गीत 45
आगे बढ़!
1. आ-गे बढ़, रुक-ना मत! तू त-रक्-की कर!
याह की मर-ज़ी कर-ने सीख-ता जा न-ए हु-नर
अप-नी से-वा नि-खार-ने की को-शिश कर
याह की आ-शीष हो तुझ पर।
हम कि-सान, खेत है ये दु-नि-या
राज के बीज है दि-लों में बो-ना
हल पे हाथ र-खा है पी-छे दे-खें ना
र-खें याह पे भ-रो-सा।
2. आ-गे बढ़, रुक-ना मत! बन जा तू नि-डर!
ले-के राज का पै-ग़ाम, जा-ना है ह-में हर घर
चा-हे हम पे हो लाख दुश्-मन की न-ज़र
से-वा में ना छोड़ क-सर!
र-खी है यी-शु ने जो मि-साल
उस पे चल-ना ह-में है हर हाल
जा-ति-जा-ति के लोग हों-गे तब नि-हाल
जब च-लें यी-शु-सी चाल।
3. आ-गे बढ़, रुक-ना मत! कर-ना तै-या-री
उन-से मिल-ना दो-बा-रा जिन-में रु-चि जा-गी
याह की ता-क़त जो-शी-ला ब-ना-ए-गी
कर स-कें याह की स्तु-ति।
पत्-थर दिल सच्-चा-ई से पिघ-लें
जब उ-ठे-गा पर-दा आँ-खों से
उन्-हें याह की से-वा में म-दद क-रें
वो भी याह का प्यार सम-झें।
(फिलि. 1:27; 3:16; इब्रा. 10:39 भी देखिए।)