अध्याय 34
उन्नति के लिए अच्छी और सुहावनी बातें
हमें जो संदेश सुनाने का काम सौंपा गया है, वह एक खुशी का संदेश है। यीशु ने कहा: “अवश्य है कि पहिले सुसमाचार सब जातियों में प्रचार किया जाए।” (मर. 13:10) यीशु ने खुद “परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार” प्रचार करके एक मिसाल कायम की। (लूका 4:43) प्रेरितों ने भी जो संदेश सुनाया, उसे “परमेश्वर का सुसमाचार” और “मसीह का सुसमाचार” कहा गया है। (1 थिस्स. 2:2; 2 कुरि. 2:12) यह एक अच्छा संदेश है और इससे उन्नति होती है।
‘आकाश के बीच में उड़ता स्वर्गदूत’ जो “सनातन सुसमाचार” सुनाता है, उसी के मुताबिक हम लोगों को बढ़ावा देते हैं: “परमेश्वर से डरो; और उस की महिमा करो।” (प्रका. 14:6, 7) हम दुनिया के कोने-कोने में लोगों को सच्चे परमेश्वर, उसके नाम, उसके बेमिसाल गुणों, उसके शानदार कामों और उसके प्यार-भरे मकसद के बारे में बताते हैं। साथ ही, हम समझाते हैं कि हर इंसान को अपने कामों के लिए परमेश्वर को जवाब देना होगा और यह भी कि परमेश्वर हमसे क्या चाहता है। सुसमाचार में यह बताना भी शामिल है कि कैसे यहोवा परमेश्वर उन सभी दुष्टों का नामो-निशान मिटा देगा, जो उसका अनादर करते हैं और दूसरे इंसानों की ज़िंदगी बरबाद कर देते हैं। लेकिन जिन लोगों को हम सुसमाचार सुनाते हैं, उनका न्याय करना हमारा काम नहीं। यह हमारी दिली ख्वाहिश है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग बाइबल के संदेश को कबूल करें ताकि यह उनके लिए वाकई एक सुसमाचार या खुशखबरी साबित हो।—नीति. 2:20-22; यूह. 5:22.
निराश करनेवाली बातें कम बोलिए। बेशक, ज़िंदगी में ऐसी कई बातें हैं जो हमें निराश कर देती हैं। और हम इन्हें पूरी तरह नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। प्रचार में बातचीत शुरू करने के लिए आप शायद किसी ऐसी समस्या का ज़िक्र करें, जिसे लेकर आपके इलाके के ज़्यादातर लोग परेशान हैं और उस पर थोड़े वक्त के लिए चर्चा करें। लेकिन अगर हम समस्या के बारे में ही काफी देर तक बात करें, तो उससे कुछ खास फायदा नहीं होगा। लोग तो वैसे भी हमेशा बुरी खबरें सुनते रहते हैं, इसलिए अगर हम भी बुरे हालात के बारे में उनसे बात करें, वे या तो अपना दरवाज़े या फिर अपने कान बंद कर लेंगे। इसलिए बातचीत शुरू करने के बाद, जल्द-से-जल्द परमेश्वर के वचन में लिखी सच्चाइयों पर उनका ध्यान दिलाइए जो मन को तरो-ताज़ा करती हैं। (प्रका. 22:17) तब सामनेवाला चाहे आपके साथ बातचीत जारी रखना न चाहे, फिर भी आपने उसे कुछ अच्छी बात बताकर बातचीत खत्म की है जिस पर वह बाद में सोच सकता है। इससे वह शायद दूसरे मौके पर और अच्छी तरह सुनना चाहेगा।
उसी तरह, जब आपको भाषण देने के लिए कहा जाता है, तो बुरी घटनाओं के बारे में शायद ढेर सारी जानकारी आपको बड़ी आसानी से मिल जाए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप भाषण में ये सारी बातें बताकर सुननेवालों को बेज़ार कर दें। अगर एक वक्ता, इंसानी शासकों की नाकामी, अपराध और हिंसा की खबरें और अनैतिकता के हद-से-ज़्यादा बढ़ने के बारे में देर तक बताता रहे, तो सुननेवाले निराश हो सकते हैं। ऐसी बातों का ज़िक्र सिर्फ तब कीजिए जब उनके बारे में बताने का कोई फायदा हो। हो सकता है, कुछ हद तक ऐसी समस्याओं के बारे में बताकर आप यह साबित करें कि भाषण की जानकारी क्यों इस वक्त के लिए ज़रूरी है। या फिर ऐसी जानकारी से आप शायद लोगों को समझा सकें कि इन मुश्किलों के लिए ज़िम्मेदार कौन है या क्या है, और बाइबल में बताया गया समाधान ही क्यों कारगर है। जहाँ मुमकिन हो, वहाँ मुश्किलों के बारे में बहुत कुछ बताने के बजाय सीधे-सीधे उनकी वजह और समाधान के बारे में बताइए।
एक भाषण में बुराइयों या निराशाजनक बातों का बिलकुल भी ज़िक्र न किया जाए, ऐसा न तो मुमकिन होगा, न ही ठीक होगा। हमारे सामने चुनौती यह है कि हम अच्छी और बुरी बातों को इस तरह मिलाकर पेश करें कि सुननेवालों पर इसका बढ़िया असर हो। इसके लिए आपको तय करने की ज़रूरत है कि आप क्या बताएँगे, क्या नहीं बताएँगे और किन-किन बातों पर ज़ोर देंगे। पहाड़ी उपदेश में, यीशु ने लोगों को बताया कि वे, शास्त्रियों और फरीसियों की तरह स्वार्थी न बनें और फिर उसने इस मुद्दे को समझाने के लिए कुछ उदाहरण भी दिए। (मत्ती 6:1, 2, 5, 16) लेकिन यीशु ने उन झूठे धर्म-गुरुओं के बुरे उदाहरण के बारे में देर तक चर्चा नहीं की। इसके बजाय, उसने इस बात पर ज़ोर दिया कि परमेश्वर के सच्चे मार्गों की समझ हासिल करना और उनके मुताबिक चलना ज़रूरी है। (मत्ती 6:3, 4, 6-15, 17-34) इसका बहुत बढ़िया असर हुआ।
आपके बोलने का अंदाज़ सुहावना हो। अगर आपको मसीही सेवा के किसी पहलू के बारे में कलीसिया में भाषण देना है, तो भाई-बहनों की कमज़ोरियाँ बताने के बजाय ऐसी बातें बताइए जिससे सुननेवालों को फायदा हो। लेकिन ध्यान रहे कि आप दूसरों को जो सलाह दे रहे हैं, उस पर आप खुद भी चल रहे हैं या नहीं। (रोमि. 2:21, 22; इब्रा. 13:7) आप जो बोलते हैं, उसकी वजह सुननेवालों से आपकी खीज नहीं बल्कि आपका प्यार होना चाहिए। (2 कुरि. 2:4) अगर आपको यह भरोसा है कि आपके मसीही भाई-बहन यहोवा को खुश करना चाहते हैं, तो आप अपनी बातों से यह भरोसा ज़ाहिर करेंगे और इसका उन पर अच्छा असर होगा। ध्यान दीजिए कि 1 थिस्सलुनीकियों 4:1-12; 2 थिस्सलुनीकियों 3:4, 5; और फिलेमोन 4, 8-14, 21 में पौलुस ने अपने भाइयों पर भरोसा कैसे ज़ाहिर किया।
कभी-कभी प्राचीनों को गलत चालचलन के बारे में भाइयों को चेतावनी देने की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन अगर प्राचीन नम्र होंगे, तो ऐसे मामलों में वे भाइयों को नम्रता के साथ समझाएँगे। (गल. 6:1) प्राचीन जिस तरीके से अपनी बात कहेंगे, उससे ज़ाहिर होना चाहिए कि वे कलीसिया के लोगों का आदर करते हैं। (1 पत. 5:2, 3) बाइबल, खासकर जवान भाइयों को इस बात का ध्यान रखने की सलाह देती है। (1 तीमु. 4:12; 5:1, 2; 1 पत. 5:5) जब किसी को समझाने, सुधारने, या मामलों को सुलझाने की ज़रूरत होती है, तो यह काम बाइबल में दी गयी जानकारी के मुताबिक ही किया जाना चाहिए। (2 तीमु. 3:16) वक्ता की नज़र में जो सही है, उन विचारों को सच साबित करने के लिए उसे बाइबल की आयतों का मतलब घुमा-फिराकर या बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताना चाहिए। अगर भाषण में ताड़ना देने की ज़रूरत होती है, तब भी भाषण को ऐसे अंदाज़ में पेश किया जा सकता है जिससे सुननेवालों का हौसला बढ़े। इसके लिए वक्ता को इस बात पर ज़ोर देना चाहिए कि गलत काम करने से कैसे बचा जाए, समस्याओं का सामना कैसे किया जाए, मुश्किलों को कैसे पार किया जाए, गलत मार्ग से कैसे लौटा जाए और यहोवा के नियमों पर चलने से कैसे बुराई से हमारी हिफाज़त होती है।—भज. 119:1, 9-16.
अपने भाषण की तैयारी करते वक्त, इस बात पर खास ध्यान दीजिए कि आप हर मुख्य मुद्दे के आखिर में और पूरे भाषण के आखिर में क्या कहेंगे। आखिर में कही गयी बात, सुननेवालों को लंबे समय तक याद रहती है। आप जो कहेंगे, क्या उससे लोगों का हौसला बढ़ेगा?
भाई-बहनों के साथ बात करते वक्त। मसीही सभाओं में यहोवा के सेवकों को एक-दूसरे के साथ संगति करने का जो मौका मिलता है, उसे वे अनमोल समझते हैं। इन मौकों पर हम आध्यात्मिक रूप से तरो-ताज़ा होते हैं। बाइबल हमसे गुज़ारिश करती है कि जब हम उपासना के लिए इकट्ठे होते हैं, तो ‘एक दूसरे को प्रोत्साहित करते रहें।’ (इब्रा. 10:25, NHT) यह हम न सिर्फ भाषण और जवाब देकर बल्कि सभाओं से पहले और बाद में एक-दूसरे से बातचीत करने के ज़रिए भी करते हैं।
सभाओं में भाइयों से बात करते वक्त, रोज़मर्रा की बातों पर चर्चा करना गलत तो नहीं है, लेकिन अगर हम आध्यात्मिक विषयों पर बातें करें तो यह एक-दूसरे के लिए सबसे ज़्यादा फायदेमंद रहेगा। हमें पवित्र सेवा में जो अनुभव होते हैं, उनके बारे में हम भाइयों को बताकर अपनी खुशी बाँट सकते हैं। एक-दूसरे में सही किस्म की दिलचस्पी दिखाना भी उन्नति में मददगार होता है।
यह संसार हमें लगातार अपने रंग में रंगने की कोशिश करता है, इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए। पौलुस ने इफिसुस के मसीहियों को लिखा: “झूठ बोलना छोड़कर हर एक अपने पड़ोसी से सच बोले।” (इफि. 4:25) झूठ के बजाय, सच बोलने का मतलब यह भी है कि जिन चीज़ों या लोगों को दुनिया पूजती है, उनके बारे में हम बढ़ा-चढ़ाकर न बोलें। इसके अलावा, यीशु ने भी एक चेतावनी दी कि हम ‘धन के धोखे’ में न पड़ें। (मत्ती 13:22) इसलिए आपस में बात करते वक्त, हमें चौकस रहना चाहिए कि हम अपनी धन-दौलत और ऐशो-आराम की चीज़ों का खूब बखान न करें, वरना हम धन के धोखे को बढ़ावा दे रहे होंगे।—1 तीमु. 6:9, 10.
प्रेरित पौलुस ने जब दूसरों की उन्नति के लिए अच्छी बातें कहने की सलाह दी, तब उसने यह भी कहा कि अगर एक भाई “विश्वास में निर्बल” है यानी उसे यह नहीं मालूम कि मसीही आज़ादी का दायरा कहाँ तक है, तो इस वजह से वह शायद कुछेक चीज़ों से परहेज़ करे। ऐसे में हमें उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए, ना ही उसे नीचा दिखाना चाहिए। जी हाँ, हमारी बातों से दूसरों की उन्नति तभी होगी जब हम यह ध्यान में रखकर बात करेंगे कि वे किस संस्कृति से आए हैं और उन्होंने आध्यात्मिक बातों में किस हद तक तरक्की की है। अगर हम किसी ‘भाई [या बहन] के साम्हने ठेस या ठोकर खाने का कारण रखते हैं,’ तो यह कितने दुःख की बात होगी!—रोमि. 14:1-4, 13, 19.
जो भाई-बहन लंबी बीमारी या किसी और गंभीर समस्या की वजह से तकलीफ उठा रहे हैं, उनके साथ अगर हम हौसला बढ़ानेवाली अच्छी बातें करें तो उन्हें बहुत खुशी मिलेगी। वे शायद काफी मेहनत करके सभाओं में आते होंगे। जो उनके हालात से वाकिफ हैं, वे सभाओं में उनसे मिलकर पूछ सकते हैं: “आपकी तबियत कैसी है?” ऐसी परवाह की वे ज़रूर कदर करेंगे। लेकिन हो सकता है कि उन्हें अपनी बीमारी के बारे में बात करना अच्छा न लगे। इसलिए अगर हम उन्हें बताएँ कि हम उनकी मेहनत की कदर करते हैं और उनकी तारीफ करें, तो उनका दिल खुश हो सकता है। क्या आप देख सकते हैं कि कैसे उनकी तकलीफ के बावजूद यहोवा के लिए उनका प्रेम बरकरार है और वे धीरज धर रहे हैं? सभाओं में उनके जवाब सुनकर क्या आपका विश्वास मज़बूत होता है? उनकी तकलीफ के बारे में बात करने के बजाय, क्या यह अच्छा नहीं होगा कि हम उनके खास गुणों और कलीसिया को उनसे होनेवाले फायदे की चर्चा करें जिससे उनकी उन्नति हो?—1 थिस्स. 5:11.
हमारी बातचीत से दूसरों की उन्नति हो, इसके लिए खासकर यह देखना ज़रूरी है कि हम जिस विषय पर चर्चा करते हैं, उसके बारे में यहोवा क्या सोचता है। प्राचीन इस्राएल में, जिन लोगों ने यहोवा के ठहराए अधिकारियों के खिलाफ आवाज़ उठायी और मन्ना के बारे में कुड़कुड़ाए, उन पर परमेश्वर का क्रोध भड़क उठा। (गिन. 12:1-16; 21:5, 6) तो जब हम प्राचीनों का आदर करते हैं और विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास वर्ग से मिलनेवाले आध्यात्मिक भोजन के लिए कदरदानी दिखाते हैं, तब हम ज़ाहिर करते हैं कि हमने इस्राएलियों से सबक सीखा है।—1 तीमु. 5:17.
जब हम अपने मसीही भाइयों के बीच होते हैं, तब अच्छी बातों के बारे में बोलने में कोई बड़ी समस्या नहीं होती। लेकिन अगर कोई भाई किसी की हद-से-ज़्यादा बुराई करता है, तो आप बातचीत का रुख बदलकर अच्छे विषयों पर चर्चा करने की कोशिश कीजिए जिससे उन्नति हो।
हम चाहे किसी को साक्षी दे रहे हों, स्टेज से भाषण दे रहे हों या अपने मसीही भाई-बहनों से बात कर रहे हों, आइए हम समझ से काम लें ताकि हम अपने हृदय के भंडार से ‘आवश्यकता के अनुसार वही बात निकालें जो उन्नति के लिये उत्तम हो, ताकि उस से सुननेवालों पर अनुग्रह हो।’—इफि. 4:29.