लुई पास्चर—उसके कार्य ने क्या प्रकट किया
फ्रांस में सजग होइए! संवाददाता द्वारा
क्या जीवन स्वतः जनन से आ सकता है? उन्नीसवीं शताब्दी में, कुछ वैज्ञानिकों ने ऐसा सोचा था। उन्हें लगा कि जीवन निर्जीव पदार्थ से, सृष्टिकर्ता द्वारा हस्तक्षेप के बिना स्वतः आ सकता है।
लेकिन अप्रैल १८६४ में वसन्त की एक शाम को, पैरिस में सॉरबोन विश्वविद्यालय के एक सभा भवन में उपस्थित श्रोताओं ने कुछ अलग बात सुनी। वैज्ञानिकों के एक आयोग के सामने एक कुशल प्रस्तुति में, लुई पास्चर ने एक-एक मुद्दा लेकर, स्वतः जनन के सिद्धान्त का सफलतापूर्वक खण्डन किया।
इस भाषण ने और बाद की खोजों ने उसे “संसार के महानतम वैज्ञानिकों में से एक” बनाया, जैसा द वर्ल्ड बुक एनसाइक्लोपीडिया कहती है। लेकिन इस पुरुष ने अपने समय के लोगों पर ऐसा प्रभाव क्यों डाला, और कैसे वह संसार-भर में विख्यात हुआ? उसकी कुछ खोजों से हम अभी कैसे लाभ उठाते हैं?
आरंभिक शोध
लुई पास्चर का जन्म १८२२ में पूर्वी फ्रांस के छोटे-से नगर डोल में हुआ। उसका पिता एक चर्मशोधक था और अपने पुत्र के लिए उसकी बड़ी महत्त्वाकांशाएँ थी। कला की ओर झुकाव, साथ ही सहज कलात्मक कौशल होने के बावजूद लुई ने विज्ञान का मार्ग लिया। उसने २५ की उम्र में विज्ञान में डॉक्टरेट किया।
उसका आरंभिक शोध टार्टरिक अम्ल के सम्बन्ध में था, एक ऐसा मिश्रण जो दाखमधु के मटकों की तलछट में मिलता है। उस शोध के परिणामों को कुछ साल बाद दूसरे शोधकर्ताओं ने आधुनिक कार्बनिक रसायन का आधार डालने के लिए प्रयोग किया। फिर पास्चर ने फरमॆंटिंग (खमीर करनेवाले) कारकों का अध्ययन किया।
पास्चर के शोध से पहले, यीस्ट जैसे फरमॆंटिंग कारकों की उपस्थिति के बारे में पता था। लेकिन यह माना जाता था कि वे फरमॆंटेशन (खमीर प्रक्रिया) के परिणाम थे। लेकिन, पास्चर ने साबित किया कि ये फरमॆंटिंग कारक फरमॆंटेशन का परिणाम नहीं, बल्कि उसका कारण हैं। उसने दिखाया कि अलग-अलग तरह के फरमॆंटिंग कारक अलग-अलग क़िस्म का फरमॆंटेशन करते हैं। इस पर १८५७ में जो रिपोर्ट उसने प्रकाशित की उसे आज “सूक्ष्म जैविकी का जन्मपत्र” समझा जाता है।
उस समय से, उसका कार्य और खोज बढ़ते चले गए। उसकी प्रतिष्ठा के कारण, ओरलियनस् में सिरका उत्पादकों ने उसे उनकी अनेक तकनीकी समस्याओं को सुलझाने के लिए कहा। पास्चर ने साबित किया कि जो कारक दाखमधु को सिरके में बदलने के लिए ज़िम्मेदार था वह वही कारक था जो अब सूक्ष्म-जीव कहलाता है, जो द्रव की सतह पर विद्यमान था। अपने शोध के अन्त में, उसने नगर के सिरका उत्पादकों और मान्य जनों के सामने अपना सुप्रसिद्ध “दाखमधु सिरका पाठ” प्रस्तुत किया।
पास्चूरीकरण
फरमॆंटेशन पर पास्चर के शोध ने उसे यह निष्कर्ष निकालने में समर्थ किया कि खाद्य उद्योग में संदूषण की अधिकांश समस्याएँ जीवाणुओं के कारण होती हैं। जीवाणु हवा में या अच्छी तरह से नहीं धोए गए बर्तनों में विद्यमान होते हैं। पास्चर ने सुझाव दिया कि बैक्टीरिया द्वारा खाद्य पदार्थों का ख़राब होना सफ़ाई बढ़ाने के द्वारा रोका जा सकता है और कि द्रव का ख़राब होना कुछ मिनट के लिए ५० और ६० डिग्री सॆल्सियस के बीच तापमान बनाए रखने के द्वारा रोका जा सकता है। यह तरीक़ा असामान्य फरमॆंटेशन रोकने के लिए पहले दाखमधु पर प्रयोग किया गया। स्वाद या सुगन्ध में ख़ास बदलाव लाए बिना मुख्य जीवाणुओं को मार दिया गया।
पास्चुरीकरण कही जानेवाली यह प्रक्रिया, जिसे पास्चर ने शुरू किया, खाद्य उद्योग में क्रांति ले आयी। आजकल यह तकनीक दाखमधु के लिए प्रयोग नहीं होती लेकिन अब भी दूध या फलों के रस जैसे अनेक उत्पादों के लिए काम देती है। लेकिन, दूसरे तरीक़े भी प्रयोग किए जा सकते हैं, जैसे काफ़ी ऊँचे तापमान पर जीवाणु-नाशन।
पास्चर के शोध से लाभ उठानेवाला एक और बड़ा उद्योग था मद्य उद्योग। उस समय, फ्रांसीसियों को उत्पादन की अनेक समस्याएँ थीं और जर्मनों के साथ कड़ा मुक़ाबला था। पास्चर ने उन समस्याओं पर काम करना शुरू किया और शराब बनानेवालों को काफ़ी सलाह दी। उसने सुझाया कि वे सुरा की शुद्धता का, साथ ही आस-पास की हवा की सामान्य स्वच्छता का ध्यान रखें। सफलता तुरन्त मिली, और उसके बाद उसे अनेक पेटॆंट मिले।
जीवन से जीवन आता है
यह समझाने के लिए कि सड़ते हुए पदार्थों में कीड़े-मकोड़े या दूसरे जीव कैसे आते हैं, प्राचीन समय से एक-से-बढ़कर-एक काल्पनिक विचार प्रस्तुत किए गए थे। उदाहरण के लिए, १७वीं शताब्दी में, बॆलजियम के एक रसायन-विज्ञानी ने डींग मारी कि उसने गेहूँ के कनस्तर में एक गंदा ब्लाउज़ ठूँसने के द्वारा उसमें से एक चुहिया निकाली!
पास्चर के समय में वैज्ञानिक समुदाय में यह बहस गरम थी। स्वतः जनन के समर्थकों का सामना करना एक असल चुनौती थी। लेकिन फरमॆंटेशन पर अपने शोध में जो उसने सीखा था उसके फलस्वरूप, पास्चर विश्वस्त था। सो उसने हमेशा-हमेशा के लिए स्वतः जनन की मान्यता का अन्त करने के उद्देश्य से प्रयोग करने शुरू किए।
हंस-ग्रीवक फ्लास्क के माध्यम से किया गया उसका प्रयोग उसके सबसे प्रसिद्ध प्रयोगों में से एक है। एक द्रव पौष्टिक-तत्व को खुली हवा में एक खुले-मुँह के फ्लास्क में रखने पर जल्द ही कीटाणु उसे संदूषित कर देते हैं। लेकिन, जब उसे एक ऐसे फ्लास्क में रखा जाता है जिसका आकार हंस की गर्दन के जैसा होता है, तब वही द्रव पौष्टिक-तत्व संदूषण-रहित रहता है। ऐसा क्यों है?
पास्चर की व्याख्या सरल थी: हंस-ग्रीवा से गुज़रने पर, हवा में जो बैक्टीरिया होते हैं वे ग्लास की सतह पर चिपक जाते हैं, जिससे कि जब तक हवा उस द्रव तक पहुँचती है वह जीवाणु-रहति होती है। वे कीटाणु जो एक खुले फ्लास्क में विकसित होते हैं वे द्रव पौष्टिक-तत्व द्वारा स्वतः उत्पन्न नहीं होते बल्कि हवा से आते हैं।
जीवाणुओं को इधर-उधर ले जाने में हवा का महत्त्व दिखाने के लिए पास्चर फ्रॆंच आल्पस् में मर डा ग्लैस हिमनद में गया। १८०० मीटर की ऊँचाई पर, उसने अपने बंद फ्लास्क खोले और उन्हें हवा में रखा। २० फ्लास्क में से केवल एक संदूषित हुआ। फिर वह जूरा पर्वत की ढलान पर गया और यही प्रयोग दोहराया। यहाँ, काफ़ी निचाई पर, आठ फ्लास्क संदूषित हो गए। इस प्रकार उसने साबित किया कि ज़्यादा ऊँचाई पर ज़्यादा शुद्ध हवा के कारण, संदूषण का ख़तरा कम था।
ऐसे प्रयोगों के द्वारा पास्चर ने विश्वासोद्पादक ढंग से प्रदर्शित किया कि जीवन केवल उसी जीवन से आता है जो पहले से अस्तित्व में है। वह कभी भी स्वतः, अर्थात् अपने आप अस्तित्व में नहीं आता।
संक्रामक रोग के विरुद्ध लड़ाई
क्योंकि फरमॆंटेशन के लिए जीवाणुओं का होना ज़रूरी है, पास्चर ने तर्क किया कि यही बात छूत के रोगों के बारे में भी सही होनी चाहिए। दक्षिण फ्रांस में रेशम उत्पादकों के लिए एक गंभीर आर्थिक समस्या, रेशम कीट रोग के बारे में उसकी खोजबीन ने उसे सही साबित किया। कुछ ही सालों के अन्दर, उसने दो रोगों के कारण खोज निकाले और स्वस्थ रेशम कीट चुनने के सख़्त तरीक़े सुझाए। इससे महामारियाँ रुक जातीं।
मुर्गियों में हैज़े का अध्ययन करते समय, पास्चर ने नोट किया कि उस कीटाणु के संवर्धन ने जो बस कुछ ही महीने का था मुर्गियों को बीमार नहीं किया बल्कि रोग से उनका बचाव किया। असल में, उसने यह खोज निकाला कि वह मुर्गियों को तनूकृत या कमज़ोर रूप में कीटाणु के द्वारा प्रतिरक्षित कर सकता था।
पास्चर वैक्सीन-टीका प्रयोग करनेवाला पहला व्यक्ति नहीं था। अंग्रेज़ एडवर्ड जॆनर ने उससे पहले इसे प्रयोग किया था। लेकिन सम्बन्धित जीवाणु प्रयोग करने के बजाय, पास्चर उसी रोग के तनूकृत कारक को प्रयोग करनेवाला पहला व्यक्ति था। वह गिलटी-रोग के विरुद्ध वैक्सीन-टीके में भी सफल हुआ, जो गाय-भैंस और भेड़ जैसे नियततापी पशुओं की एक संक्रामक बीमारी है।
इसके बाद, वह अपनी आख़िरी और सबसे प्रसिद्ध लड़ाई लड़ने को निकला, रेबीज़ के विरुद्ध। हालाँकि उसे एहसास नहीं था, रेबीज़ का सामना करते समय, पास्चर बैक्टीरिया से बहुत ही भिन्न दुनिया में काम कर रहा था। वह अब वाइरस के साथ काम कर रहा था, एक ऐसी दुनिया जिसे वह सूक्ष्मदर्शी से नहीं देख सकता था।
जुलाई ६, १८८५ में, एक माँ अपने नौ-वर्षीय लड़के को पास्चर की प्रयोगशाला में ले गयी। बच्चे को अभी-अभी एक पागल कुत्ते ने काटा था। उस माँ की बिनती के बावजूद, पास्चर उस लड़के की मदद करने से झिझक रहा था। वह कोई डॉक्टर नहीं था और उस पर यह आरोप लगने का जोख़िम था कि वह ग़ैर-कानूनी चिकित्सा अभ्यास कर रहा था। इससे भी बढ़कर, उसने अभी तक अपने तरीक़ों को किसी मनुष्य पर नहीं आज़माया था। फिर भी, उसने अपने सहयोगी, डॉ. ग्रान्चे से कहा कि उस छोटे लड़के को वैक्सीन लगा दे। उसने ऐसा किया, और बहुत सफल हुआ। एक साल से भी कम समय के अन्दर इलाज किए गए ३५० लोगों में से, केवल एक—जो बहुत देर से लाया गया था—नहीं बचा।
इस बीच, पास्चर अस्पताल स्वच्छता पर ध्यान दे रहा था। पैरिस के प्रसव अस्पताल में हर साल प्रसवोत्तर ज्वर बड़ी संख्या में स्त्रियों की मृत्यु का कारण बन रहा था। पास्चर ने संक्रामण रोकनेवाली तकनीकों और सख़्त स्वच्छता का, ख़ासकर हाथों की स्वच्छता का सुझाव दिया। अंग्रेज़ शल्यचिकित्सक जोसफ़ लिस्टर और अन्य लोगों की बाद की जाँचों ने पास्चर के निष्कर्षों की यथार्थता साबित की।
मूल्यवान कार्य
पास्चर की मृत्यु १८९५ में हुई। लेकिन उसका कार्य मूल्यवान था, और उसके कुछ पहलुओं से हम आज भी लाभ उठाते हैं। इसी कारण उसे “मानवता का हितैषी” कहा गया है। उसका नाम अभी भी वैक्सीन-टीकों और उनकी प्रक्रियाओं से जुड़ा हुआ है जिनका सामान्य रूप से उसे आविष्कारक माना जाता है।
लैनस्टीट्यूए पास्ट्यर, वह संस्थान जो पैरिस में पास्चर के जीवनकाल में रेबीज़ के इलाज के लिए स्थापित किया गया था, आज संक्रामक बीमारियों के अध्ययन के लिए एक बहुत ही प्रतिष्ठित केंद्र है। यह ख़ासकर वैक्सीन और दवाइयों पर अपने कार्य के लिए जाना जाता है—और १९८३ से तो और भी ज़्यादा, जब प्रोफ़ॆसर लूक मॉनटान्ये के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने पहली बार एडस् वाइरस का पता लगाया।
जीवन के स्वतः जनन पर बहस, जिसमें पास्चर सम्मिलित था और जिसमें वह विजयी हुआ, मात्र एक वैज्ञानिक नुकताचीनी नहीं थी। वह कुछ वैज्ञानिकों या बौद्धजीवियों के लिए अपने बीच चर्चा करने का एक दिलचस्प मुद्दा ही नहीं, उससे ज़्यादा था। उसका कहीं बड़ा महत्त्व था—इसमें वह प्रमाण सम्मिलित था जिसका सम्बन्ध परमेश्वर के अस्तित्व के साथ है।
विज्ञान में महारत रखनेवाला एक फ्रांसीसी तत्वज्ञानी, फ्रान्सवा डागोन्ये कहता है कि पास्चर के “शत्रु, दोनों भौतिकवादी और नास्तिक, मानते थे कि वे साबित कर सकते थे कि एक एककोशीय जीव अपघटित होते अणुओं से आ सकता है। इसने उन्हें परमेश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करने की प्रेरणा दी। लेकिन, जहाँ तक पास्चर की बात थी, मृत्यु से जीवन की ओर कोई संभव मार्ग नहीं था।”
आज तक प्रयोग, इतिहास, जीव-विज्ञान, पुरातत्त्व-विज्ञान, और मानव-विज्ञान से प्राप्त सभी प्रमाण वही दिखाना जारी रखते हैं जो पास्चर ने प्रदर्शित किया—कि जीवन केवल उसी जीवन से आ सकता है जो पहले से अस्तित्व में है, निर्जीव पदार्थ से नहीं। और प्रमाण भी स्पष्ट रूप से यह दिखाता है कि जीवन “एक एक की जाति के अनुसार” प्रजनन करता है, जैसा उत्पत्ति में बाइबल वृत्तान्त बताता है। संतान हमेशा माता-पिता की समान “जाति” या प्रकार की होती है।—उत्पत्ति १:११, १२, २०-२५.
अतः, जाने-अनजाने में, अपने कार्य के द्वारा लुई पास्चर ने विकासवाद के विरुद्ध और पृथ्वी पर जीवन आने के लिए एक सृष्टिकर्ता की अनिवार्य आवश्यकता के पक्ष में ठोस प्रमाण और साक्ष्य दिया। उसके कार्य ने वही दर्शाया जो दीन भजनहार ने स्वीकार किया: “निश्चय जानो, कि यहोवा ही परमेश्वर है! उसी ने हम को बनाया, और हम उसी के हैं।”—भजन १००:३.
[पेज 23 पर तसवीरें]
ऊपर दिखाया गया उपकरण दाखमधु के पास्चूरीकरण, अनचाहे जीवाणुओं को मारने के लिए प्रयोग किया गया; यह नीचे दिए गए चित्र में विशिष्ट किया गया है
[पेज 24 पर तसवीर]
पास्चर के प्रयोगों ने स्वतः जनन के सिद्धान्त को ग़लत साबित किया
[पेज 22 पर चित्र का श्रेय]
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