“चौकस रहो, कि तुम किस रीति से सुनते हो”
कुछ सीखने के लिए ध्यान से सुनना बहुत ज़रूरी है। ध्यान से सुनना, एक इंसान की जान तक बचा सकता है। हम इसकी मिसाल उस घटना से देख सकते हैं जब यहोवा अपने लोगों को मिस्र की गुलामी से छुड़ाने की तैयारी कर रहा था। उस वक्त यहोवा ने मूसा को हिदायतें दीं कि इस्राएलियों को मौत के फरिश्ते से अपने पहिलौठों की जान बचाने के लिए क्या-क्या कदम उठाने होंगे। मूसा ने ये सारी हिदायतें पुरनियों को सुनाईं। (निर्ग. 12:21-23) फिर पुरनियों ने यह जानकारी इस्राएल के हर घराने को दी। ये सारी बातें उन्होंने लोगों को ज़बानी सुनायी थीं। लोगों को उनकी बात ध्यान लगाकर सुननी थी। उन्होंने कितना ध्यान दिया? बाइबल बताती है: “इस्राएलियों ने जाकर, जो आज्ञा यहोवा ने मूसा और हारून को दी थी, उसी के अनुसार किया।” (निर्ग. 12:28, 50, 51) नतीजा क्या हुआ? इस्राएलियों को हैरतअंगेज़ तरीके से छुटकारा मिला।
आज यहोवा इससे भी महान छुटकारा दिलाने के लिए हमें तैयार कर रहा है। इसलिए वह जो भी हिदायतें देता है, उन पर पूरा-पूरा ध्यान देना निहायत ज़रूरी है। ये हिदायतें कहाँ दी जाती हैं? कलीसिया की सभाओं में। वहाँ हाज़िर होकर इन हिदायतों को सुनना बहुत फायदेमंद हो सकता है। लेकिन हमें ये फायदे मिल रहे हैं या नहीं, यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि हम सभाओं में कितना ध्यान लगाकर सुनते हैं।
क्या आपको सभाओं में दी गयी हिदायतों की खास बातें याद रहती हैं? क्या आप सीखी हुई बातों को अपनी ज़िंदगी में लागू करने की बार-बार कोशिश करते हैं? क्या आपने इन बातों के बारे में दूसरों के साथ चर्चा करने की आदत डाली है?
अपने हृदय को तैयार करें
मसीही सभाओं में दी गयी हिदायतें हम पर तभी असर करेंगी, जब उन्हें सुनने के लिए हमारा हृदय तैयार होगा। अपने हृदय को तैयार करने की अहमियत कितनी ज़्यादा है, यह हम यहूदा के राजा यहोशापात के राज में हुई एक घटना से बखूबी समझ सकते हैं। यहोशापात ने सच्ची उपासना को बढ़ावा देने के लिए बड़ी हिम्मत के साथ ठोस कदम उठाए थे। उसने “यहूदा से ऊंचे स्थान और अशेरा नाम मूरतें दूर कर दीं” और यहूदा के सब नगरों में जाकर लोगों को यहोवा की व्यवस्था सिखाने के लिए हाकिमों, लेवियों और याजकों को भेजा। मगर इतना सब कुछ होने के बाद भी, यहूदा देश के “ऊंचे स्थान ढाए न गए” थे। (2 इति. 17:6-9; 20:33) झूठे देवी-देवताओं की उपासना करने और यहोवा की मरज़ी के खिलाफ उसके नाम से झूठे धर्मों के ऊँचे स्थानों पर पूजा करने का रिवाज़ लोगों में इस कदर जड़ पकड़ चुका था कि इसे पूरी तरह से मिटाना मुश्किल हो गया था।
यहोशापात ने हिदायतें देने का जो इंतज़ाम किया था, उसका असर लोगों के दिल पर ज़्यादा देर तक क्यों नहीं रहा? बाइबल आगे जवाब देती है: “लोगों ने अब तक अपने पुरखों के परमेश्वर के लिए अपना हृदय तैयार नहीं किया था।” (NW) उन्होंने यहोवा की शिक्षा सुनी तो सही, मगर उसके मुताबिक चले नहीं। वे शायद यहोवा को बलिदान चढ़ाने के लिए यरूशलेम तक जाने की तकलीफ उठाना नहीं चाहते थे। उन्होंने चाहे जो भी सोचा हो, असल वजह तो उनका अविश्वासी हृदय था, जिसने उन्हें सही कदम उठाने के लिए नहीं उभारा।
उसी तरह, अगर आज हम बहककर शैतान के संसार में नहीं लौटना चाहते, तो हमें यहोवा से मिलनेवाली शिक्षा को सुनने के लिए अपना हृदय तैयार करना होगा। कैसे? सबसे पहला और अहम कदम है, प्रार्थना। हमें यह प्रार्थना करनी चाहिए कि परमेश्वर हमारे मन में उसकी हिदायतों के लिए एहसानमंदी की भावना जगाए। (भज. 27:4; 95:2) इससे हम अपने उन भाइयों की कड़ी मेहनत की कदर कर पाएँगे, जो असिद्ध होने के बावजूद यहोवा के लोगों को सिखाने की ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं। एहसानमंदी की भावना से हम न सिर्फ नयी-नयी बातें सीखने के लिए बल्कि सीखी हुई बातों की समझ को और बढ़ाने के मौकों के लिए यहोवा का धन्यवाद करेंगे। हम तन-मन से परमेश्वर की मरज़ी पूरी करना चाहते हैं, इसलिए हम भी यही प्रार्थना करते हैं: “हे यहोवा, मुझे अपने मार्ग की शिक्षा दे; . . . मेरे हृदय को एकाग्र-चित्त कर कि मैं तेरे नाम का भय मानूं।”—भज. 86:11, NHT.
ध्यान जमाएँ
बहुत-सी चीज़ें सुनने में बाधा बन सकती हैं। हो सकता है, हमारे मन में ढेर सारी चिंताएँ हों। हॉल के अंदर या बाहर से आनेवाली आवाज़ों या फिर हाज़िर लोगों में होनेवाली हलचल से हमारा ध्यान भटक सकता है। बैठने में परेशानी या बेचैनी की वजह से भी एक मन से सुनना मुश्किल हो सकता है। जिनके छोटे बच्चे हैं, उनका ध्यान अकसर बँटा रहता है। ऐसे में कार्यक्रम पर ध्यान जमाए रखने के लिए क्या किया जा सकता है?
जहाँ हमारी नज़र जाती है, वहीं हमारा ध्यान भी जाता है। इसलिए ध्यान से सुनने के लिए अपनी आँखें भाषण देनेवाले पर लगाए रखिए। जब वह बाइबल से कोई आयत पढ़ता है, भले ही वह आपको मुँहज़बानी याद हो, तब भी आप अपनी बाइबल खोलकर साथ-साथ पढ़िए। अपने साथ सख्ती बरतिए ताकि आप हर आहट या चलने-फिरने की आवाज़ पर पलटकर न देखें। आप जितनी चीज़ों को देखेंगे, उतनी ही बातों पर आपका ध्यान जाएगा और इस तरह आप बहुत कुछ सुनने से चूक जाएँगे।
“परेशान करनेवाले खयाल” भी सभाओं पर ध्यान देना मुश्किल कर सकते हैं। तब यहोवा से प्रार्थना कीजिए कि वह आपके मन और हृदय को सुकून दे ताकि आप ध्यान लगाकर सुन सकें। (भज. 94:19, NW; फिलि. 4:6, 7) और अगर ज़रूरत पड़े तो बार-बार प्रार्थना कीजिए। (मत्ती 7:7, 8) यकीन मानिए, यहोवा आपकी प्रार्थना ज़रूर सुनेगा क्योंकि मसीही सभाओं का इंतज़ाम उसी ने किया है और वह चाहता है कि आप उनसे लाभ पाएँ।—1 यूह. 5:14, 15.
भाषण सुनना
आप शायद आज भी उन बेहतरीन मुद्दों को याद कर सकते हैं जो आपने किसी-न-किसी भाषण में सुने थे। मगर भाषण सुनने का मतलब सिर्फ खास मुद्दों को बटोर लेना नहीं बल्कि इससे भी कहीं बढ़कर है। जैसे सफर के दौरान हमें रास्ते में कई खूबसूरत नज़ारे देखने को मिलते हैं, मगर हमारी मंज़िल सबसे ज़्यादा अहमियत रखती है। उसी तरह एक भाषण में कई बेहतरीन मुद्दे ज़रूर होते हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है, भाषण देने का मकसद। भाषण देनेवाले का मकसद होता है कि उसके सुननेवाले एक खास नतीजे पर पहुँचें या फिर वह उन्हें कोई कदम उठाने के लिए उकसाना चाहता है।
मिसाल के तौर पर, उस भाषण पर गौर कीजिए जो यहोशू ने इस्राएल जाति के सामने दिया था। हम इसे यहोशू 24:1-15 में पढ़ सकते हैं। यहोशू का मकसद था, लोग सच्ची उपासना को मज़बूती से थाम लें ताकि उन्हें कोई हिला न सके और खुद को अन्यजातियों की मूर्तिपूजा से बेदाग रखें। यह कदम उठाना इतना ज़रूरी क्यों था? क्योंकि उस समय चारों तरफ मूर्तिपूजा का इतना बोलबाला था कि इस्राएल जाति उसमें फँस सकती थी और अगर ऐसे होता तो यहोवा के साथ उनका रिश्ता खतरे में पड़ सकता था। लोगों ने यहोशू की गुज़ारिश मानकर यह जवाब दिया: ‘यहोवा को त्यागकर दूसरे देवताओं की सेवा करनी हम से दूर रहे; हम यहोवा की सेवा करेंगे।’ उन्होंने ना सिर्फ यह कहा बल्कि ऐसा किया भी!—यहो. 24:16, 18, 31.
इसलिए भाषण सुनते वक्त यह समझने की कोशिश कीजिए कि भाषण का मकसद क्या है। गौर कीजिए कि भाषण देनेवाला कैसे अलग-अलग मुद्दे इस्तेमाल करते हुए अपने इस मकसद की तरफ बढ़ रहा है। फिर खुद से पूछिए कि मैंने जो कुछ सुना, उसके मुताबिक मुझे क्या करने की ज़रूरत है।
चर्चाओं के दौरान ध्यान से सुनना
प्रहरीदुर्ग अध्ययन, कलीसिया के पुस्तक अध्ययन और सेवा सभा के कुछ भागों में, सवाल-जवाब के ज़रिए बाइबल से ली गयी जानकारी पर चर्चा की जाती है।
चर्चाओं के दौरान सुनना, कुछ हद तक बातचीत में शरीक होने जैसा है। इसलिए ध्यान लगाकर सुनिए तभी आपको इन चर्चाओं से पूरा फायदा मिलेगा। गौर कीजिए कि चर्चा का रुख किस तरफ जा रहा है। नोट कीजिए कि चर्चा चलानेवाला भाई किस तरह लेख के शीर्षक और मुख्य मुद्दों पर ज़ोर दे रहा है। वह जो सवाल पूछता है, अपने मन में उनके जवाब सोचिए। जब दूसरे जवाब देते हैं और जानकारी पर अमल करने के तरीके बताते हैं, तब ध्यान से सुनिए। किसी जाने-माने विषय के बारे में दूसरे के विचार सुनने से आप उस विषय को नए तरीके से समझ पाते हैं। आप भी सवालों के जवाब देकर अपने विश्वास का इज़हार कीजिए और इस तरह चर्चाओं को मज़ेदार बनाइए।—रोमि. 1:12.
अगर हमने सभाओं के लिए पहले से अध्ययन करके अच्छी तैयारी की है, तो हमारा ध्यान नहीं भटकेगा और हम चर्चा में पूरा हिस्सा ले पाएँगे, साथ ही हमें दूसरों के जवाब और भी अच्छी तरह समझ आएँगे। अगर किसी मजबूरी से आप पहले से अध्ययन नहीं कर पाते हैं, तो कम-से-कम कुछ मिनट निकालकर जानकारी पर एक सरसरी नज़र डालने की कोशिश कीजिए। यह तरीका, चर्चाओं से ज़्यादा-से-ज़्यादा फायदा उठाने में हमारी मदद करेगा।
सम्मेलनों और अधिवेशनों में सुनना
कलीसिया की सभाओं के मुकाबले, बड़े-बड़े सम्मेलनों और अधिवेशनों में ऐसी बहुत-सी बातें होती हैं जो हमारा ध्यान भटका सकती हैं। ऐसे में कार्यक्रम को ध्यान से सुन पाना बड़ा मुश्किल हो सकता है। हम इस मुश्किल को कैसे हल कर सकते हैं?
सबसे पहले, रात को भरपूर नींद लेना बेहद ज़रूरी है। हर दिन कार्यक्रम शुरू होने से पहले, दिन का विषय अपने दिमाग में अच्छी तरह बिठा लीजिए। हर भाषण के शीर्षक पर नज़र डालिए और यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश कीजिए कि उसमें क्या बताया जाएगा। शास्त्र के हर हवाले को बाइबल से खोलकर पढ़िए। कई लोगों ने देखा है कि मुख्य मुद्दों के छोटे-छोटे नोट्स् लेने से कार्यक्रम पर ध्यान जमाने में मदद मिलती है। आप उन मुद्दों के नोट्स् ले सकते हैं जो आप अपनी ज़िंदगी में और प्रचार काम में इस्तेमाल करना चाहते हैं। हर दिन सम्मेलन के लिए जाते और वापस लौटते वक्त दूसरों के साथ कुछ मुद्दों पर चर्चा कीजिए। ऐसा करने से आप सम्मेलन में दी गयी जानकारी याद रख पाएँगे।
बच्चों को सुनने की तालीम देना
मसीही माता-पिता अपने बच्चों को, यहाँ तक कि अपने नन्हे-मुन्नों को भी “उद्धार प्राप्त करने के लिये बुद्धिमान” बना सकते हैं। इसके लिए ज़रूरी है कि वे उन्हें अपने साथ सभाओं, सम्मेलनों और अधिवेशनों में लाएँ। (2 तीमु. 3:15) हर बच्चे के स्वभाव में और किसी बात पर ध्यान देने की काबिलीयत में फर्क होता है। इसलिए अपने बच्चों को ध्यान से सुनने की तालीम देते वक्त आपको समझ से काम लेने की ज़रूरत है। इसके लिए आगे दिए गए सुझावों से आपको मदद मिल सकती है।
अपने बच्चों के लिए एक समय बाँधिए जिस दौरान वे चुपचाप बैठकर संस्था की किताबें पढ़ें या उनमें दी गयी तसवीरों को देखें। सभाओं में बच्चों को खिलौने मत दीजिए ताकि वे खेलने में मस्त रहें। प्राचीन इस्राएल की तरह, आज भी बच्चों को सभाओं में लाने का मकसद यही है कि ‘वे सुनकर सीख सकें।’ (व्यव. 31:12) जहाँ मुमकिन हो, कुछ माता-पिता अपने बहुत छोटे बच्चों को भी चर्चा की जा रही किताबों की उनकी अपनी कॉपी देते हैं। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, आप उन्हें ऐसे भागों की तैयारी करने में मदद कर सकते हैं जिनमें सभाओं के दौरान हाज़िर लोगों के साथ चर्चा की जाती है।
बाइबल दिखाती है कि यहोवा की आज्ञा मानने और ध्यान से सुनने के बीच गहरा नाता है। यह बात मूसा के इस्राएलियों से कहे इन शब्दों से साफ ज़ाहिर होती है: “मैंने तुम्हारे सामने जीवन तथा मृत्यु, और आशिष तथा शाप रखा है, अत: जीवन को चुन ले . . . अपने परमेश्वर यहोवा से प्रेम करना, उसकी सुनना तथा उस से लिपटे रहना।” (तिरछे टाइप हमारे।) (व्यव. 30:19, 20, NHT) परमेश्वर की मंज़ूरी और अनंत जीवन की आशीष पाने के लिए, आज यहोवा की हिदायतें सुनना और पूरे दिल से उन पर अमल करना बेहद ज़रूरी है। तो फिर यह कितना ज़रूरी है कि हम यीशु की इस सलाह पर कान दें: “चौकस रहो, कि तुम किस रीति से सुनते हो”!—लूका 8:18.