मैंने सम्राट-उपासना छोड़कर सच्ची उपासना अपनायी
ईसामु सूगीऊरा की ज़बानी
सन् १९४५ में यह ज़ाहिर हो चुका था कि जापान युद्ध हार जाएगा, फिर भी हमें पूरा विश्वास था कि कामीकाज़ी (“ईश्वरीय हवा”) आएगी और दुश्मनों को हरा देगी। कामीकाज़ी उन तूफानों को कहा जाता है जो सन् १२७४ और १२८१ में आए थे। दोनों ही बार इन तूफानों ने जापान के तट के पास हमला करने के लिए आ रहे मंगोल के ज़्यादातर समुद्री जहाज़ों का सत्यानाश कर दिया था जिसकी वज़ह से उन्हें वापस लौटना पड़ा।
इसलिए जब सम्राट हिरोहीटो ने १५ अगस्त, १९४५ में यह घोषणा की कि जापान ने दुश्मन-राष्ट्रों की सेना के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है तब सम्राट के लिए जान तक दे देनेवाले दस करोड़ लोगों की आशाओं पर पानी फिर गया। उस वक्त मैं स्कूल जाता था और मेरी भी आशाओं पर पानी फिर गया था। मैं सोच में पड़ गया, ‘सम्राट अगर जीता-जागता परमेश्वर नहीं है तो फिर परमेश्वर कौन है? मैं किस पर भरोसा रखूँ?’
असल में, दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार की वज़ह से मेरे लिए और मुझ जैसे हज़ारों जापानियों के लिए सच्चे परमेश्वर, यहोवा को जानने का रास्ता खुल गया। लेकिन मुझे क्या-क्या परिवर्तन करने पड़े यह बताने से पहले मैं आपको उस धर्म के बारे में बताना चाहता हूँ जिसमें मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया गया था।
बचपन में धर्म की शिक्षा
मैं १६ जून, १९३२ में नगॉया शहर में पैदा हुआ था। चार भाइयों में मैं सबसे छोटा था। पिताजी शहर में एक सर्वेक्षक का काम करते थे। माँ तेनरिक्यो नामक शिंटो पंथ की थीं और परमेश्वर पर बहुत विश्वास करती थीं। मेरे सबसे बड़े भाई को तेनरिक्यो गुरु बनने की धार्मिक शिक्षा दी गई थी। मैं अपनी माँ का लाड़ला बेटा था और पूजा-प्रार्थना की सभाओं में वे मुझे अपने साथ ले जाया करती थीं।
मुझे सिर झुकाकर प्रार्थना करना सिखाया गया था। तेनरिक्यो धर्म में तेनरि ओ नो मीकोटो नामक एक देवता पर जिसे सृष्टिकर्ता माना जाता था, साथ ही और दस देवी-देवताओं पर विश्वास करना सिखाया जाता था। इस धर्म को माननेवाले विश्वास द्वारा बीमारियों को चंगा करते थे और दूसरों की सेवा करने और अपने धर्म के प्रचार करने पर ज़ोर देते थे।
जब मैं छोटा था तो हर चीज़ के बारे में जानने के लिए बड़ा उत्सुक रहता था। रात के समय आसमान में चाँद और अनगिनत सितारों को देखकर मैं हैरान हो जाता था और सोचता था कि इस आसमान का अंत कहाँ होता है। मैंने अपने घर के पिछवाड़े छोटी-सी जगह में बैंगन और खीरे उगाए थे और उनको बढ़ता हुआ देखकर उन पर से मेरी नज़रें नहीं हटती थीं। कुदरत के इन नज़ारों को देखकर परमेश्वर में मेरा विश्वास और भी मज़बूत हो गया।
युद्ध का समय
सन् १९३९ से १९४५ के बीच मेरी प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई के दौरान दूसरा विश्व युद्ध भी चल रहा था। हमारी स्कूली पढ़ाई में सम्राट-उपासना पर ज़ोर दिया जाता था, जो शिंटो धर्म का एक अहम हिस्सा थी। हमें शूशीन सिखाया जाता था जिसमें नैतिक शिक्षा दी जाती थी, साथ ही वतन के लिए वफादारी पर ज़ोर दिया जाता था और कुछ हद तक मिलटरी शिक्षा भी दी जाती थी। झंडा-वंदना, राष्ट्र गीत गाना, सम्राट के बारे में सीखना और सम्राट की तसवीर के सामने श्रद्धा से झुकना, ये सारी बातें हमारी स्कूली पढ़ाई का भाग थीं।
हम अपने यहाँ के शिंटो मंदिर में जाकर सम्राट की फौज की जीत के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करते थे। मेरे दूसरे दो भाई मिलटरी में काम करते थे। धर्म में वतन के लिए वफादारी की ऐसी शिक्षा के कारण ही जब कभी मैं जापानी सेना की जीत की खबर सुनता तो बेहद खुश होता।
नगॉया शहर में ही जापानी हवाई जहाज बनते थे इसलिए अमरीका की वायु सेना इसी शहर को हमेशा अपना पहला निशाना बनाती थी। दिन के समय B-29 सुपरफॉरट्रैस बमवर्षक विमान शहर पर करीब ९,००० मीटर की ऊँचाई से उड़ते थे और जहाँ फैक्ट्रियाँ थीं उन जगहों पर सैकड़ों टन बम बरसाते थे। रात में सर्चलाइट की रोशनी में देखा गया कि बमवर्षक विमान बस १,३०० मीटर की ऊँचाई पर उड़ रहे थे। घरों के आस-पास भी हवाई हमलों से आग लगानेवाले बम गिराए जाते थे जिसकी वज़ह से आग की धधकती हुई लपटें चारों तरफ नज़र आती थीं। युद्ध के आखिरी नौ महीनों के दौरान अकेले नगॉया में ही ५४ हवाई हमले हुए जिसकी वज़ह से लोगों को बहुत ही यातना झेलनी पड़ी और जिसमें ७,७०० से ज़्यादा लोगों की मौत भी हुई।
इस बीच दस तटीय शहरों में भी समुद्री जहाज़ों ने बमबारी शुरू कर दी और लोग कह रहे थे कि अमरीका के हवाई जहाज़ शायद टोक्यो के पास उतरें। देश की रक्षा के लिए स्त्रियों और छोटे बच्चों को बाँस के बने भाले से लड़ाई करना सिखाया जा रहा था। हमारा नारा था “ईकहीयोकू सोग्योकूसाई” यानी “आत्मसमर्पण से अच्छा है कि दस करोड़ जापानियों का खून बह जाए।”
अगस्त ७, १९४५ में अखबार की सुर्खियों में लिखा था: “नए किस्म का बम हिरोशिमा पर फेंका गया।” दो दिन बाद दूसरा बम नागासाकी पर फेंका गया। ये परमाणु बम थे और हमें बाद में बताया गया कि इनकी वज़ह से कुल मिलाकर ३,००,००० लोग मारे गए। ट्रेनिंग के लिए हम लकड़ी की बंदूकें लेकर मार्च करते थे, और १५ अगस्त को इस मार्च के बाद हमने सम्राट का भाषण सुना जिसमें उसने कहा कि जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया है। हमें यकीन दिलाया गया था कि जीत हमारी ही होगी लेकिन अब हमारे सपने चूर-चूर हो गए।
आशा की एक नई किरण
जब अमरीकी सैनिक देश पर कब्ज़ा जमाने लगे, तब हमने धीरे-धीरे यह मान लिया कि अमरीका ने लड़ाई जीत ली है। जापान में लोकतंत्र शुरू हुआ और साथ ही एक नया संविधान, जिसमें किसी भी प्रकार के धर्म को मानने की छूट दी गई थी। लेकिन ज़िंदगी बहुत ही तकलीफों से भरी हुई थी, खाने-पीने का सामान बहुत मुश्किल से मिलता था इसलिए अच्छा भोजन न मिलने की वज़ह से १९४६ में पिताजी चल बसे।
इस दौरान, मेरे स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाई जाने लगी और NHK रेडियो स्टेशन पर अंग्रेज़ी में बात कैसे करें यह सिखाने का कार्यक्रम शुरू हो गया। मैं पाँच साल तक रोज़ हाथों में अंग्रेज़ी पुस्तक लिए इस लोकप्रिय कार्यक्रम को सुनता रहा। इसकी वज़ह से मैं किसी दिन अमरीका जाने का ख्वाब देखने लगा। शिंटो और बौद्ध धर्म से निराश होकर मैं सोचने लगा कि शायद पश्चिम देशों के धर्मों में परमेश्वर के बारे में सच्चाई का पता चले।
अप्रैल १९५१ की शुरूआत में, मैं वॉचटावर सोसाइटी की मिशनरी ग्रेस ग्रेगरी से मिला। वह नगॉया रेलवे स्टेशन के सामने खड़ी होकर अंग्रेज़ी में प्रहरीदुर्ग और जापानी भाषा में बाइबल के एक विषय पर पुस्तिका दे रही थी। ऐसा काम करने में उसकी नम्रता देखकर मुझ पर गहरा असर हुआ। मैंने दोनों किताबें ले लीं और बाइबल अध्ययन करने के लिए भी राज़ी हो गया। मैंने वादा किया कि कुछ दिनों के बाद मैं बाइबल अध्ययन के लिए उसके घर ज़रूर आऊँगा।
ट्रेन में बैठने के बाद मैं प्रहरीदुर्ग पढ़ने लगा और लेख के पहले ही शब्द ने मेरा ध्यान खींच लिया और वह शब्द था, “यहोवा।” मैंने पहले कभी यह शब्द नहीं पढ़ा था। और मैं सोच भी नहीं सकता था कि अंग्रेज़ी-जापानी की मेरी छोटी-सी डिकश्नरी में मुझे यह शब्द मिलेगा, लेकिन यह शब्द तो उसमें था! “यहोवा . . . , बाइबल का परमेश्वर।” अब मैंने ईसाईजगत के परमेश्वर के बारे में जानकारी लेनी शुरू कर दी।
जब मैं मिशनरी होम में पहली बार गया तब वहाँ मुझे पता चला कि वॉचटावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी के अध्यक्ष नेथन एच. नॉर कुछ हफ्ते बाद बाइबल से एक भाषण देनेवाले हैं। अपने सेक्रॆटरी मिल्टन हैंशल के साथ वे जापान का दौरा कर रहे थे और नगॉया आनेवाले थे। हालाँकि बाइबल के बारे में, मैं कुछ खास नहीं जानता था फिर भी मुझे भाषण और मिशनरियों का और वहाँ आनेवाले दूसरे लोगों का साथ बहुत ही अच्छा लगा।
ग्रेस ने मुझे बाइबल सिखायी और दो महीने के अंदर ही मैंने यहोवा, यीशु मसीह, छुड़ौती बलिदान, शैतान, अरमगिदोन और परादीस पृथ्वी के बारे में सही-सही जानकारी हासिल कर ली। राज्य की खुशखबरी बिलकुल वही आशा थी जिसकी तलाश मुझे बरसों से थी। बाइबल सीखना शुरू करते ही मैं कलीसिया की सभाओं में भी जाने लगा। मुझे वहाँ का दोस्ताना माहौल बहुत अच्छा लगता था, जहाँ मिशनरी भाई-बहन जापानी भाई-बहनों के साथ घुलमिल जाते थे और चटाइयों (टाटामी) पर साथ-साथ बैठते थे।
अक्तूबर १९५१ में, जापान में पहला सर्किट सम्मेलन हुआ जो ओसाका शहर के नाकानोशीमा पब्लिक हॉल में रखा गया था। पूरे जापान में ३०० से भी कम साक्षी थे, फिर भी उस सम्मेलन में ५० मिशनरियों को मिलाकर करीब ३०० लोग आए थे। सम्मेलन के कार्यक्रम में मुझे छोटा-सा भाग भी मिला था। मैंने वहाँ जो देखा और सुना उसने मेरे दिल पर गहरी छाप छोड़ी और मैंने मन ही मन यह संकल्प कर लिया कि सारी ज़िंदगी यहोवा की सेवा करूँगा। दूसरे दिन मैंने करीब के एक सार्वजनिक स्नानघर में बपतिस्मा लिया।
पायनियर सेवा करने का आनंद
मैं पायनियर बनना चाहता था यानी यहोवा के साक्षियों का पूर्ण-समय प्रचारक, मगर दूसरी तरफ मुझे इस बात का भी एहसास था कि अपने परिवार को सँभालना मेरी ज़िम्मेदारी है। जब हिम्मत जुटाकर मैंने अपनी इच्छा अपने बॉस से ज़ाहिर की, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि उसने कहा: “अगर तुम्हारी खुशी इसी में है तो मैं भी तुम्हारी मदद करने के लिए तैयार हूँ।” मैं हफ्ते में सिर्फ दो दिन काम करता था पर फिर भी मैं घर का खर्च चलाने में माँ की मदद कर लेता था। मैंने वाकई अपने आपको एक आज़ाद पंछी की तरह महसूस किया।
जैसे जैसे हालात सुधरने लगे, मैंने १ अगस्त, १९५४ में नगॉया स्टेशन के पीछेवाले इलाके में पायनियरिंग करना शुरू कर दिया जो उस जगह से बस थोड़ी ही दूर था जहाँ मैं पहली बार ग्रेस से मिला था। कुछ महीनों बाद पश्चिमी द्वीप क्यूशु के शहर बैप्पू में मुझे स्पेशल पायनियर बनाकर भेजा गया। सुटोमू मीऊरा मेरा साथी था।a उस वक्त पूरे द्वीप पर यहोवा के साक्षियों की एक भी कलीसिया नहीं थी, लेकिन आज २२ सर्किटों में सैकड़ों कलीसियाएँ हैं!
मैंने नई दुनिया का पहले ही मज़ा चखा
जब भाई नॉर अप्रैल १९५६ में जापान के दौरे पर आए उन्होंने मुझे अंग्रेज़ी प्रहरीदुर्ग से कुछ अनुच्छेद ज़ोर से पढ़ने के लिए कहा। मुझे यह नहीं बताया गया कि क्यों, लेकिन कुछ महीनों बाद मुझे एक खत मिला जिसमें गिलियड मिशनरी स्कूल की २९वीं क्लास के लिए मुझे बुलाया गया था। उस साल नवंबर के महीने में, मैं पूरे जोश के साथ अमरीका जाने के लिए निकल पड़ा और इस तरह मेरा बरसों पुराना सपना सच हो गया। ब्रुकलिन बेथेल के बड़े परिवार के साथ दो महीने रहने और काम करने से यहोवा के दृश्य संगठन में मेरा विश्वास और भी मज़बूत हो गया।
फरवरी १९५७ में भाई नॉर हम तीन विद्यार्थियों को गाड़ी से वहाँ ले गए जहाँ गिलियड स्कूल होता था और यह उत्तरी न्यू यॉर्क के साउथ लैंसिंग में था। अगले पाँच महीनों के दौरान जब मैंने गिलियड स्कूल में यहोवा के वचन से शिक्षा पायी और अपने सहपाठियों के साथ बहुत ही खूबसूरत इलाके में रहा, तब मैंने पृथ्वी पर आनेवाले परादीस का मज़ा पहले से ही चख लिया। कुल १०३ विद्यार्थियों में से १० को जापान भेजा गया, जिनमें से मैं भी एक था।
मिलनेवाले काम की कदर करना
जब मैं अक्तूबर १९५७ में जापान लौटा तब वहाँ लगभग ८६० साक्षी थे। मुझे सफरी काम देकर सर्किट ओवरसियर बनाया गया, लेकिन इससे पहले मुझे इस काम के लिए नगॉया में एड्रियन थॉमसन से कुछ दिनों की ट्रेनिंग मिली। माउँट फूजी के पास, शीमीज़ू से लेकर शीकोकू द्वीप का इलाका मेरे सर्किट में आता था, जिसमें कीयोटो, ओसाका, कोबे और हिरोशिमा जैसे बड़े-बड़े शहर थे।
फिर १९६१ में मुझे डिस्ट्रिक्ट ओवरसियर का काम दिया गया। इसके लिए मुझे उत्तर में बर्फीले द्वीप, होकैडो के इलाके से लेकर गर्म मौसम के ओकिनावा द्वीप तक जाना पड़ता था, यही नहीं इससे आगे ताइवान के पास इशीगाकी द्वीप तक जाना पड़ता था जो लगभग ३,००० कीलोमीटर दूर था।
इसके बाद १९६३ में मुझे ब्रुकलिन बेथेल में १० महीने तक चलनेवाले गिलियड स्कूल के लिए बुलाया गया। स्कूल के दौरान भाई नॉर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि मिलनेवाले हर काम के लिए सही रवैया दिखाना चाहिए। उन्होंने कहा कि बाथरूम साफ करने का काम उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि ऑफिस में बैठकर काम करना। उन्होंने कहा कि अगर बाथरूम साफ नहीं है तो इसका असर पूरे बेथेल परिवार पर और उनके काम पर पड़ेगा। बाद में जापान के बेथेल में मुझे टॉयलॆट साफ करने का काम भी दिया गया था और तब मुझे उनकी बात याद आयी।
जापान लौटने के बाद मुझे फिर से सफरी काम दिया गया। दो साल बाद सन् १९६६ में मैंने जून्को ईवासाकी से शादी कर ली जो मातसीवे शहर में एक स्पेशल पायनियर थी। लॉइड बैरी जो उस वक्त जापान के ब्राँच ओवरसियर थे, उन्होंने शादी के मौके पर दिल छू लेनेवाला भाषण दिया। इसके बाद जून्को मेरे साथ सफरी काम में हो ली।
फिर १९६८ में मुझे एक अलग काम दिया गया। टोक्यो के हमारे ब्राँच आफिस में मुझे अनुवाद के काम के लिए बुलाया गया। जगह की कमी की वज़ह से मैं टोक्यो के सुमीदा वार्ड से आया-जाया करता था और जून्को वहाँ की कलीसिया में स्पेशल पायनियर के तौर पर काम करने लगी। अब ब्राँच को और ज़्यादा जगह की ज़रूरत थी। सो १९७० में माउँट फूजी से कुछ ही दूरी पर नुमाज़ू शहर में एक ज़मीन खरीदी गई। वहाँ तीन मंज़िला फैक्टरी और रहने के लिए एक इमारत बनाई गई। काम शुरू होने से पहले, वहाँ पर बने कई घरों का इस्तेमाल किंग्डम मिनिस्ट्री स्कूल के लिए किया गया। इस स्कूल में कलीसिया के ओवरसियरों को ट्रेनिंग दी जाती है। मुझे इस स्कूल में सिखाने का सुनहरा मौका मिला और जून्को स्कूल में सीखनेवाले ओवरसियरों के लिए खाना बनाती थी। सैकड़ों मसीही भाइयों को सेवकाई के लिए खास ट्रेनिंग पाते हुए देखना बड़ा ही रोमांचक अनुभव था।
एक दोपहर मुझे एक टेलिग्राम मिला। माँ अस्पताल में थीं और उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। मैं बुलैट ट्रैन से नगॉया पहुँचा और फौरन अस्पताल गया। माँ तो बेहोश थीं फिर भी मैं सारी रात उनके पास ही रहा। और सुबह होते-होते माँ चल बसी। नुमाज़ू लौटते वक्त मुझे माँ की याद आती रही कि वे अपनी ज़िंदगी में कैसी-कैसी मुश्किलों से गुज़री थीं और मेरे लिए उनके दिल में कितना प्यार था और यही सारी बातें सोचते वक्त मैं अपने आँसुओं को रोक नहीं सका। अगर यहोवा की इच्छा होगी तो मैं उन्हें फिर से पुनरुत्थान में मिलूँगा।
नुमाज़ू की जगह भी जल्द ही कम पड़ने लगी। इसलिए एबीना शहर में १८ एकड़ की ज़मीन खरीदी गई और नए ब्रांच के निर्माण का काम १९७८ में शुरू हुआ। इस पूरी ज़मीन पर अब फैक्टरी और रहने के लिए बिल्डिंगें और असेमब्ली हॉल बनाया गया है, इस हॉल में २,८०० से ज़्यादा लोग बैठ सकते हैं। अब १३-मंज़िलों की दो बिल्डिंगें और गाड़ियाँ पार्क करने की पाँच-मंज़िला बिल्डिंग भी इस साल की शुरूआत में बनकर तैयार हो गईं। हमारे बेथेल परिवार में अब ५३० सदस्य हैं मगर नई बिल्डिंगों को मिलाकर करीब ९०० लोग रह सकते हैं।
खुश होने के बहुत-से कारण
बाइबल की भविष्यवाणी को पूरा होते देखकर, जी हाँ, ‘सब से दुर्बल को एक सामर्थी जाति बनते’ देखकर दिल खुशी से झूम उठता है। (यशायाह ६०:२२) मुझे याद है १९५१ में एक बार मेरे एक बड़े भाई ने मुझसे पूछा था, “जापान में कितने साक्षी हैं?”
मैंने कहा, “लगभग २६०.”
“बस इतने ही?” उसने मज़ाक उड़ाने के लहज़े में कहा।
मुझे याद है तब मैंने मन-ही-मन कहा, ‘यह तो समय ही बताएगा कि इस शिंटो-बौद्ध धर्म माननेवाले देश से यहोवा कितने लोगों को अपनी सेवा में लाएगा।’ और यहोवा ने इसका ज़बरदस्त जवाब दिया है! आज जापान में एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं जहाँ प्रचार नहीं किया गया हो और सच्चे उपासकों की संख्या बढ़कर ३,८०० कलीसियाओं में २,२२,००० से ज़्यादा हो गई है!
पूर्ण समय की सेवा में बिताए गए मेरे ज़िंदगी के पिछले ४४ साल—३२ साल अपनी पत्नी के साथ—खासकर खुशियों से भरपूर रहे हैं। इनमें से २५ साल मैंने बेथेल में अनुवाद का काम किया है। सितंबर १९७९ में मुझे जापान में यहोवा के साक्षियों के ब्राँच कमेटी का सदस्य बनने का बुलावा भी मिला।
मेरे लिए यह एक सम्मान की बात है और यहोवा से एक आशीष है कि उसकी उपासना करने के लिए सच्चे और शांति-प्रिय लोगों की मदद करने में मेरा भी छोटा-सा हिस्सा रहा है। जो मैंने किया वही बहुतों ने किया है—हमने सम्राट की उपासना छोड़कर एक ही सच्चे परमेश्वर यहोवा की उपासना शुरू की है। यहोवा कभी किसी लड़ाई में नहीं हारता। इसलिए मैं दिल से कामना करता हूँ कि मैं और भी कई लोगों को यहोवा की ओर ले आऊँ और शांतिपूर्ण नई दुनिया में अनंत जीवन पाने के लिए उनकी मदद करूँ।—प्रकाशितवाक्य २२:१७.
[फुटनोट]
a उसका पिता एक वफादार साक्षी था। १९४५ में जब वह जापानियों की कैद में था उस समय हिरोशीमा पर हुए परमाणु-बम विस्फोट से वह बच गया था। अक्तूबर ८, १९९४ की सजग होइए! का पेज १२-१६ देखिए।
[पेज 29 पर तसवीर]
स्कूल की पढ़ाई में सम्राट-उपासना पर ज़ोर दिया जाता था
[चित्र का श्रेय]
The Mainichi Newspapers
[पेज 29 पर तसवीर]
भाई फ्रान्ज़ के साथ न्यू यॉर्क में
[पेज 29 पर तसवीर]
अपनी पत्नी जून्को के साथ
[पेज 31 पर तसवीर]
अनुवाद का काम करते वक्त