घोंघा ज्वर क्या इसका अन्त निकट दिखता है?
नाइजीरिया में सजग होइए! संवाददाता द्वारा
चिकित्सा और विज्ञान के क्षेत्र में आश्चर्यकारी उपलब्धियों के बावजूद, मानवजाति अपनी कुछ सदियों-पुरानी समस्याओं को सुलझाने में समर्थ नहीं है। यह घोंघा ज्वर पर क़ाबू पाने के लिए किए गए प्रयासों के बारे में सच रहा है।
प्रतीयमानतः, इसका इलाज करने के सभी साधन उपलब्ध हैं। डॉक्टर इससे सम्बन्धित परजीवी का जीवन-चक्र समझते हैं। इस रोग का निदान आसानी से किया जाता है। इसका इलाज करने के लिए प्रभावकारी दवाएँ उपलब्ध हैं। सरकारी नेता इसकी रोकथाम के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए उत्सुक हैं। फिर भी, इस रोग का अन्त निकट नहीं दिखता जो अफ्रीका, एशिया, करेबियन, मध्य पूर्व, और दक्षिण अमरीका में करोड़ों लोगों को पीड़ित करता है।
घोंघा ज्वर (जिसे बिलहार्जिया रुग्णता या शिस्टोसोमा भी कहा जाता है) ने हज़ारों सालों से मनुष्य को पीड़ित किया है। मिस्री परिरक्षित-शवों में मिले कैल्सीभूत अंडे इस बात का प्रमाण देते हैं कि फिरौन-राजाओं के दिनों में इस रोग ने मिस्रियों को पीड़ित किया था। तीस शताब्दियों बाद भी, यही रोग मिस्र को पीड़ित किए हुए है, उस देश के लाखों निवासियों का स्वास्थ्य खा रहा है। नील डेल्टा के कुछ गाँवों में, हर १० व्यक्तियों में से ९ इससे संक्रमित हुए हैं।
मिस्र उन ७४ या अधिक देशों में से बस एक है जहाँ घोंघा ज्वर स्थानिक-मारी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के आँकड़ों के अनुसार, संसार-भर में २० करोड़ लोग इस रोग से संक्रमित हैं। इसके २ करोड़ जीर्ण पीड़ितों में से, लगभग २,००,००० हर साल मरते हैं। कहा जाता है कि उष्णकटिबन्धी परजीविक रोगों में, जहाँ तक इससे पीड़ित लोगों की संख्या, और इससे हुई सामाजिक और आर्थिक हानि की बात है, घोंघा ज्वर मलेरिया के बाद दूसरे नम्बर पर है।
परजीवी का जीवन-चक्र
घोंघा ज्वर को समझने का, और इस प्रकार यह जानने का कि कैसे इसकी रोकथाम और इलाज करें, अर्थ है उस परजीवी को समझना जो इसका कारण है। मुख्य बात यह है: पीढ़ी-दर-पीढ़ी विद्यमान रहने और पनपने के लिए, इस परजीवी को दो परपोषियों की ज़रूरत होती है, दो जीवित प्राणी जिनके अन्दर यह पोषित और विकसित हो सकता है। एक है स्तनधारी, जैसे मनुष्य; दूसरा है मीठे पानी में रहनेवाला घोंघा।
ऐसा होता है। जब परजीवी से संक्रमित व्यक्ति एक तलाब, झील, धारा, या नदी के पानी में मूत्र या मल त्यागता है, तब उसमें साथ-साथ परजीवी के अंडे बाहर आते हैं—संभवतः, एक दिन में दस लाख तक। ये अंडे इतने छोटे होते हैं कि सूक्ष्मदर्शी की सहायता के बिना नहीं देखे जा सकते। जब ये अंडे पानी में जाते हैं, तब वे फूट जाते हैं और परजीवी बाहर निकलते हैं। परजीवी अपने शरीर के महीन बालों का प्रयोग करते हुए मीठे पानी के एक घोंघे तक तैरते हैं, जिसके अन्दर वे घुस जाते हैं। घोंघे के अन्दर, अगले चार से सात सप्ताहों तक वे बढ़ते हैं।
जब वे घोंघे को छोड़ते हैं, तब उनके पास एक मनुष्य या दूसरे स्तनधारी को ढूँढने और उसमें प्रवेश करने के लिए केवल ४८ घंटे होते हैं। नहीं तो, वे मर जाएँगे। एक ऐसे परपोषी तक पहुँचने पर, जो पानी में आया है, परजीवी चमड़ी में छेद करके रक्तधारा में प्रवेश करता है। इससे व्यक्ति को कुछ खुजली हो सकती है, जबकि अकसर उसे पता नहीं चलता कि उस पर हमला हुआ है। रक्तधारा के अन्दर, परजीवी मूत्राशय या आँतों की रक्त-वाहिकाओं तक पहुँच जाता है, जो कि परजीवी की प्रजाति पर निर्भर करता है। कुछ ही सप्ताहों में परजीवी बढ़कर वयस्क नर और मादा कीड़े बन जाते हैं जो लम्बाई में २५ मिलीमीटर तक होते हैं। संगम के बाद, मादा परपोषी की रक्तधारा में अंडे देना शुरू करती है, और इस प्रकार चक्र पूरा होता है।
लगभग आधे अंडे परपोषी के शरीर से मल में (आन्त्र घोंघा ज्वर में) या मूत्र में (मूत्रीय घोंघा ज्वर में) निकल जाते हैं। बाक़ी अंडे शरीर में रह जाते हैं और महत्त्वपूर्ण अंगों को हानि पहुँचाते हैं। जैसे-जैसे रोग बढ़ता है, मरीज़ को बुख़ार, पेट में सूजन, और आन्तरिक रक्तस्राव हो सकता है। अंततः इस रोग के कारण मूत्राशय कैंसर हो सकता है या जिगर या गुरदे ख़राब हो सकते हैं। कुछ मरीज़ बाँझ या अशक्त हो जाते हैं। दूसरे मर जाते हैं।
समाधान और समस्याएँ
इस रोग के फैलाव को रोकने के लिए, कम-से-कम चार काम किए जा सकते हैं। यदि इनमें से कोई एक क़दम भी विश्वव्यापी रूप से उठाया जाए, तो यह रोग दूर किया जा सकता है।
पहला क़दम है पानी के स्रोतों में घोंघों को समाप्त करना। घोंघे परजीवी के विकास के लिए अत्यावश्यक हैं। घोंघे नहीं, तो घोंघा ज्वर नहीं।
मुख्यतः एक ऐसा विष तैयार करने का प्रयास किया गया है जो इतना तेज़ हो कि घोंघों को मार डाले परन्तु वातावरण को प्रदूषित न करे। दशक १९६० और १९७० में, घोंघों को मारने के प्रयास में बड़े-बड़े जलाशयों के सभी जीव मारे गए। मिस्र के टेओडोर बिलहार्ज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट में एक ऐसा मोलस्क-नाशक (एक पदार्थ जो घोंघों का नाश करता है) ढूँढने के प्रयास किए गए हैं जो दूसरे प्रकार के जीवों को हानि नहीं पहुँचाता। इंस्टीट्यूट का अध्यक्ष, डॉ. अली ज़ेन ऎल अबदीन ऐसे पदार्थ के बारे में टिप्पणी करता है: “उसे ऐसे पानी में फेंका जाना है, जो फ़सलों के लिए प्रयोग होता है, जिसे लोग और जानवर पीते हैं, और जिसमें मछलियाँ रहती हैं, सो हमें शत-प्रतिशत निश्चित होना है कि इनमें से कोई भी प्रभावित न हो।”
दूसरा क़दम है मनुष्यों में परजीवियों को नाश करना। दशक १९७० के मध्य तक, इलाज में ऐसी दवाएँ होती थीं जो अनेक गौण प्रभाव और जटिलताएँ उत्पन्न करती थीं। अकसर, इलाज में कई पीड़ादायी इंजॆक्शन लगवाने पड़ते थे। कुछ लोगों ने शिक़ायत की कि इलाज तो रोग से भी बदतर था! तब से, प्राज़ीक्वॉन्टॆल जैसी नयी दवाएँ निकाली गयी हैं जो घोंघा ज्वर के लिए प्रभावकारी हैं और इन्हें मुँह से लिया जा सकता है।
जबकि ये दवाएँ अफ्रीका और दक्षिण अमरीका में, क्षेत्र प्रयोगों में सफल साबित हुई हैं, अनेक देशों के लिए एक मुख्य समस्या रही है क़ीमत। डब्ल्यू.एच.ओ. ने १९९१ में शोक मनाया: “स्थानिक-मारी के देश बड़े पैमाने के [घोंघा ज्वर] नियंत्रण कार्यक्रम चलाने में समर्थ नहीं हैं क्योंकि इलाज का ख़र्च बहुत अधिक है; दवा की दुर्लभ मुद्रा (हार्ड करॆंसी) क़ीमत ही प्रायः अधिकतर अफ्रीकी स्वास्थ्य मंत्रालयों के कुल प्रति-व्यक्ति बजट से अधिक होती है।”
वहाँ भी जहाँ मरीज़ को दवाएँ मुफ़्त दी जाती हैं, अनेक लोग इलाज के लिए नहीं जाते। क्यों? एक कारण है कि इस रोग से मरनेवालों की दर अपेक्षाकृत कम है, इसलिए कुछ लोग इसे एक गंभीर समस्या नहीं समझते। एक और कारण है कि लोग हमेशा रोग के लक्षण नहीं पहचान पाते। अफ्रीका के कुछ भागों में, पेशाब में खून आना (रोग का एक प्रारंभिक लक्षण) इतनी आम बात है कि इसे बड़े होने का एक सामान्य भाग समझा जाता है।
तीसरा क़दम है अंडों को पानी के स्रोतों से दूर रखना। यदि स्थानीय धाराओं और तालाबों के संदूषण को रोकने के लिए शौचालय बनाए जाएँ और यदि सभी उनको प्रयोग करें, तो घोंघा ज्वर होने का ख़तरा कम किया जा सकता है।
विश्वव्यापी अध्ययन दिखाते हैं कि पाइप के द्वारा पानी सप्लाई करने और शौचालय बनाने के बाद रोग में उल्लेखनीय गिरावट आयी है, लेकिन ये प्रबन्ध इसे रोकने की गारंटी नहीं देते। “मात्र एक व्यक्ति द्वारा नहर में मल त्यागना चक्र जारी रखने के लिए काफ़ी है,” वैज्ञानिक ऐलॆन फ़ॆनविक कहता है, जिसने २० से अधिक सालों से घोंघा ज्वर पर शोध किया है। मलजल के टूटे पाइपों का भी ख़तरा रहता है जिनमें से संक्रमित मल जल स्रोतों में रिसता है।
चौथा क़दम है लोगों को ऐसे पानी से दूर रखना जो परजीवी द्वारा संदूषित है। यह भी उतना आसान नहीं है जितना कि शायद दिखे। अनेक देशों में जो झीलें, धाराएँ, और नदियाँ पीने का पानी प्रदान करती हैं वही नहाने, खेतों की सिंचाई करने, और कपड़े धोने के लिए भी प्रयोग की जाती हैं। मछुआरे हर दिन पानी में जाते हैं। और उष्णकटिबन्धी क्षेत्रों की तेज़ गर्मी में, बच्चे एक जलाशय में तैरने से नहीं चूक सकते।
भविष्य के लिए क्या आशा?
इसमें कोई संदेह नहीं कि निष्कपट लोग और संगठन घोंघा ज्वर से लड़ने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं और कि बहुत प्रगति हुई है। शोधकर्ता तो इसके लिए एक टीका तैयार करने में भी लगे हुए हैं।
फिर भी, इस रोग को दूर करने की संभावना बहुत कम दिखायी पड़ती है। फ्रॆंच चिकित्सा पत्रिका ला रॆव्यू ड्यू प्राटीसीएन में डॉ. एम. लारीवयर कहता है: “सफलताओं के बावजूद . . . , यह रोग समाप्त होने से कहीं दूर है।” जबकि घोंघा ज्वर की रोकथाम और इलाज कुछ व्यक्तियों के लिए एक वास्तविकता हो सकता है, परन्तु इस समस्या का विश्वव्यापी समाधान शायद परमेश्वर के नए संसार के आने तक न मिले। बाइबल प्रतिज्ञा करती है कि वहाँ “कोई निवासी न कहेगा कि मैं रोगी हूं।”—यशायाह ३३:२४.
[पेज 15 पर तसवीर]
जब मनुष्य संदूषित पानी में जाते हैं, तब वे घोंघा ज्वर देनेवाले परजीवियों से संक्रमित हो सकते हैं