पवित्र शास्त्र सँवारे ज़िंदगी
एक लड़की जिसे परमेश्वर को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी और जिसका अच्छा-खासा करियर था, उसे ज़िंदगी का मकसद कैसे मिला? जब एक कैथोलिक लड़के ने जाना कि मरने पर हमारा क्या होता है, तो उसकी ज़िंदगी कैसे बदल गयी? एक लड़का जो अपनी ज़िंदगी से खुश नहीं था, उसने परमेश्वर के बारे में ऐसा क्या जाना जिससे उसकी ज़िंदगी में खुशियाँ आ गयीं और वह जोश से दूसरों को भी परमेश्वर के बारे में बताने लगा? आइए इन्हीं लोगों की ज़ुबानी सुनें।
“सालों तक मैं सोचती रही, ‘हमें क्यों बनाया गया है?’”—रोज़ालिंड जॉन
जन्म: 1963
देश: ब्रिटेन
अतीत: बढ़िया करियर
मेरा बीता कल:
मेरा जन्म लंदन के दक्षिण में क्रॉयडन नाम की जगह में हुआ था। मेरे पाँच बड़े भाई-बहन थे और तीन छोटे। मेरे मम्मी-पापा कैरिबियन के सेंट विनसैंट द्वीप से थे। मम्मी मेथोडिस्ट चर्च जाया करती थीं। मुझे पढ़ना बहुत पसंद था, लेकिन परमेश्वर के बारे जानने में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। स्कूल की छुट्टियों में मैं लाइब्रेरी से किताबें ले आया करती थी और घर के पास एक तलाब के किनारे बैठकर उन्हें पढ़ा करती थी।
स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के कुछ साल बाद मैंने सोच लिया कि मैं ज़रूरतमंदों की मदद करूँगी। मैं बेघर लोगों की मदद करने लगी और उनकी भी जो शरीर से लाचार थे और जो सीखने-समझने में कमज़ोर थे। फिर मैंने यूनिवर्सिटी में स्वास्थ्य से जुड़ा एक कोर्स किया। कोर्स खत्म करने के बाद मुझे एक-से-बढ़कर-एक नौकरियाँ मिलीं। मेरा ऊँचा ओहदा था और मैं खूब कमाती थी। मैं महँगी-महँगी चीज़ें खरीदने लगी और आराम की ज़िंदगी जीने लगी। मैं मैनेजमेंट कंसल्टेंट थी और सामाजिक विषयों पर खोजबीन करती थी। इसलिए मुझे काम करने के लिए बस अपना लैपटॉप और इंटरनेट चाहिए था। मैं कई हफ्तों के लिए विदेश जाती थी। मैं अपने मनपसंद होटल में रुकती थी, घूमने-फिरने जाती थी और खूबसूरत नज़ारों का मज़ा लेती थी। अपनी सेहत बनाए रखने के लिए मैं जिम में कसरत करती थी और स्पा में मसाज कराती थी। मैं एक शानदार ज़िंदगी जी रही थी, लेकिन मुझे गरीबों और लाचार लोगों की भी चिंता सताती थी।
पवित्र शास्त्र ने मेरी ज़िंदगी किस तरह बदल दी:
कई सालों तक मैं सोचती रही, ‘हमें क्यों बनाया गया है? हमारी ज़िंदगी का मकसद क्या है?’ लेकिन मैंने कभी बाइबल से इन सवालों के जवाब जानने की कोशिश नहीं की। एक बार 1999 में मेरी छोटी बहन मारगरेट अपनी सहेली के साथ मुझसे मिलने आयी। उस वक्त तक मारगरेट यहोवा की साक्षी बन गयी थी। उसकी सहेली ने मुझसे बहुत अच्छे-से बात की और मुझसे पूछा कि क्या तुम बाइबल से सीखना चाहोगी। मैं मान गयी। लेकिन अपने करियर और अपने शौक पूरे करने की वजह से मेरे पास अध्ययन के लिए वक्त ही नहीं होता था। इसलिए मैं सिर्फ थोड़ा ही सीख पाती थी।
2002 की गरमियों में मैं इंग्लैंड के दक्षिण-पश्चिमी इलाके में जाकर बस गयी। वहाँ मैंने यूनिवर्सिटी में सामाजिक विषयों पर मास्टर डिग्री ली और मैंने सोच लिया कि मैं और भी पढ़ूँगी। इस बीच मैं अपने बेटे के साथ लगातार यहोवा के साक्षियों की सभाओं में जाने लगी। मुझे यूनिवर्सिटी की पढ़ाई बहुत पसंद थी लेकिन बाइबल पढ़कर ही मैंने जाना कि हमारी ज़िंदगी में मुश्किलें क्यों हैं और ये कैसे दूर होंगी। मैंने मत्ती 6:24 से यह भी जाना कि हम दो मालिकों की सेवा नहीं कर सकते। हम परमेश्वर की सेवा करने के साथ-साथ धन-दौलत के पीछे नहीं भाग सकते। मैं समझ गयी कि मुझे फैसला करना होगा कि मैं ज़िंदगी में किस बात को अहमियत दूँगी।
इससे एक साल पहले, मैं बाइबल अध्ययन के लिए जाया करती थी, जो किसी साक्षी के घर पर रखा जाता था। हम मिलकर इज़ देअर ए क्रिएटर हू केअर्स अबाउट यू?a नाम की किताब पढ़ते थे। उस चर्चा से मुझे यकीन हो गया कि हमारा सृष्टिकर्ता यहोवा ही हमारी समस्याओं को हल कर सकता है। यूनिवर्सिटी में मुझे सिखाया जा रहा था कि हमें ईश्वर की कोई ज़रूरत नहीं है, हम खुद जी सकते हैं। यह सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया। दो महीने बाद मैंने यूनिवर्सिटी जाना छोड़ दिया और मैंने सोच लिया कि मैं परमेश्वर को जानने के लिए और मेहनत करूँगी।
बाइबल की एक बात ने मेरी ज़िंदगी बदल दी। वह बात नीतिवचन 3:5, 6 में लिखी है: “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, बल्कि पूरे दिल से यहोवा पर भरोसा रखना, उसी को ध्यान में रखकर सब काम करना, तब वह तुझे सही राह दिखाएगा।” अपने प्यारे परमेश्वर के बारे में सीखने से मुझे जो खुशी मिली, वह यूनिवर्सिटी की किसी भी डिग्री या दौलत-शोहरत से नहीं मिल सकती। जैसे-जैसे मैंने सीखा कि यहोवा ने धरती के लिए क्या मकसद ठहराया है और उसने क्यों अपने बेटे यीशु को इस धरती पर भेजा तो मेरा और भी मन करने लगा कि मैं अपना जीवन सृष्टिकर्ता को समर्पित करूँ। फिर अप्रैल 2003 में मैंने बपतिस्मा ले लिया। इसके बाद मैंने धीरे-धीरे अपनी ज़िंदगी को सादा बनाया।
मुझे कैसे फायदा हुआ:
यहोवा के साथ मेरा जो रिश्ता है, वह बहुत बेशकीमती है। यहोवा को जानने से मुझे सुकून और चैन मिला है। और परमेश्वर के सेवकों के साथ मिलकर उसकी उपासना करने से मुझे बहुत खुशी मिलती है।
मुझे हमेशा से पढ़ाई करने और नयी-नयी बातें जानने का शौक था। बाइबल और सभाओं से मैं जो सीखती हूँ, उससे मेरी यह दिली ख्वाहिश पूरी हुई है। मैं इस बारे में दूसरों को भी बताती हूँ और अब यही मेरा करियर बन चुका है। अब मैं सही मायनों में लोगों की मदद कर पाती हूँ जिससे वे आज और आगे हमेशा-हमेशा तक एक अच्छी ज़िंदगी जी सकते हैं। जून 2008 से मैं पूरे समय की सेवा कर रही हूँ। इस काम से मुझे जो खुशी मिलती है, वह पहले कभी नहीं मिली। मुझे एक मकसद मिल गया है और मैं इसके लिए यहोवा की बहुत शुक्रगुज़ार हूँ।
“अपने दोस्त की मौत की खबर सुनकर मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा।”—रोमन इरनेसबर्गर
जन्म: 1973
देश: ऑस्ट्रिया
अतीत: जुआरी
मेरा बीता कल:
मैं ऑस्ट्रिया के एक छोटे-से शहर ब्रॉनॉ में पला-बढ़ा। वहाँ के लोग बहुत अमीर थे और वहाँ ज़्यादा अपराध भी नहीं होते थे। हमारा परिवार कैथोलिक था, इसलिए मैं भी बचपन से वही धर्म मानता था।
जब मैं छोटा था, तो कुछ ऐसा हुआ जिसने मुझे हिलाकर रख दिया। 1984 की बात है जब मैं 11 साल का था। एक दिन मैं अपने एक जिगरी दोस्त के साथ फुटबॉल खेल रहा था। और उसी दिन दोपहर को एक कार ऐक्सीडेंट में उसकी मौत हो गयी। यह सुनकर मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा। इसके सालों बाद भी मैं यही सोचता था कि मरने पर हमारा क्या होता है।
स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद मैं बिजली का काम करने लगा। मैं जुआ खेलता था और उसमें खूब पैसा लगाता था, लेकिन मुझे कभी पैसों की दिक्कत नहीं हुई। मैं खेलने-कूदने में भी बहुत वक्त बिताता था। मुझे हैवी मैटल (हिंसक और तेज़ बजनेवाला) और रॉक संगीत का शौक चढ़ गया। डिसको में जाना, पार्टियाँ उड़ाना बस यही मेरी ज़िंदगी थी। मैं गलत-गलत काम करता था और खूब मज़े करता था, लेकिन खुश नहीं था।
पवित्र शास्त्र ने मेरी ज़िंदगी किस तरह बदल दी:
1995 में एक बुज़ुर्ग साक्षी ने मेरे घर का दरवाज़ा खटखटाया और मुझे एक किताब दी जिसमें बाइबल से इस सवाल का जवाब दिया गया था कि मरने पर हमारा क्या होता है। अपने दोस्त की मौत के बारे में सोचकर मुझे अब भी बहुत बुरा लगता था, इसलिए मैंने उनसे वह किताब ले ली। मैंने ना सिर्फ वह अध्याय पढ़ा जिसमें मेरे सवाल का जवाब था, बल्कि पूरी किताब पढ़ डाली!
इससे मुझे अपने सवालों के जवाब मिले, लेकिन साथ ही मैंने कुछ और बातें भी सीखीं। हमारा परिवार कैथोलिक था, इसलिए मैं बचपन से यीशु को बहुत मानता था। लेकिन बाइबल का गहराई से अध्ययन करने पर मैंने यीशु के पिता, यहोवा परमेश्वर को जाना और उसके साथ एक रिश्ता कायम किया। मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई कि यहोवा हमसे दूर-दूर नहीं रहता, बल्कि वह चाहता है कि हम उसे जानें और उसके करीब आएँ। और जो कोई उसकी खोज करता है, उसे वह अपने बारे में जानने का मौका देता है। (मत्ती 7:7-11) मैंने जाना कि हमारे कामों से या तो हम यहोवा को खुश कर सकते हैं या दुखी। मैंने यह भी सीखा कि यहोवा अपने वचन का पक्का है। इन सब बातों के बारे में सीखकर मुझमें बाइबल की भविष्यवाणियों के बारे में जानने की रुचि जागी। मैं उनका अध्ययन करने लगा और मैंने जाना कि वे किस तरह पूरी हुईं। मैंने जो बातें सीखीं, उनसे परमेश्वर पर मेरा विश्वास और भी बढ़ गया।
कुछ ही वक्त में मैं समझ गया कि यहोवा के साक्षी ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों को बाइबल में लिखी बातें समझने में मदद देते हैं। उनकी किताबों में बाइबल की जो आयतें दी होती थीं, मैं उन्हें अपनी कैथोलिक बाइबल में निकालकर पढ़ता था। जैसे-जैसे मैं अध्ययन करता गया, मुझे यकीन हो गया कि मुझे सच्चाई मिल गयी है।
बाइबल का अध्ययन करने पर मैंने जाना कि यहोवा चाहता है कि मैं उसके स्तरों के मुताबिक जीऊँ। जब मैंने इफिसियों 4:22-24 पढ़ा, तो मैं समझ गया कि मुझे अपनी “पुरानी शख्सियत” को उतार फेंकना होगा जो मेरे “पहले के चालचलन के मुताबिक” थी और “नयी शख्सियत” को पहनना होगा, जो “परमेश्वर की मरज़ी के मुताबिक रची गयी है।” इसलिए मैंने बदचलन ज़िंदगी जीना छोड़ा दिया। मैं यह भी समझ गया कि मुझे जुआ खेलना बंद करना होगा, क्योंकि इससे लोग पैसे से प्यार करने लगते हैं और लालची बन जाते हैं। (1 कुरिंथियों 6:9, 10) मुझे पता था कि ये बदलाव करने के लिए मुझे अपने पुराने दोस्तों को छोड़ना होगा और उन लोगों से दोस्ती करनी होगी जो बाइबल के स्तरों को मानते हैं।
ये बदलाव करना आसान नहीं था। लेकिन मैं साक्षियों की सभाओं में जाने लगा और वहाँ मैंने नए दोस्त बनाए। मैं बाइबल का गहराई से अध्ययन भी करता रहा। यह सब करने से धीरे-धीरे मैं खुद में बदलाव कर पाया। जैसे, मैंने वह संगीत सुनना बंद कर दिया जो मैं पहले सुनता था, मैंने अपने लिए जो लक्ष्य रखे थे उनमें बदलाव किए और अपने पहनावे में भी। 1995 में मैंने बपतिस्मा लिया और मैं यहोवा का साक्षी बन गया।
मुझे कैसे फायदा हुआ:
अब मैं पैसों और चीज़ों के बारे में सही नज़रिया रखता हूँ। पहले मुझे बहुत गुस्सा आता था, लेकिन अब उतना गुस्सा नहीं आता, मैं शांत रह पाता हूँ। और मैं भविष्य को लेकर ज़्यादा चिंता भी नहीं करता।
मुझे यह सोचकर बहुत अच्छा लगता है कि मैं यहोवा के एक बड़े परिवार का हिस्सा हूँ जो दुनिया-भर में फैला हुआ है। इस परिवार में ऐसे लोग भी हैं जो बहुत-सी मुश्किलों से जूझ रहे हैं, लेकिन वे वफादारी से परमेश्वर की सेवा में लगे हुए हैं। मैं बहुत खुश हूँ कि अब मैं अपना समय और अपनी ताकत अपनी इच्छाएँ पूरी करने में नहीं, बल्कि यहोवा की सेवा करने और दूसरों का भला करने में लगाता हूँ।
‘अब मुझे जीने का एक मकसद मिल गया है।’—इयन किंग
जन्म: 1963
देश: इंग्लैंड
अतीत: ज़िंदगी से खुश नहीं था
मेरा बीता कल:
मेरा जन्म इंग्लैंड में हुआ था। लेकिन जब मैं सात साल का था तो हमारा परिवार ऑस्ट्रेलिया में जाकर बस गया। हमारा घर क्वीन्सलैंड के गोल्ड कोस्ट में था, जहाँ बहुत सारे सैलानी आते थे। हम अमीर तो नहीं थे पर हमारे पास ज़रूरत की सारी चीज़ें थीं।
मुझे कभी किसी चीज़ की कमी नहीं हुई, फिर भी मैं अपनी ज़िंदगी से खुश नहीं था। पापा बहुत शराब पीते थे और मम्मी के साथ बहुत बुरा बरताव करते थे। इस वजह से मुझे उनसे इतना लगाव नहीं था। लेकिन बाद में जाकर मुझे पता चला कि पापा ऐसे क्यों थे। जब वे फौज में थे तो उन्होंने मलाया (अब मलेशिया कहलाता है) में हुई लड़ाई के वक्त बहुत कुछ देखा था, इसलिए वे इतना पीते थे और गुस्सा करते थे।
जब मैं हाई स्कूल में था तो मैं खूब शराब पीने लगा। जाम पर जाम लेना मेरी आदत बन गयी। सोलह साल की उम्र में मैंने स्कूल छोड़ दिया और नौसेना में भर्ती हो गया। वहाँ मैं तरह-तरह के ड्रग्स लेने लगा और मुझे तंबाकू की लत लग गयी। मैं शराब पीए बिना नहीं रह पाता था। शुरू-शुरू में मैं शनिवार-रविवार को पीता था, लेकिन देखते-ही-देखते मैं रोज़ पीने लगा।
जब मैं करीब 20 साल का था तो मेरे मन में यह सवाल आने लगा कि पता नहीं कोई ईश्वर है भी या नहीं। मैं सोचता था, ‘अगर ईश्वर है तो वह तकलीफें दूर क्यों नहीं करता और क्यों उसने लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया है?’ मैं दुख-तकलीफों के लिए ईश्वर को ज़िम्मेदार मानता था और यह बात मैनें अपनी कुछ कविताओं में भी लिखी।
23 साल की उम्र में मैंने नौसेना छोड़ दी। इसके बाद मैंने अलग-अलग नौकरियाँ कीं और एक साल तक मैं अलग-अलग देशों में गया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, मुझे कहीं सुकून नहीं मिला। मुझमें कुछ भी पाने की तमन्ना नहीं रही। मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता था। इस उम्र में लोग एक अच्छा घर, बढ़िया नौकरी और प्रमोशन पाने के सपने देखते हैं, लेकिन मेरे अंदर ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं थी। अगर किसी चीज़ से मुझे थोड़ी खुशी मिलती थी, तो वह थी शराब और संगीत।
मुझे आज भी वह घड़ी याद है जब मैंने गहराई से सोचा कि ज़िंदगी का मकसद क्या है। उस वक्त मैं पोलैंड में ऑशविट्ज़ यातना शिविर देखने गया था। वैसे तो मैंने किताबों में पढ़ा था कि वहाँ लोगों पर कितने ज़ुल्म किए गए थे और उन्हें किस तरह तड़पाया गया था। लेकिन जब मैं खुद वहाँ गया तो मैंने देखा कि वह शिविर कितना बड़ा है। और यह सोचकर कि वहाँ जीना कितना मुश्किल रहा होगा, मैं अंदर से पूरी तरह हिल गया। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इंसान इतना बेरहम कैसे हो सकता है। मुझे आज भी याद है कि उस शिविर का दौरा करते वक्त मेरी आँखों में आँसू थे और मैं सोच रहा था, ‘आखिर क्यों?’
पवित्र शास्त्र ने मेरी ज़िंदगी किस तरह बदल दी:
1993 में मैं विदेश से लौट आया। और फिर मैं अपने सवालों के जवाब ढूँढ़ने के लिए बाइबल पढ़ने लगा। उसके कुछ ही वक्त बाद दो यहोवा के साक्षी मेरे घर आए और उन्होंने मुझे एक अधिवेशन में आने का न्यौता दिया। जिस स्टेडियम में अधिवेशन रखा गया था वह मेरे घर के पास ही था, इसलिए मैनें सोचा कि मैं वहाँ जाऊँगा।
कुछ ही महीनों पहले मैं उसी स्टेडियम में एक मैच देखने के लिए गया था, लेकिन उस मैच और इस अधिवेशन में ज़मीन-आसमान का फर्क था। यहोवा के साक्षी बड़े अदब से एक-दूसरे से बात कर रहे थे और सबने बहुत अच्छे कपड़े पहने हुए थे और उनके बच्चों का व्यवहार भी बहुत अच्छा था। और जब दोपहर में खाने का वक्त हुआ, तो मैं दंग ही रह गया! सैकड़ों साक्षियों ने वहीं मैदान में बैठकर खाना खाया पर जब वे कार्यक्रम के लिए अपनी सीट पर लौटे, तो मैदान में ज़रा भी कूड़ा-कचरा नहीं था। लेकिन जो बात मुझे सबसे अच्छी लगी, वह यह थी कि ऐसा लग रहा था इन लोगों के पास दुनिया की सारी खुशियाँ हैं और इन्हें किसी बात की चिंता नहीं है। मैं भी ऐसे ही जीना चाहता था। उस दिन जो भाषण दिए गए थे, उनमें से एक भी मुझे याद नहीं, पर साक्षी जिस तरह से व्यवहार कर रहे थे, वह मैं कभी नहीं भूलूँगा।
उस शाम मुझे अपनी बुआ के बेटे की एक बात याद आयी। वह भी बाइबल पढ़ता था और उसने कई धर्मों के बारे में जानने की कोशिश की थी। कई साल पहले उसने मुझे यीशु की कही एक बात बतायी थी। उसने कहा था कि लोगों के व्यवहार से हम यह जान सकते हैं कि वे जिस धर्म को मानते हैं वह सच्चा है या नहीं। (मत्ती 7:15-20) इसलिए मैनें सोचा कि मुझे साक्षियों के बारे में जानना चाहिए क्योंकि वे दूसरों से बहुत अलग थे। ज़िंदगी में पहली बार मुझे एक उम्मीद नज़र आयी, मुझे लगा कि मैं खुश रह सकता हूँ।
अगले हफ्ते वे दो साक्षी मुझसे दोबारा मिलने आए जिन्होंने मुझे अधिवेशन के लिए बुलाया था। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं बाइबल के बारे में सीखना चाहूँगा। मैंने हाँ कह दिया और मैं उनके साथ सभाओं में भी जाने लगा।
बाइबल सीखने के बाद परमेश्वर के बारे में मेरी सोच पूरी तरह बदल गयी। मैंने जाना कि परमेश्वर हम पर दुख-तकलीफें नहीं लाता, बल्कि जब वह लोगों को बुरे काम करते देखता है तो उसे बहुत दुख पहुँचता है। (उत्पत्ति 6:6; भजन 78:40, 41) मैंने सोच लिया कि अब मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा जिससे यहोवा परमेश्वर को दुख पहुँचे। मैं उसे खुश करना चाहता था, इसलिए मैंने बहुत ज़्यादा शराब पीना, तंबाकू लेना और बदचलन ज़िंदगी जीना छोड़ दिया। (नीतिवचन 27:11) मार्च 1994 में मैंने बपतिस्मा ले लिया और मैं यहोवा का एक साक्षी बन गया।
मुझे कैसे फायदा हुआ:
आज मैं सच में बहुत खुश हूँ और जीवन में संतुष्ट हूँ। जब मैं निराश होता हूँ, तो पहले की तरह शराब का सहारा नहीं लेता। इसके बजाय, मैं अपना सारा बोझ यहोवा पर डाल देता हूँ।—भजन 55:22.
दस साल पहले मैंने कैरन नाम की एक साक्षी से शादी कर ली, जिसकी एक प्यारी-सी बेटी थी, नेल्ला। हम तीनों घंटों-घंटों प्रचार करते हैं। लोगों को परमेश्वर के बारे में सिखाना हमें बहुत पसंद है। अब मैं कह सकता हूँ कि मुझे जीने का एक मकसद मिल गया है।
a इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।