोमी समाज से अलग था . . .। फिर भी, मसीही अगुवों ने मसीही विश्‍वास द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्दर, . . . रोमी कानून का आज्ञापालन और सम्राट के प्रति निष्ठा सिखायी।”

उपासना नहीं, सम्मान

मसीही रोमी सम्राट के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं थे। वे उसके अधिकार का आदर करते थे और उसे उसके पद के योग्य सम्मान देते थे। सम्राट नीरो के शासन के दौरान, प्रेरित पतरस ने रोमी साम्राज्य के विभिन्‍न भागों में रह रहे मसीहियों को लिखा: “सब का आदर करो, . . . राजा का सम्मान करो।” (१ पतरस २:१७) यूनानी-भाषी संसार में शब्द “राजा” का प्रयोग न केवल स्थानीय राजाओं के लिए बल्कि रोमी सम्राट के लिए भी किया जाता था। प्रेरित पौलुस ने रोमी साम्राज्य की राजधानी में रह रहे मसीहियों को सलाह दी: “हर एक का हक्क चुकाया करो, . . . जिस का आदर करना चाहिए उसका आदर करो।” (रोमियों १३:७) निश्‍चित ही रोमी सम्राट का आदर किया जाना था। कुछ समय बाद, उसने उपासना की भी माँग की। लेकिन, यहाँ आरंभिक मसीहियों ने हद बाँध दी।

कहा जाता है कि सा.यु. दूसरी शताब्दी में एक रोमी राज्यपाल के सामने अपने मुक़द्दमे में पॉलीकार्प ने घोषित किया: “मैं एक मसीही हूँ। . . . हमें सिखाया गया है कि . . . परमेश्‍वर द्वारा ठहरायी गयी शक्‍तियों और अधिकारियों को उचित आदर दें।” लेकिन, पॉलीकार्प ने सम्राट की उपासना करने के बजाय मरने का चुनाव किया। दूसरी-शताब्दी धर्म-समर्थक अन्ताकिया के थियोफिलस ने लिखा: “मैं सम्राट का सम्मान करूँगा बजाय इसके कि वास्तव में उसकी उपासना करूँ, अपितु उसके लिए प्रार्थना करूँगा। परन्तु परमेश्‍वर, जीवते और सच्चे परमेश्‍वर की मैं उपासना करता हूँ।”

सम्राट के सम्बन्ध में उपयुक्‍त प्रार्थनाएँ सम्राट उपासना या राष्ट्रीयवाद से निश्‍चित ही नहीं जुड़ी थीं। प्रेरित पौलुस ने उनका उद्देश्‍य समझाया: “अब मैं सब से पहिले यह उपदेश देता हूं, कि बिनती, और प्रार्थना, और निवेदन, और धन्यवाद, सब मनुष्यों के लिये किए जाएं। राजाओं और सब ऊंचे पदवालों के निमित्त इसलिये कि हम विश्राम और चैन के साथ सारी भक्‍ति और गम्भीरता से जीवन बिताएं।”—१ तीमुथियुस २:१, २.

“समाज की मुख्यधारा से बाहर”

आरंभिक मसीहियों के इस आदरपूर्ण आचरण से उन्हें उस संसार की मित्रता नहीं मिली जिसमें वे रहते थे। फ्रांसीसी इतिहासकार ए. आमान बताता है कि आरंभिक मसीही “समाज की मुख्यधारा से बाहर रहते थे।” वे असल में दो समाजों की मुख्यधारा से बाहर रहते थे, यहूदी और रोमी, और उन्हें दोनों से काफ़ी पक्षपात और ग़लतफ़हमी का सामना करना पड़ता था।

उदाहरण के लिए, जब यहूदी अगुवों ने प्रेरित पौलुस पर झूठे आरोप लगाए, तब उसने रोमी हाकिम के सामने अपनी सफ़ाई में कहा: “मैं ने न तो यहूदियों की व्यवस्था का और न मन्दिर का, और न कैसर का कुछ अपराध किया है। . . . मैं कैसर की दोहाई देता हूं।” (प्रेरितों २५:८, ११) इस बात से अवगत कि यहूदी उसकी हत्या करने का षड्यंत्र बना रहे थे, पौलुस ने नीरो की दोहाई दी, और इस प्रकार रोमी सम्राट के अधिकार को स्वीकार किया। उसके बाद, रोम में अपने पहले मुक़द्दमे में, ऐसा प्रतीत होता है कि पौलुस निर्दोष माना गया। लेकिन बाद में उसे फिर से क़ैद कर लिया गया, और कहा जाता है कि उसे नीरो के आदेश पर मृत्युदण्ड दिया गया।

रोमी समाज में आरंभिक मसीहियों की कठिन स्थिति के सम्बन्ध में, समाज-विज्ञानी और धर्म-विज्ञानी अरनॆस्ट ट्रॉएल्टच ने लिखा: “ऐसे सभी पद और कार्य वर्जित थे जिनका मूर्तिपूजा या सम्राट की पूजा से कोई सम्बन्ध था, या जिनका रक्‍तपात या मृत्युदण्ड से कोई लेना-देना था, या वे जो मसीहियों को विधर्मी अनैतिकता के संपर्क में लाते।” क्या इस स्थिति ने मसीहियों और सरकार के बीच शान्तिपूर्ण और परस्पर आदरपूर्ण सम्बन्ध की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी?

कैसर को उसका “हक्क” देना

जब यीशु ने कहा कि “जो कैसर का है, वह कैसर को; और जो परमेश्‍वर का है, वह परमेश्‍वर को दो,” तब उसने एक सूत्र दिया जो रोमी सरकार, या वास्तव में किसी भी सरकार के प्रति मसीही आचरण को निर्देशित करता। (मत्ती २२:२१) यीशु के अनुयायियों को दी गयी यह सलाह अनेक राष्ट्रवादी यहूदियों की मनोवृत्ति की पूर्ण विषमता में थी जो रोमी प्रभुत्व से खिजते थे और एक विदेशी शक्‍ति को कर देने की वैधता पर प्रश्‍न उठाते थे।

बाद में, पौलुस ने रोम में रह रहे मसीहियों से कहा: “अतः केवल प्रकोप के कारण ही नहीं, परन्तु विवेक के कारण भी अधीनता में रहना अनिवार्य है। इसी कारण तुम भी कर चुकाते हो, क्योंकि अधिकारी [सरकारी “प्रधान अधिकारी”] परमेश्‍वर के सेवक हैं जो इसी सेवा में लगे हैं। इसलिए जिसे जो देना है, उसे दो; जिसे कर चुकाना है, उसका कर चुकाओ; जिसे चुंगी देना है, उसे चुंगी दो।” (रोमियों १३:५-७, NHT) जबकि मसीही संसार का भाग नहीं थे वे ईमानदार, कर-देनेवाले नागरिक होने के लिए बाध्य थे, सरकार को उसकी सेवाओं का भुगतान करते थे।—यूहन्‍ना १७:१६.

लेकिन क्या यीशु के शब्द कर देने तक ही सीमित हैं? चूँकि यीशु ने स्पष्ट रूप से यह परिभाषित नहीं किया कि कैसर का क्या है और परमेश्‍वर का क्या है, ऐसे सीमान्त मामले होते हैं जिनका फ़ैसला सम्बन्धित परिस्थितियों के अनुसार या सम्पूर्ण बाइबल की हमारी समझ के अनुसार किया जाना है। दूसरे शब्दों में, यह फ़ैसला करने में कि एक मसीही कैसर को कौन-सी चीजें दे सकता है, कभी-कभी मसीही का बाइबल सिद्धान्तों द्वारा प्रबुद्ध अंतःकरण अंतर्ग्रस्त होता।

दो प्रतिद्वंद्वी माँगों के बीच ध्यानपूर्ण संतुलन

अनेक लोग अकसर यह भूल जाते हैं कि यह कहने के बाद कि जो कैसर का है वह उसे दिया जाना चाहिए, यीशु ने आगे कहा: “और जो परमेश्‍वर का है, वह परमेश्‍वर को दो।” प्रेरित पतरस ने दिखाया कि मसीहियों की प्राथमिकता क्या है। “राजा” या सम्राट और उसके “हाकिमों” के प्रति अधीनता की सलाह देने के तुरन्त बाद, पतरस ने लिखा: “अपने आप को स्वतंत्र जानो पर अपनी इस स्वतंत्रता को बुराई के लिये आड़ न बनाओ, परन्तु अपने आप को परमेश्‍वर के दास समझकर चलो। सब का आदर करो, भाइयों से प्रेम रखो, परमेश्‍वर से डरो, राजा का सम्मान करो।” (१ पतरस २:१६, १७) प्रेरित ने दिखाया कि मसीही परमेश्‍वर के दास हैं, किसी मानव शासक के नहीं। जबकि उन्हें सरकार के प्रतिनिधियों के प्रति उचित सम्मान और आदर दिखाना चाहिए, उन्हें ऐसा परमेश्‍वर के डर में करना चाहिए, जिसके नियम सर्वोच्च हैं।

सालों पहले पतरस ने इस विषय में कोई संदेह नहीं छोड़ा था कि परमेश्‍वर के नियम मनुष्य के नियमों से उत्तम हैं। यहूदी महासभा एक प्रशासनिक निकाय थी जिसे रोमियों ने वैधानिक और धार्मिक, दोनों अधिकार दिए थे। जब उसने यीशु के अनुयायियों को आदेश दिया कि मसीह के नाम से सिखाना छोड़ दें, तब पतरस और अन्य प्रेरितों ने आदरपूर्वक परन्तु दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया: “मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्‍वर की आज्ञा का पालन करना ही कर्तव्य कर्म है।” (प्रेरितों ५:२९) स्पष्टतया, आरंभिक मसीहियों को परमेश्‍वर के प्रति आज्ञाकारिता और मानव अधिकारियों के प्रति उचित अधीनता के बीच एक ध्यानपूर्ण संतुलन बनाए रखने की ज़रूरत थी। टर्टूलियन ने सा.यु. तीसरी शताब्दी के आरंभ में इस प्रकार कहा: “यदि सब कुछ कैसर का है, तो परमेश्‍वर के लिए क्या बचेगा?”

सरकार के साथ समझौता

जैसे-जैसे समय गुज़रता गया, सरकार के सम्बन्ध में प्रथम-शताब्दी मसीहियों द्वारा अपनायी गयी स्थिति धीरे-धीरे कमज़ोर होती गयी। यीशु और प्रेरितों द्वारा पूर्वकथित धर्मत्याग सा.यु. दूसरी और तीसरी शताब्दियों में पनपता गया। (मत्ती १३:३७, ३८; प्रेरितों २०:२९, ३०; २ थिस्सलुनीकियों २:३-१२; २ पतरस २:१-३) धर्मत्यागी मसीहियत ने रोमी संसार के साथ समझौते किए, उसके विधर्मी त्योहार और तत्वज्ञान अपना लिए, और न सिर्फ़ लोक-सेवा बल्कि सैन्य सेवा भी स्वीकार की।

प्रोफ़ॆसर ट्रॉएल्टच ने लिखा: “तीसरी शताब्दी से स्थिति और भी कठिन हो गयी, क्योंकि समाज के उच्च वर्ग में और अधिक प्रतिष्ठित व्यवसायों में, सेना में और अधिकारिक क्षेत्रों में मसीहियों की संख्या और बढ़ गयी। [ग़ैर-बाइबलीय] मसीही लेखनों के कई परिच्छेदों में इन चीजों में सहभागिता के विरुद्ध तीव्र विरोध है; दूसरी ओर, हम समझौता करने के प्रयास भी पाते हैं—बेचैन अंतःकरण को शान्त करने के लिए रचे गए तर्क . . .। कॉनस्टॆनटाइन के समय से ये कठिनाइयाँ चली गयीं; मसीहियों और विधर्मियों के बीच टकराव समाप्त हो गए, और सरकार के सभी पद खुले छोड़े गए।”

सामान्य युग चौथी शताब्दी के अन्त के निकट, यह मिलावटी, समझौता करनेवाली क़िस्म की मसीहियत रोमी साम्राज्य का राष्ट्र-धर्म बन गयी।

अपने पूरे इतिहास के दौरान, कैथोलिक, ऑर्थोडॉक्स, और प्रोटॆस्टॆंट गिरजों द्वारा चित्रित—मसीहीजगत—ने सरकार के साथ समझौता करना जारी रखा है। वह उसकी राजनीति में पूर्ण रूप से उलझा है और उसके युद्धों में उसका समर्थन किया है। अनेक निष्कपट गिरजा सदस्य जो इससे हैरान हुए हैं वे निःसंदेह यह जानकर ख़ुश होंगे कि आज ऐसे भी मसीही हैं जो सरकार के साथ अपने सम्बन्ध में प्रथम-शताब्दी मसीहियों की स्थिति को थामे रहते हैं। अगले दो लेखों में इस विषय पर अधिक विस्तार से चर्चा की जाएगी।

[पेज 5 पर तसवीरें]

कैसर नीरो, जिसके विषय में पतरस ने लिखा: “राजा का सम्मान करो”

[चित्र का श्रेय]

Musei Capitolini, Roma

[पेज 6 पर तसवीरें]

पॉलीकार्प ने सम्राट की उपासना करने के बजाय मरने का चुनाव किया

[पेज 7 पर तसवीरें]

आरंभिक मसीही शान्तिपूर्ण, ईमानदार, कर-देनेवाले नागरिक थे

    हिंदी साहित्य (1972-2025)
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