युवा लोग पूछते हैं . . .
मैं किस तरह और भी ज़्यादा मिलनसार बन सकता हूँ?
“शुरू से ही मैं बहुत ज़्यादा बातें नहीं करता था। मुझे लगता था कि मैं ठीक से कभी बात ही नहीं कर सकता। इसलिए अगर मैं कुछ बोलता भी हूँ तो मुझे लगता था कि लोग मेरी बातें सुनना पसंद नहीं करेंगे। मेरी माँ बहुत ज़्यादा शर्मीली है और शायद इसीलिए मैं भी वैसा ही हूँ।”—ऑर्टी।
क्या आपने कभी यह सोचा कि काश, मैं इतनी शर्मीली न होती? काश, मैं लोगों के साथ थोड़ा और दोस्ताना होता और मेल-जोल बढ़ा सकता? जैसे कि इस विषय पर पिछले लेख में चर्चा की गयी थी, शर्मीलापन एक आम समस्या है।a सो, अगर आप थोड़े-बहुत चुप-चुप, गंभीर या अपने आप में रहना पसंद भी करते हों, तो यह कोई बुरी बात नहीं है। मगर हद-से-ज़्यादा शर्माना एक समस्या हो सकती है। इसका एक नुकसान यह हो सकता है कि आप शायद दोस्तों की संगती का आनंद नहीं उठा पाएँ। और अगर आप किसी पार्टी वगैरह में जाते हैं, तो भी आपको वहाँ बेचैनी महसूस होगी, और आप वहाँ कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाएँगे।
बड़े लोगों को भी अकसर शर्मीलेपन से जूझना पड़ता है। बैरीb मसीही कलीसिया में एक प्राचीन है। मगर समूह के साथ होने पर वह चुप्पी साध लेता है। वह कहता है: “मुझे ऐसा लगता है कि मैं बुद्धिमानी की कोई भी बात कर ही नहीं सकता।” उसकी पत्नी, डाएना को भी इसी तरह की समस्या है। मगर इसका इलाज क्या है? वह कहती है: “मैं ऐसे लोगों के साथ रहना पसंद करती हूँ जिन्हें किसी से बात करने में झिझक महसूस नहीं होती और जो बहुत ही मिलनसार होते हैं। मुझे मालूम है कि वे बातों का सिलसिला जारी रखेंगे।” ऐसे कौन-से कुछ तरीके हैं जिनसे आप भी ज़्यादा मिलनसार बन सकते हैं?
खुद को नीचा मत समझिए
सबसे पहले, आपको अच्छी तरह से यह जाँच करनी चाहिए कि आप अपने बारे में क्या सोचते हैं। क्या आप हमेशा खुद को किसी लायक नहीं समझते, और अपने दिल से यही कहते हैं कि दूसरे आपको पसंद नहीं करेंगे या आपके पास ऐसी कोई बात ही नहीं है जो दूसरे सुनना पसंद करेंगे? अगर आप अपने बारे में इस तरह के विचार रखते हैं, तो आप कभी किसी से बात कर ही नहीं पाएँगे। ध्यान दीजिए कि यीशु ने आखिर कहा क्या था। उसने कहा था: “अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखना।” (मत्ती १९:१९) इसका मतलब है कि हमें सिर्फ अपने पड़ोसी से ही नहीं बल्कि अपने आप से भी प्रेम रखना है। सो, खुद से कुछ हद तक प्रेम रखना अच्छा और उचित भी है। इससे आपको दूसरों के सामने जाकर बात करने का साहस और भरोसा मिलेगा।
अगर आप सोचते हैं कि आपमें कोई काबिलीयत ही नहीं है तो आपको यह लेख मदद कर सकता है: युवाओं के प्रश्न—व्यावहारिक जवाबc किताब का १२वाँ अध्याय, “मैं अपने आपको पसंद क्यों नहीं करता?” इस जानकारी से आपको यह पता चलेगा कि आपमें भी ऐसे गुण और खूबी हैं जिनकी वज़ह से लोग आपकी तरफ खिंचेंगे। ज़रा यह सोचिए, क्या एक मसीह होना ही अपने आप में यह साबित नहीं करता कि परमेश्वर ने आपमें ज़रूर कोई अनमोल बात देखी है? याद कीजिए, क्या यीशु ने यह नहीं कहा था: “कोई मेरे पास नहीं आ सकता, जब तक पिता, जिस ने मुझे भेजा है, उसे खींच न ले”?—यूहन्ना ६:४४.
दूसरों में दिलचस्पी लीजिए
नीतिवचन १८:१ हमें चिताता है: “जो औरों से अलग हो जाता है, वह अपनी ही इच्छा पूरी करने के लिये ऐसा करता है।” जी हाँ, अगर आप दूसरों से खुद को अलग रखते हैं और अपने आप में ही मगन रहते हैं तो मुमकिन है कि आप अपने बारे में ही ज़्यादा सोचते रहेंगे। फिलिप्पियों २:४ हमें “अपनी ही हित की नहीं, बरन दूसरों की हित की भी चिन्ता” करने के लिए उकसाता है। जब आप दूसरों की हित और ज़रूरतों की ओर ध्यान देने लगते हैं, तो आप अपने बारे में ज़्यादा नहीं सोचेंगे। और जितना ज़्यादा आप दूसरों की परवाह करने की कोशिश करेंगे, उतना ही ज़्यादा खुद उन्हें और अच्छी तरह से जानने की इच्छा आप में जगेगी।
लुदिया की ही बात लीजिए जो दोस्ताना होने और पहुनाई दिखाने में एक बढ़िया मिसाल थी। बाइबल हमें बताती है कि जब उसने प्रेरित पौलुस की बातें सुनी और बपतिस्मा लिया, तब उसने पौलुस और उसके साथियों से बिनती करके कहा: “यदि तुम मुझे प्रभु की विश्वासिनी समझते हो, तो चलकर मेरे घर में रहो।” (प्रेरितों १६:११-१५) हालाँकि उसे विश्वासिनी बने दो-चार पल ही हुए थे, मगर उसने इन भाइयों से जान-पहचान बढ़ाने में पहल की और इसमें कोई शक नहीं कि उसे इसके लिए कई आशीषें भी मिलीं। जब पौलुस और सीलास कैदखाने से छूटे तो वे कहाँ गए? कहीं और नहीं बल्कि वे सीधे लुदिया के ही घर गए!—प्रेरितों १६:३५-४०.
उसी तरह, जब आप दूसरे लोगों में दिलचस्पी लेते हैं तो वे भी आपमें दिलचस्पी लेंगे। ऐसा करने की शुरुआत आप कैसे कर सकते हैं? यहाँ कुछ बढ़िया सुझाव दिए गए हैं।
● दौड़ने से पहले चलना सीखिए। मिलनसार होने का मतलब यह नहीं होता कि आप एक ऐसा व्यक्ति बन जाएँगें जो हमेशा लोगों की नज़रों में रहते हों या जो हमेशा किसी न किसी से बातें करते रहते हों या हर समूह में दिखायी देते हों। शुरू में तो आप एक-एक व्यक्ति से बात करने की कोशिश कीजिए। जब आप कलीसिया की मीटिंग में जाते हैं तो वहाँ आप हर बार कम-से-कम एक व्यक्ति से बातचीत करने का लक्ष्य रख सकते हैं। मुस्कुराने की कोशिश कीजिए। लोगों से नज़रें मिलाकर बात करने की आदत बनाइये।
● खुद चुप्पी तोड़िए। आप शायद पूछें कि ‘मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ?’ देखिए, अगर आपको दूसरों में सचमुच दिलचस्पी है तो बात करने के लिए ज़रूर कोई न कोई विषय निकल ही आता है और इसमें आपको ज़्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती। स्पेन का होरहे नामक युवा कहता है: “मैंने देखा है कि बस इतना पूछने से ही कि आप कैसे हैं, आपका काम-काज कैसे चल रहा है, आपको लोगों के बारे में और भी अच्छी तरह से जानने में मदद मिलती है।” फ्रॆड नामक एक युवा यह सुझाव देता है: “अगर आपको कुछ भी नहीं सूझता है कि क्या कहें, तो बस आप उनसे सवाल पूछने शुरू कर दीजिए।” बेशक, लोगों को नहीं लगना चाहिए कि आप उनका इंटरव्यू ले रहे हैं। अगर आपको लगे कि सामनेवाला व्यक्ति जवाब देने में हिचकिचा रहा है तो आप अपने बारे में कुछ बताने की कोशिश कीजिए।
एक किशोर की माँ, मेरी कहती है: “मैंने देखा है कि लोगों को सहज महसूस कराने का सबसे अच्छा तरीका है उनसे अपने बारे में कुछ बताने के लिए कहना।” युवा केट कहती है: “अगर लोगों से, उनके कपड़ों या किसी और चीज़ की तारीफ की जाए तो इससे भी मदद मिलती है। इससे वे यह महसूस करते हैं कि उन्हें भी पसंद किया जाता है।” बेशक, खुशामद करने के लिए झूठ-मूठ की तारीफ मत कीजिए, जो भी कहना हो वह अपने दिल से कहिए। (१ थिस्सलुनीकियों २:५) जब कोई दिल से बातें करता है और ऐसी बातें करता है जो सुनने में अच्छी लगती हैं और दिल को सुकून पहुँचाती हैं, तो दूसरे लोग भी उससे बात करना पसंद करते हैं।—नीतिवचन १६:२४.
● अच्छी तरह से सुनिए। “सुनने के लिये तत्पर और बोलने में धीरा और क्रोध में धीमा” होइए। (याकूब १:१९) आखिर, बातचीत करने का मतलब यह तो नहीं है कि बस एक ही व्यक्ति बोलता जाए। इसमें दोनों को ही हिस्सा लेना चाहिए। सो अगर आपको बात करने में शर्म या झिझक महसूस होती हो तो इससे आप ही को फायदा है। क्योंकि लोग अच्छी तरह से सुननेवालों की कदर करते हैं!
● आप भी शामिल होइए। जब आप एक-एक व्यक्ति से बात करने की कला में माहिर हो जाते हैं, तब आप मेल-जोल बढ़ाने में दूसरा कदम उठा सकते हैं और वो है समूह में बातें करने की कोशिश। एक बार फिर, इसमें माहिर होने के लिए मसीही सभाएँ सबसे बढ़िया जगह है। कभी-कभी किसी बातचीत में शामिल होने का सबसे अच्छा तरीका है उस बातचीत में शामिल होना जो पहले से ही चल रही हो। जी हाँ, यहाँ समझदारी और शिष्टाचार दिखाने की बहुत ज़रूरत है। अगर साफ पता चलता हो कि किसी निजी बात पर बातचीत चल रही है तो अचानक से बीच में टाँग मत अड़ाइए। मगर जब समूह आम विषय पर बातचीत कर रहा हो, तो उसमें हिस्सा लेने की कोशिश कीजिए। लेकिन समझदारी से काम लीजिए, जाते साथ बीच में टोक मत दीजिए, बस अपनी ही बीन बजाना शुरू मत कीजिए। कुछ देर के लिए दूसरों की भी सुनिए। और फिर जैसे-जैसे आपको सहज लगने लगेगा, तो आप खुद-ब-खुद ही कुछ-न-कुछ कहेंगे।
● इस बारे में चिंता मत कीजिए कि आपको बस सही बातें ही कहनी है। कभी-कभी कुछ युवा इस बारे में कुछ ज़्यादा ही चिंता करते हैं कि कहीं वे कुछ गलत न कह बैठें। इटली में एलीज़ा नाम की एक लड़की कहती है: “मुझे हमेशा यही डर सताता रहता था कि अगर मैं कुछ बोलूँ भी, तो वह मेरे मुँह से बस उल्टा ही निकलेगा।” मगर, बाइबल हमें याद दिलाती है कि हम सब असिद्ध हैं, सो हमेशा ठीक-ठीक बात करना शायद हमारे लिए मुमकिन नहीं है। (रोमियों ३:२३. याकूब ३:२ से तुलना कीजिए।) एलीज़ा कहती है: “मुझे एहसास हुआ कि ये तो मेरे दोस्त हैं। सो अगर मैं कुछ गलत कह भी देती हूँ, तो वे मुझे समझेंगे।”
● अपनी बेवकूफी पर हँसना सीखिए। माना कि कुछ ऊँट-पटाँग बात कह देने पर व्यक्ति झेंप जाता है, मगर जैसे फ्रॆड कहता है, “अगर आप भी दूसरों के साथ अपनी बेवकूफी पर हँसने लगेंगे तो फिर यह उतना बुरा नहीं लगेगा, और झेंपने का वह लमहा बीत जाएगा। और अगर आप अपनी बेवकूफी की वज़ह से हड़बड़ा जाते हैं, मन खट्टा कर लेते हैं या चिंतित होने लगते हैं तो फिर आप छोटी-सी बात का बतंगड़ बना देंगे।”
● सब्र से काम लीजिए। यह जान लीजिए कि सभी लोग फौरन प्रतिक्रिया नहीं दिखाएँगे। बात करते वक्त शायद अचानक ही आप दोनों को यह नहीं सूझेगा कि आगे क्या बात करना है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह व्यक्ति आपको पसंद नहीं करता या फिर आपको बात करने की कोशिश बंद कर देनी चाहिए। कभी-कभी शायद लोग कुछ और ही सोच रहे होंगे, या फिर वे आपकी तरह ही शायद शर्मीले हों। ऐसे मामलों में, उन्हें आपके करीब आने के लिए थोड़ा और समय देने से बात बन जाएगी।
● बड़ों से बात करने की कोशिश कीजिए। कभी-कभी कुछ बड़े लोग, खासकर अनुभवी मसीही, ऐसे युवाओं के प्रति हमदर्दी दिखाते हैं जो शर्मीलेपन की समस्या से जूझने की कोशिश कर रहे हैं। सो किसी बड़े और अनुभवी व्यक्ति से बातचीत शुरू करने में मत झिझकिए। केट कहती है: “मैं बड़े-बुज़ुर्गों के साथ सहज महसूस करती हूँ क्योंकि मुझे मालूम है कि वे मेरे बारे में यूँ ही कोई राय कायम नहीं करेंगे, ना ही वे मेरा मज़ाक उड़ाएँगे, ना ही वे मेरे हमउम्र दोस्तों की तरह मुझे परेशान करेंगे।”
प्यार की वज़ह से काम करना
इन सारे सुझावों से मदद तो मिल सकती है मगर शर्मीलेपन की समस्या पर जीत हासिल करना इतना आसान नहीं है। ऐसा कोई फारमूला नहीं है जिसकी मदद से आप पलक झपकते ही मिलनसार बन जाएँगे। लेकिन हाँ, मिलनसार होने के लिए इस सिद्धांत को मन में रखना बहुत ज़रूरी है कि “अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।” (याकूब २:८) और दूसरों की, खासकर अपने मसीही भाई-बहनों की फिकर करना सीखिए। (गलतियों ६:१०) जैसा यीशु ने कहा था, “जो मन में भरा है, वही मुंह पर आता है।” (मत्ती १२:३४) सो अगर आपका दिल सच्चे प्यार से भरा हो, तो आप अपने डर और असुरक्षा की इस भावना यानी इस बाधा को पार कर सकेंगे और दूसरों से बातचीत करने की, साथ ही मिलनसार होने की कोशिश करेंगे।
शुरू में ज़िक्र किया गया बैरी कहता है: “जितना ज़्यादा मैं दूसरों को जानने की कोशिश करता हूँ, मेरे लिए उनसे बातें करना उतना ही आसान हो जाता है।” दूसरे शब्दों में, जितना ज़्यादा आप मिलनसार होने की कोशिश करेंगे, उतना ज़्यादा यह आपके लिए आसान हो जाएगा। जब आप देखेंगे कि आपने नए-नए दोस्त बना लिए हैं और आप महसूस करेंगे कि दूसरे लोग आपको पहले से ज़्यादा स्वीकार करने लगे हैं, तो इसका मतलब यह है कि आपकी मेहनत बेकार नहीं गयी है, बल्कि रंग लायी है!
[फुटनोट]
a हमारे नवंबर ८, १९९९ के अंक में लेख, “युवा लोग पूछते हैं . . . लोगों से मिलने-जुलने के डर को मैं कैसे मिटा सकता हूँ?” देखिए।
b कुछ नाम बदल दिए गए हैं।
c वॉचटावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित।
[पेज 14 पर तसवीर]
पहल कीजिए और बातचीत में शामिल होइए!