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  • मैंने यहोवा पर भरोसा करना सीखा

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  • मैंने यहोवा पर भरोसा करना सीखा
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1998
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  • सताहट बढ़ती गयी
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  • आखिरकार आज़ादी मिल ही गयी!
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    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है (अध्ययन)—2017
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1998
w98 9/1 पेज 24-28

मैंने यहोवा पर भरोसा करना सीखा

यान कोरपा-ओन्डो की ज़बानी

वह साल था १९४२, और रूस के कुर्स्क शहर के पास हंगरी के सैनिक मुझ पर नज़र रखे हुए थे। हम जर्मनी के कैदी थे जो दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान रूसी लोगों से युद्ध कर रहे थे। मेरी कब्र खोद दी गयी थी, और मुझे एक दस्तावेज़ में दस्तखत करने, या न करने का फैसला करने के लिए सिर्फ दस मिनट की मोहलत दी गयी थी। उस दस्तावेज़ में लिखा था कि मैं अब यहोवा का साक्षी नहीं हूँ। इससे पहले कि मैं आगे की दास्तान बयान करूँ, मैं आपको बताना चाहूँगा कि मैं इस स्थिति में कैसे पहुँचा।

मेरी पैदाइश सन्‌ १९०४ में ज़ाहोर के एक छोटे से गाँव में हुई। ज़ाहोर अब पूर्वी स्लोवाकिया में स्थित है। पहले विश्‍वयुद्ध के बाद, ज़ाहोर, नए-नए बने चेकोस्लोवाकिया देश का एक भाग बन गया। हमारे गाँव में तकरीबन २०० घर और दो चर्च थे, एक ग्रीक कैथोलिक और दूसरा कैलवनिस्ट चर्च।

हालाँकि मैं कैलवनिस्ट चर्च में जाया करता था, मेरी ज़िंदगी पर कोई नैतिक लगाम नहीं थी। मेरे पड़ोस में ही एक और व्यक्‍ति रहता था जो बहुत ही अलग किस्म का था। एक दिन उसने मेरे साथ बातचीत शुरू की और मुझे अपनी बाइबल पढ़ने के लिए दी। यह पहली बार था जब मैंने बाइबल को अपने हाथ में लिया था। लगभग इसी समय, १९२६ में, मैंने बारबोरा से विवाह रचाया और जल्द ही हमारे दो बच्चे हुए, बारबोरा व यान।

मैंने बाइबल पढ़नी शुरू कर दी, पर ऐसी बहुत-सी बातें थीं जिन्हें मैं समझ नहीं पाया। सो मैं अपने पास्टर के पास गया और मैंने उससे मदद माँगी। उसने कहा, “बाइबल सिर्फ पढ़े-लिखे लोगों के लिए है, और उसे समझने की कोशिश भी मत करना।” फिर उसने मुझे ताश खेलने के लिए आमंत्रित किया।

इसके बाद मैं उस व्यक्‍ति के पास गया जिसने मुझे बाइबल पढ़ने के लिए दी थी। वह एक बाइबल विद्यार्थी था, जैसे उस समय यहोवा के साक्षियों को कहा जाता था। उसने खुशी-खुशी मेरी मदद की, और कुछ समय बाद मेरी आँखें खुलने लगीं। मैंने बहुत ज़्यादा पीना बंद कर दिया और एक नैतिक जीवन बिताने लगा; यहाँ तक कि मैं यहोवा के बारे में दूसरों से बातें भी करने लगा। बाइबल सच्चाई ज़ाहोर में १९२० के दशक के शुरू में जड़ पकड़ने लगी थी, और जल्द ही बाइबल विद्यार्थियों का एक सक्रिय दल वहाँ स्थापित हो गया था।

इसके बावजूद, वहाँ कड़ा धार्मिक विरोध था। वहाँ के पादरी ने मेरे परिवार के अधिकतर सदस्यों को मेरे विरोध में भड़का दिया और यह दावा किया कि मैं बावला हो गया हूँ। लेकिन मेरी ज़िंदगी को अब एक मकसद मिल गया था और मैंने पक्का फैसला किया कि मैं सच्चे परमेश्‍वर यहोवा की सेवा करूँगा। इस प्रकार, १९३० में मैंने यहोवा के प्रति अपने समर्पण के प्रतीक में बपतिस्मा लिया।

गंभीर परीक्षाओं की शुरूआत

सन्‌ १९३८ में, हमारे इलाके पर हंगरी शासन करने लगा। हंगरी ने दूसरे विश्‍वयुद्ध के समय जर्मनी का साथ दिया था। करीब हज़ार रहवासियों के हमारे गाँव में उस समय तक तकरीबन ५० साक्षी हो गए थे। हम प्रचार-कार्य करते रहे हालाँकि ऐसा करने का मतलब था अपनी ज़िंदगी व आज़ादी को खतरे में डालना।

सन्‌ १९४० में मुझे हंगरी की सेना में ज़बरदस्ती भरती कर दिया गया। अब मैं क्या करता? वैसे, मैंने बाइबल की कई भविष्यवाणियाँ पढ़ी थीं कि लोग युद्ध के अपने हथियारों को बदलकर शांति के औज़ार बना देंगे और मैं जानता था कि समय आने पर परमेश्‍वर पृथ्वी से सभी युद्धों का नामो-निशान मिटा देगा। (भजन ४६:९; यशायाह २:४) इस प्रकार युद्ध के प्रति मुझमें नफरत पैदा हो गयी और अंजाम चाहे जो भी हो, मैंने सेना में भरती न होने का फैसला किया।

मुझे १४ महीनों की कैद की सज़ा सुनायी गयी और मैंने पेच, हंगरी में अपनी सज़ा काटी। उसी कैदखाने में पाँच अन्य साक्षी थे और एक साथ संगति करने के अवसर की हमने बहुत कदर की। लेकिन कुछ समय के लिए मुझे कालकोठरी की सज़ा मिली और मेरे पैरों में ज़ंजीरें बाँधी गयी। युद्ध से संबंधित कार्य करने से जब हमने इंकार किया तो हमें पीटा गया। साथ ही, दोपहर के दो घंटे को छोड़, पूरा दिन हमें ‘सावधान’ स्थिति में खड़े रहने के लिए मजबूर किया गया। ऐसी बदसलूकी महीनों तक चलती रही। फिर भी हम खुश थे क्योंकि अपने परमेश्‍वर के सामने हमारा विवेक साफ था।

समझौते की बात

एक दिन कुछ १५ कैथोलिक पादरी हमें यह कायल करने की कोशिश करने के लिए आए कि यह ज़रूरी है कि सेना में भरती होने के द्वारा हम युद्ध में सहारा दें। बातचीत के समय हमने कहा: “यदि आप हमें बाइबल से यह साबित कर दें कि हमारे अंदर एक अमर आत्मा है और यदि हम युद्ध में मारे जाते हैं तो हम स्वर्ग जाएँगे, तब सेना में भरती होना हमें मंज़ूर है।” यह तो पक्का था कि वे इसे साबित नहीं कर पाएँगे, और न ही वे ऐसा कर पाए। सो वे आगे बातचीत करने के इच्छुक नहीं थे।

सन्‌ १९४१ में कैद की मेरी सज़ा पूरी हो गयी और मैं अपने परिवार से मिलने की आस लगाए बैठा था। लेकिन यह क्या? मुझे ज़ंजीरों में जकड़कर हंगरी के शारॆशपाटक में आर्मी बेस ले जाया गया! जब हम वहाँ पहुँचे, तब मुझे रिहा होने का एक मौका दिया गया। मुझसे कहा गया, “तुम्हें बस इस दस्तावेज़ पर दस्तखत करना है कि तुम घर लौटने पर हमें २०० पॆंगो भेजोगे।”

“ये कैसे हो सकता है?” मैंने पूछा। “आपको यह पैसे किसलिए चाहिए?”

मुझसे कहा गया, “पैसे के बदले तुम्हें एक प्रमाण-पत्र मिलेगा कि तुम सेना में भरती होने के लिए की गयी मॆडिकल जाँच में पास नहीं हुए।”

इसने मेरे सामने बहुत बड़ी उलझन खड़ी कर दी। एक से ज़्यादा साल तक मेरे साथ अमानवी सलूक किया गया था; मैं थक रहा था। अब अगर मैं कुछ पैसे देता हूँ तो मैं रिहा हो सकता हूँ। “मैं इसके बारे में सोचूँगा,” मैंने बुदबुदाया।

मैं क्या फैसला करता? मुझे अपनी पत्नी व बच्चों का भी तो सोचना है। लगभग उसी समय मुझे एक संगी मसीही से खत मिला जिसने मेरा हौसला बढ़ाया। उसने इब्रानियों १०:३८ का वचन लिखा था जहाँ प्रेरित पौलुस ने यहोवा के शब्द लिखे थे: “मेरा धर्मी जन विश्‍वास से जीवित रहेगा, और यदि वह पीछे हट जाए तो मेरा मन उस से प्रसन्‍न न होगा।” उसके कुछ ही समय बाद, बैरक्स के दो हंगेरियन अफसरों ने मुझसे बातें कीं और एक ने कहा: “तुम्हें शायद मालूम नहीं कि इतनी दृढ़ता से बाइबल सिद्धांतों पर अमल करने की वज़ह से हम तुम्हारी कितनी इज़्ज़त करते हैं! कभी हार मत मानना!”

अगले दिन मैं उन लोगों के पास गया जिन्होंने मुझे २०० पॆंगो के बदले आज़ादी देने की बात की थी और कहा: “चूँकि यहोवा परमेश्‍वर ने मुझे कैद होने दिया है, तो वही मेरी रिहाई की भी फिक्र कर लेगा। मैं अपनी रिहाई नहीं खरीदूँगा।” सो मुझे दस साल की कैद की सज़ा दी गयी। लेकिन मुझसे समझौता करवाने की वही आखिरी कोशिश नहीं थी। अदालत ने पेशकश की कि यदि मैं केवल दो महीनों के लिए सेना में काम करने को राज़ी हो जाऊँ, तो वे मुझे माफ कर देंगे और मुझे हथियार उठाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी! मैंने इस पेशकश को भी इंकार किया और मेरी कैद की सज़ा शुरू हो गयी।

सताहट बढ़ती गयी

मुझे फिर से पेच के कैदखाने ले जाया गया। अबकी बार यातना और भी ज़्यादा कठोर थी। मेरे हाथों को मेरी पीठ के पीछे बाँध दिया गया, और मुझे लगभग दो घंटे के लिए ऐसे ही लटका दिया गया। परिणामस्वरूप, मेरे दोनों कंधे अपनी जगह से सरक गए। ऐसी यातना को तकरीबन छः महीनों के दौरान कई बार दोहराया गया। मैं केवल यहोवा को ही धन्यवाद दे सकता हूँ कि मैंने हार नहीं मानी।

सन्‌ १९४२ में हमारे एक समूह—राजनैतिक कैदियों, यहूदियों और २६ यहोवा के साक्षियों—को जर्मन दस्ते के इलाके में कुर्स्क शहर ले जाया गया। हमें जर्मन फौज के हाथों सौंपा गया। उन्होंने लड़ रहे सैनिकों के लिए भोजन, शस्त्र, व कपड़ा-लत्ता ले जाने का काम कैदियों को दिया। हम साक्षियों ने यह काम करने से इंकार किया क्योंकि इससे हमारी मसीही तटस्थता का उल्लंघन होता। परिणाम में, हमें हंगरी फौज को वापस सौंप दिया गया।

आखिरकार, हमें कुर्स्क के एक कैदखाने में बंद कर दिया गया। कई दिनों तक हमें दिन में तीन बार रबड़ के बल्ले से पीटा गया। एक वार मेरी कनपटी पर पड़ा और मैं वहीं ढेर हो गया। जब मुझ पर बल्ले बरस रहे थे, तो मैंने सोचा, ‘मरना मुश्‍किल नहीं है।’ मेरा पूरा शरीर सुन्‍न पड़ गया था, इसी वज़ह से मुझे कुछ महसूस नहीं हो रहा था। तीन दिनों के लिए हमें खाने को कुछ भी नहीं दिया गया। इसके बाद हमें अदालत ले जाया गया और छः लोगों को सज़ा-ए-मौत दी गयी। इसके बाद, हममें से बस २० लोग बच गए।

सन्‌ १९४२ के अक्‍तूबर के समय कुर्स्क में हुई विश्‍वास की परीक्षाएँ सबसे कठिन थीं। प्राचीन समय के राजा यहोशापात ने हमारी भावनाओं को भली-भाँति व्यक्‍त किया, जब उसे व उसके लोगों को बहुत बड़ी सेनाओं का सामना करना पड़ा: “यह जो बड़ी भीड़ हम पर चढ़ाई कर रही है, उसके साम्हने हमारा तो बस नहीं चलता और हमें कुछ सूझता नहीं कि क्या करना चाहिये? परन्तु हमारी आंखें तेरी ओर लगी हैं।”—२ इतिहास २०:१२.

हम २० जनों को अपनी ही कब्र खोदने के लिए ले जाया गया, और हंगरी फौज के १८ सैनिक हम पर नज़र रखे हुए थे। खुदाई होने के बाद हमसे कहा गया कि दस्तावेज़ पर दस्तखत करने के लिए हमारे पास दस मिनट हैं। दस्तावेज़ में जो लिखा था उसका कुछ अंश यूँ कहता है: “यहोवा के साक्षियों की शिक्षा गलत है। मैं अब से इसमें न तो विश्‍वास करूँगा ना ही इसका समर्थन करूँगा। मैं हंगरी की मातृभूमि के लिए लड़ाई करूँगा . . . रोमन कैथोलिक चर्च का सदस्य बनने के लिए मैं दस्तखत करता हूँ।”

दस मिनट के बाद आदेश दिया गया: “दाएँ मुड़! कब्र तक कदम बढ़ाओ!” फिर एक और आदेश: “पहला व तीसरा कैदी गड्ढे में उतरो!” इन दोनों को दस्तावेज़ पर दस्तखत करने का फैसला करने के लिए और दस मिनट दिए गए। एक सैनिक ने विनती की: “अपने विश्‍वास से मुकर जाओ और कब्र से बाहर आ जाओ!” किसी ने एक भी लफ्ज़ नहीं कहा। तब प्रधान अफसर ने दोनों पर गोली दाग दी।

“बाकियों का क्या करें?” एक सैनिक ने उस अफसर से पूछा।

उसने जवाब दिया, “उन्हें बाँध दो। हम उन्हें थोड़ी और यातना देंगे और सुबह छः बजे गोली से उड़ा देंगे।”

एकाएक मैं सिहर उठा। इसलिए नहीं कि मैं मर जाऊँगा, बल्कि इसलिए कि मैं शायद और यातना बरदाश्‍त न कर पाऊँ और समझौता कर बैठूँ। सो मैंने आगे बढ़कर कहा: “जनाब, हमने अपने इन भाइयों की तरह ही तो गुनाह किया है, जिन्हें आपने अभी-अभी गोली से उड़ा दिया। सो आप हमें भी क्यों नहीं गोली से उड़ा देते?”

लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। हमारे हाथों को पीठ पीछे रखकर बाँध दिया गया, और हाथों पर लटका दिया गया। जब हम बेहोश हो जाते तो वे हम पर पानी फेंकते। दर्द बेइंतिहा था क्योंकि शरीर का भार हमारे कंधों पर था, जिससे हमारे कंधे अपनी जगह से सरक गए। यह यातना लगभग तीन घंटे तक चलती रही। इसके बाद एकाएक यह आदेश मिला कि अब यहोवा के किसी भी साक्षी को गोली से नहीं उड़ाना है।

पूर्व को जाना —फिर फरार होना

तीन हफ्ते बाद हमें कुछ दिनों के लिए डॉन नदी के तट पर पहुँचने तक कतार में चलवाया गया। हम पर निगरानी रखनेवालों ने हमसे कहा कि हमें ज़िंदा वापस नहीं लाया जाएगा। दिन के समय, हमें बेमतलब का काम दिया गया, जैसे गड्ढा खोदकर उसे फिर से भरना। शाम को, हमें वहीं चलने-फिरने की कुछ हद तक छूट दी गयी थी।

जब मैंने हालात का जायज़ा लिया, तो दो रास्ते नज़र आए। यहीं हमारी जान जा सकती है, या फिर हम जर्मन फौज से बचकर रूसी फौज को आत्मसमर्पण कर सकते थे। हममें से केवल तीन जनों ने बर्फ से जमे डॉन नदी के उस पार फरार होने की कोशिश करने का फैसला किया। दिसंबर १२, १९४२ के दिन हमने यहोवा से प्रार्थना की और निकल पड़े। हम रूसी सैन्य दस्ते के पास पहुँचे और हमें फौरन लगभग ३५,००० कैदियों के साथ कैदखाने में डाल दिया गया। वसंत आने तक, कुछ २,३०० कैदी ही ज़िंदा बचे थे। बाकी सारे दाने-दाने के लिए मोहताज़ होकर मर गए।

दर्द भरी आज़ादी

युद्ध के खत्म होने, और उसके बाद के कई महीनों तक मैं रूसी कैदी के तौर पर ज़िंदा रहा। आखिर में नवंबर १९४५ को मैं अपने घर ज़ाहोर जा सका। हमारे फार्म की दुर्गति हो चुकी थी, सो मुझे सब कुछ फिर से शुरू करना पड़ा। युद्ध के समय मेरी पत्नी व बच्चों ने फार्म पर काम किया था, लेकिन अक्‍तूबर १९४४ में जब रूसी फौज आयी तो उन्हें पूर्व की ओर खदेड़ दिया गया। हमारी सारी संपत्ति लूट ली गयी थी।

सबसे दुःख की बात, जब मैं घर लौटा, तब मेरी पत्नी बहुत बीमार थी। फरवरी १९४६ को वह चल बसी। वह केवल ३८ बरस की थी। कष्ट भरे पाँच लंबे सालों तक हम जुदा थे। लेकिन जब हम एक बार फिर मिले, तो एक-दूसरे के साथ ज़्यादा समय तक नहीं रह पाए।

मुझे अपने आध्यात्मिक भाइयों से, सभाओं में उपस्थित होने से तथा घर-घर की सेवकाई में हिस्सा लेने से दिलासा मिला। सन्‌ १९४७ में, मैंने अधिवेशन में उपस्थित होने के वास्ते बर्नो तक सफर करने के लिए कुछ पैसे उधार लिए। बर्नो का सफर कुछ ४०० किलोमीटर का है। वहाँ अपने मसीही भाइयों के बीच, जिनमें उस समय के वॉच टावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी के अध्यक्ष नेथन एच. नॉर भी थे, मुझे बहुत ढाढ़स व प्रोत्साहन मिला।

युद्ध के बाद मिली आज़ादी का हम ज़्यादा समय तक आनंद नहीं उठा पाए। सन्‌ १९४८ में कम्युनिस्ट लोगों ने हमें सताना शुरू किया। चेकोस्लोवाकिया में यहोवा के साक्षियों के कार्य में अगुवाई ले रहे अनेक भाइयों को १९५२ में गिरफ्तार किया गया और मुझे कलीसियाओं की देखरेख का ज़िम्मा सौंपा गया। सन्‌ १९५४ में मुझे भी पकड़ लिया गया और चार साल की कैद की सज़ा सुनायी गयी। मेरे बेटे यान और उसके बेटे यूराई को भी मसीही तटस्थता बनाए रखने के कारण कैद किया गया। मैंने प्राग के पांक्रात्स जेल में दो साल बिताए। सन्‌ १९५६ में क्षमादान की घोषणा की गयी और मुझे रिहा कर दिया गया।

आखिरकार आज़ादी मिल ही गयी!

आखिरकार १९८९ में, चेकोस्लोवाकिया पर कम्यूनिज़्म की जकड़ ढीली पड़ गयी और यहोवा के साक्षियों के कार्य को कानूनन रजिस्टर किया गया। अतः हम खुलेआम इकट्ठे होने और प्रचार करने के लिए आज़ाद थे। तब तक ज़ाहोर में करीब-करीब सौ साक्षी हो गए थे जिसका अर्थ था कि गाँव में लगभग हर १० लोगों में से एक व्यक्‍ति साक्षी था। कुछ साल पहले, ज़ाहोर में हमने एक खूबसूरत, बड़ा राज्यगृह बनाया जिसमें तकरीबन २०० जन बैठ सकते हैं।

मेरी सेहत अब अच्छी नहीं रही, सो भाइयों को राज्यगृह तक मुझे गाड़ी में ले जाना पड़ता है। मुझे वहाँ मौजूद होने में बहुत आनंद होता है और प्रहरीदुर्ग अध्ययन में टिप्पणियाँ करने में मुझे खुशी होती है। खासकर मुझे खुशी इस बात से होती है कि मेरे परिवार की तीनों पुश्‍तों के कुछ-कुछ जन यहोवा की सेवा कर रहे हैं, जिनमें कई नाती-पोते भी शामिल हैं। इनमें से एक ने चेकोस्लोवाकिया में यहोवा के साक्षियों के सफरी ओवरसियर के तौर पर कार्य किया। बाद में उसने पारिवारिक ज़िम्मेदारियों की वज़ह से सफरी काम छोड़ दिया।

मैं यहोवा का बहुत ही आभारी हूँ कि उसने परीक्षा की मेरी घड़ी में मुझे हौसला दिया। उस पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखने—‘अनदेखे को मानो देखते रहने’—की वज़ह से मैं दृढ़ रह सका। (इब्रानियों ११:२७) जी हाँ, मैंने उसके छुड़ानेवाले बाहुबल का भी अनुभव किया। इसीलिए अब भी, मैं पूरी कोशिश करता हूँ कि कलीसिया सभाओं में उपस्थित रहूँ, और मुझसे जितना हो सके उतना जन सेवकाई में उसके नाम की घोषणा करने में हिस्सा लूँ।

[पेज 25 पर तसवीर]

ज़ाहोर में राज्यगृह

[पेज 26 पर तसवीर]

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