अध्ययन लेख 26
चिंताओं का सामना करने में दूसरों की मदद कीजिए
“तुम सबकी सोच एक जैसी हो, एक-दूसरे का दर्द महसूस करो, भाइयों जैसा लगाव रखो, कोमल करुणा दिखाओ, नम्र स्वभाव रखो।”—1 पत. 3:8.
गीत 107 यहोवा के प्यार की मिसाल
लेख की एक झलकa
1. हम किस तरह अपने प्यारे पिता यहोवा की मिसाल पर चल सकते हैं?
यहोवा हमसे बेहद प्यार करता है। (यूह. 3:16) हम भी अपने पिता की मिसाल पर चलकर दूसरों से प्यार करना चाहते हैं। इस वजह से हम कोशिश करते हैं कि हम सबका ‘दर्द महसूस करें, भाइयों जैसा लगाव रखें और कोमल करुणा दिखाएँ।’ ऐसा खासकर हम उनके साथ करते हैं, “जो विश्वास में हमारे भाई-बहन हैं।” (1 पत. 3:8; गला. 6:10) जब हमारे मसीही भाई-बहन चिंताओं और मुश्किलों से गुज़रते हैं, तो हम उनकी मदद करने से पीछे नहीं हटते।
2. इस लेख में क्या चर्चा की जाएगी?
2 चिंताओं और मुश्किलों से कोई अछूता नहीं है। जो लोग यहोवा के परिवार का हिस्सा होना चाहते हैं, उनको भी तनाव-भरे हालात का सामना करना पड़ता है। (मर. 10:29, 30) जैसे-जैसे इस दुनिया का अंत करीब आ रहा है, हमें शायद और भी मुश्किलों का सामना करना पड़े। ऐसे में हम एक-दूसरे को सहारा कैसे दे सकते हैं? आइए देखें कि बाइबल में बताए गए लूत, अय्यूब और नाओमी के अनुभवों से हम क्या सीख सकते हैं। हम यह भी गौर करेंगे कि आज हमारे भाई-बहनों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है और उनसे निपटने में हम उनकी मदद कैसे कर सकते हैं।
सब्र रखिए
3. (क) जैसे 2 पतरस 2:7, 8 से पता चलता है, लूत ने क्या गलत फैसला किया? (ख) लूत को इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ी?
3 यह सच है कि सदोम का इलाका बहुत उपजाऊ था, लेकिन वहाँ के लोग घिनौने अनैतिक काम करते थे। (2 पतरस 2:7, 8 पढ़िए।) लूत ने ऐसे इलाके में बसने का फैसला करके बड़ी भूल की और इसकी उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी। (उत्प. 13:8-13; 14:12) ऐसा मालूम होता है कि लूत की पत्नी को उस शहर या वहाँ के कुछ लोगों से इतना लगाव हो गया था कि उसने यहोवा की आज्ञा तोड़ दी। जब यहोवा ने उस इलाके पर आग और गंधक बरसायी, तो वह अपनी जान गँवा बैठी। ज़रा लूत की दो बेटियों के बारे में भी सोचिए। जिन आदमियों से उनकी सगाई हुई थी, वे सदोम में ही मर गए। लूत ने अपना घर, अपनी संपत्ति और अपनी प्यारी पत्नी को खो दिया। (उत्प. 19:12-14, 17, 26) इस मुश्किल-भरे दौर में यहोवा ने कैसे उसके साथ सब्र रखा? आइए देखें।
यहोवा ने लूत पर करुणा की और उसे और उसके परिवार को बचाने के लिए स्वर्गदूत भेजे (पैराग्राफ 4 देखें)
4. यहोवा ने लूत के साथ कैसे सब्र रखा? (बाहर दी तसवीर देखें।)
4 हालाँकि लूत ने सदोम में रहने का गलत फैसला किया था, फिर भी यहोवा ने उस पर करुणा की और उसे और उसके परिवार को बचाने के लिए स्वर्गदूत भेजे। स्वर्गदूतों ने उसे बिना देर किए सदोम छोड़ने के लिए कहा। उसे फौरन उनकी बात माननी चाहिए थी, मगर वह “देर करने लगा।” आखिरकार स्वर्गदूतों को उसका हाथ पकड़कर उसे और उसके परिवार को शहर से बाहर ले जाना पड़ा। (उत्प. 19:15, 16) फिर स्वर्गदूतों ने उसे पहाड़ी प्रदेश में भाग जाने के लिए कहा। मगर यहोवा की आज्ञा मानने के बजाय लूत पास के नगर में जाने की गुज़ारिश करने लगा। (उत्प. 19:17-20) यहोवा ने सब्र से उसकी सुनी और उसे वहाँ जाने दिया। बाद में लूत वहाँ रहने से डरने लगा। इस वजह से वह पहाड़ी प्रदेश में चला गया, उसी जगह, जहाँ जाने के लिए यहोवा ने शुरू में उससे कहा था। (उत्प. 19:30) सच में, यहोवा ने लूत के साथ कितना सब्र रखा! हम उसकी मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
5-6. परमेश्वर की मिसाल पर चलते हुए हम 1 थिस्सलुनीकियों 5:14 में बतायी बात कैसे मान सकते हैं?
5 लूत की तरह शायद हमारा कोई भाई या बहन गलत फैसला ले और इस वजह से वह बड़ी मुसीबत में पड़ जाए। ऐसे में हम उसके साथ किस तरह पेश आएँगे? शायद हमारा मन करे कि उसे बता दें, ‘तुमने जो बोया, वही काट रहे हो।’ (गला. 6:7) भले ही यह बात सच हो, लेकिन क्या ऐसा करना सही होगा? जी नहीं। हमें उसके साथ वैसे ही पेश आना चाहिए, जैसे यहोवा लूत के साथ पेश आया। वह कैसे?
6 यहोवा ने स्वर्गदूतों को सिर्फ इसलिए नहीं भेजा कि वे लूत को खबरदार करें, बल्कि इसलिए भी कि वे सदोम पर आनेवाले विनाश से बचने में उसकी मदद करें। उसी तरह अगर हमें लगे कि हमारा कोई भाई ऐसी राह पर जा रहा है जिससे वह मुसीबत में पड़ सकता है, तो हमें उसे खबरदार करना चाहिए। हो सके तो हमें उसकी मदद भी करनी चाहिए। अगर वह बाइबल की सलाह तुरंत न माने, तो भी हमें उसके साथ सब्र रखना चाहिए। हमें उन दो स्वर्गदूतों की तरह बनना चाहिए। उस भाई को अपने हाल पर छोड़ने के बजाय हमें अलग-अलग तरीकों से उसकी मदद करते रहना चाहिए। (1 यूह. 3:18) हो सकता है, हमें स्वर्गदूतों की तरह उसका हाथ पकड़ना पड़े यानी खुलकर बताना पड़े कि उसे दी गयी बढ़िया सलाह वह कैसे लागू कर सकता है।—1 थिस्सलुनीकियों 5:14 पढ़िए।
7. यहोवा ने लूत के बारे में जो नज़रिया रखा, उससे हम क्या सीख सकते हैं?
7 यहोवा चाहता तो लूत की खामियों पर ध्यान दे सकता था। मगर उसने ऐसा नहीं किया। यह हमें इस बात से पता चलता है कि बाद में यहोवा ने ही प्रेषित पतरस को यह लिखने के लिए उभारा कि लूत एक नेक इंसान है। वाकई, यहोवा हमारी गलतियाँ माफ कर देता है! क्या इस बात से हमें खुशी नहीं होती? (भज. 130:3) यहोवा की तरह क्या हम भी अपने भाई-बहनों की अच्छाइयों पर ध्यान दे सकते हैं? अगर हम ऐसा करें, तो उनके साथ सब्र रखना आसान होगा। बदले में, वे भी हमारी सलाह मानने को तैयार होंगे।
करुणा से पेश आइए
8. करुणा होने से हम क्या करने के लिए उभारे जाएँगे?
8 अय्यूब ने लूत की तरह कोई गलत फैसला नहीं किया था, फिर भी उस पर एक-के-बाद-एक कई मुसीबतें आयीं। उसकी संपत्ति लुट गयी, समाज में उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिल गयी और उसे एक भयानक बीमारी हो गयी। उसे और उसकी पत्नी को इससे भी बड़ा सदमा तब लगा, जब उनके सारे बच्चे मारे गए। इसके बाद अय्यूब के तीन झूठे दोस्तों ने उस पर दोष लगाया। उन्होंने उस पर करुणा क्यों नहीं की? एक वजह यह थी कि उन्होंने यह तो देखा कि उसके साथ क्या हो रहा है, मगर उन्होंने हालात को गहराई से समझने की कोशिश नहीं की। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने उसके बारे में गलत राय कायम कर ली और वे उसके बारे में बुरा-भला कहने लगे। हम ऐसी गलती करने से कैसे बच सकते हैं? हमें याद रखना चाहिए कि सिर्फ यहोवा एक व्यक्ति के हालात के बारे में सबकुछ जानता है। इस वजह से जब एक दुखी व्यक्ति अपनी परेशानी बताता है, तो हमें ध्यान से उसकी सुननी चाहिए। उसकी बातें सुनने के साथ-साथ हमें उसका दर्द समझने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने से ही हम अपने उस भाई या बहन से सच्ची हमदर्दी रख पाएँगे।
9. करुणा होने से हम क्या नहीं करेंगे और क्यों?
9 करुणा होने से हम किसी भाई या बहन की परेशानियों के बारे में दूसरों को बताते नहीं फिरेंगे। ऐसा करनेवाला मंडली का हौसला तोड़ता है, न कि मज़बूत करता है। (नीति. 20:19; रोमि. 14:19) वह प्यार से पेश नहीं आता, बल्कि बिना सोचे-समझे बात करता है और उसकी बातों से उस भाई या बहन को चोट पहुँच सकती है, जो अपनी परेशानियों की वजह से पहले से ही दुखी है। (नीति. 12:18; इफि. 4:31, 32) ऐसा करने के बजाय कितना अच्छा होगा कि हम अपने दुखी भाई या बहन में अच्छाइयाँ देखें और यह सोचें कि हम कैसे उसकी मदद कर सकते हैं!
अगर कोई “बेसिर-पैर की बातें” करता है, तब भी सब्र से उसकी सुनिए और सही वक्त पर अपनी बातों से उसे दिलासा दीजिए (पैराग्राफ 10-11 देखें)c
10. अय्यूब 6:2, 3 में बतायी बात से हम क्या सीखते हैं?
10 अय्यूब 6:2, 3 पढ़िए। कुछ मौकों पर अय्यूब ने “बेसिर-पैर की बातें” कीं, लेकिन बाद में उसने कबूल किया कि उसकी कुछ बातें गलत थीं। (अय्यू. 42:6) अय्यूब की तरह आज भी एक व्यक्ति शायद अपनी परेशानियों की वजह से बेसिर-पैर की बातें करे, जिसका बाद में उसे पछतावा हो। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? उसमें खामियाँ ढूँढ़ने के बजाय हमें उसके साथ करुणा से पेश आना चाहिए। याद रखिए, यहोवा ने कभी नहीं चाहा था कि हम चिंताओं और समस्याओं का सामना करें। इस वजह से ऐसा हो सकता है कि जब परमेश्वर का कोई वफादार सेवक भारी तनाव में होता है, तो वह बिना सोचे-समझे कुछ बोल दे। अगर वह यहोवा या हमारे बारे में कुछ गलत भी कहता है, तो हमें तुरंत गुस्सा नहीं होना चाहिए, न ही उस आधार पर उसके बारे में कोई राय कायम करनी चाहिए।—नीति. 19:11.
11. किसी को सलाह देते वक्त प्राचीन, एलीहू की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
11 कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि जो व्यक्ति चिंता और परेशानी से जूझ रहा है, उसे सुधारने के लिए कुछ सलाह देनी पड़े। (गला. 6:1) ऐसे मामलों में प्राचीन किस तरह सलाह देंगे? उन्हें एलीहू की मिसाल पर चलना चाहिए, जिसने अय्यूब से पूरी हमदर्दी रखी और उसकी सुनी। (अय्यू. 33:6, 7) उसने सिर्फ तभी सलाह दी, जब उसने यह समझा कि अय्यूब के मन में क्या चल रहा है। एलीहू की मिसाल पर चलनेवाले प्राचीन उस व्यक्ति की ध्यान से सुनते हैं और उसके हालात समझने की कोशिश करते हैं। इसके बाद ही वे उसे कोई सलाह देते हैं। इसका फायदा यह होता है कि वह व्यक्ति उस सलाह को मानने की पूरी कोशिश करता है।
अपनी बातों से तसल्ली दीजिए
12. नाओमी के पति और दोनों बेटों की मौत का उस पर क्या असर हुआ?
12 नाओमी एक वफादार औरत थी और यहोवा से प्यार करती थी। लेकिन अपने पति और दोनों बेटों की मौत से वह इतना दुखी हो गयी कि वह अपना नाम बदलकर “मारा” रखना चाहती थी, जिसका मतलब है, “कड़वा।” (रूत 1:3, 5, 20, फु., 21) नाओमी की बहू रूत ने इस मुश्किल दौर में उसे अकेला नहीं छोड़ा। उसने न सिर्फ नाओमी की ज़रूरतें पूरी कीं, बल्कि उसे तसल्ली भी दी। उसने सच्चे दिल से कुछ ऐसी बातें कहीं, जिनसे ज़ाहिर हुआ कि वह नाओमी से कितना प्यार करती है और उसका साथ कभी नहीं छोड़ेगी।—रूत 1:16, 17.
13. जिनके जीवन-साथी की मौत हो जाती है, उन्हें हमारे सहारे की क्यों बहुत ज़रूरत होती है?
13 जब किसी भाई या बहन के जीवन-साथी की मौत हो जाती है, तब उसे हमारे सहारे की बहुत ज़रूरत होती है। पति-पत्नी की तुलना ऐसे दो पेड़ों से की जा सकती है, जो एक-साथ बढ़ रहे हैं। ऐसे में जब एक पेड़ गिरकर सूख जाता है, तो दूसरे पेड़ पर इसका बहुत बुरा असर हो सकता है। उसी तरह जब मौत किसी के जीवन-साथी को उससे छीन लेती है, तो उसका कलेजा छलनी हो जाता है। शायद यह असर उस पर लंबे समय तक रहे। बहन पौलाb पर ध्यान दीजिए। वह बताती है कि जब उसके पति की अचानक मौत हो गयी, तो उसे कैसा लगा। वह कहती है, “मेरी तो दुनिया ही उजड़ गयी। मैंने कभी खुद को इतना बेबस महसूस नहीं किया। मैंने अपने सबसे अच्छे दोस्त को खो दिया था। मैं उन्हें हर बात बताती थी। वे भी मेरे साथ अपनी हर खुशी बाँटते थे और मुश्किल घड़ी में मेरा पूरा साथ देते थे। मैं उन्हें अपनी हर परेशानी बता सकती थी। उनके जाने से ऐसा लग रहा था, मानो किसी ने मेरे दो टुकड़े कर दिए हों।”
हम उस मसीही को कैसे सहारा दे सकते हैं, जिसके जीवन-साथी की मौत हो गयी है? (पैराग्राफ 14-15 देखें)d
14-15. अपने जीवन-साथी की मौत का गम सहनेवालों को हम दिलासा कैसे दे सकते हैं?
14 अगर कोई मसीही अपने जीवन-साथी की मौत का गम सह रहा है, तो हम उसे दिलासा कैसे दे सकते हैं? सबसे पहली और ज़रूरी बात यह है कि हम उससे बात करें, भले ही ऐसा करना हमें मुश्किल लगे या हमें समझ में न आए कि हम उससे क्या कहेंगे। बहन पौला कहती है, “मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि मौत ऐसा विषय है जिसके बारे में बात करने से अकसर लोग झिझकते हैं। उन्हें लगता है कि कहीं उनके मुँह से कुछ गलत न निकल जाए, जिससे सामनेवाले को बुरा लगे। लेकिन बुरा तो तब ज़्यादा लगता है, जब लोग चुप्पी साध लेते हैं।” गम सह रहा व्यक्ति शायद यह उम्मीद न करे कि हम उससे हौसला बढ़ानेवाली बड़ी-बड़ी बातें कहें। पौला बताती है, “जब मेरे दोस्त सिर्फ इतना कहते थे, ‘तुम्हारे बारे में सुनकर दुख हुआ,’ तो मुझे बहुत दिलासा मिलता था।”
15 भाई विलियम पर ध्यान दीजिए, जिसकी पत्नी की कुछ साल पहले मौत हो गयी थी। वह कहता है, “जब लोग मेरी पत्नी को याद करते हैं और उसके बारे में कुछ अच्छी बातें बताते हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। इससे मुझे एहसास होता है कि उन्हें मेरी पत्नी से लगाव था और वे उसकी कितनी इज़्ज़त करते थे। उनकी बातों से मेरे मन को चैन मिलता है, क्योंकि मेरी पत्नी मेरे लिए बहुत अनमोल थी और वह मेरी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा थी। मैं उनकी इस मदद के लिए शुक्रगुज़ार हूँ।” बीयांका नाम की एक विधवा बहन कहती है, “दुख की इस घड़ी में कुछ भाई-बहनों ने मेरे साथ प्रार्थना की और एक-दो आयतें दिखाकर मेरा हौसला बढ़ाया। इससे मुझे बहुत दिलासा मिला। जब मैं अपने पति के बारे में बात करती थी और लोग ध्यान से सुनते थे या जब वे मेरे पति के बारे में बात करते थे, तो मुझे अच्छा लगता था।”
16. (क) अपनों की मौत का गम सहनेवालों की हम और किस तरह मदद कर सकते हैं? (ख) याकूब 1:27 के मुताबिक हमें क्या ज़िम्मेदारी मिली है?
16 अपनों की मौत का गम सहनेवालों की हम एक और तरीके से मदद कर सकते हैं। वह यह कि हम लगातार उनका साथ दें, जैसे रूत ने नाओमी का हमेशा साथ दिया। बहन पौला जिसका पहले ज़िक्र किया गया है, बताती है, “मेरे पति की मौत के तुरंत बाद बहुत-से लोगों ने मेरा साथ दिया और मेरी बहुत मदद की। फिर कुछ समय बाद, लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए। लेकिन मेरी ज़िंदगी तो पूरी तरह बदल गयी थी, मैं इतनी जल्दी खुद को नहीं सँभाल सकती थी। गम सहनेवालों को महीनों या सालों बाद भी सहारे की ज़रूरत होती है। जब लोग यह बात समझते हैं, तो सच में बहुत मदद मिलती है।” बेशक हर व्यक्ति एक-जैसा नहीं होता। कुछ लोग नए हालात में खुद को जल्दी ढाल लेते हैं, तो कुछ लोगों को वक्त लगता है। उन्हें अपने साथी की कमी तब बहुत खलती है, जब वे कोई ऐसा काम करते हैं, जो वे अपने साथी के संग मिलकर करते थे। अपने अज़ीज़ की मौत का शोक हर कोई अलग-अलग तरीके से मनाता है। हम यह बात हमेशा याद रखें कि यहोवा ने हमें यह सम्मान और ज़िम्मेदारी दी है कि हम उन लोगों को सँभालें जिनके अपनों की मौत हो गयी है।—याकूब 1:27 पढ़िए।
17. उन मसीहियों को हमारा सहारा क्यों चाहिए जिनके जीवन-साथी ने उन्हें छोड़ दिया है?
17 कुछ मसीहियों के जीवन-साथी उन्हें छोड़कर चले जाते हैं, जिससे उन्हें गहरा सदमा पहुँचता है और वे चिंताओं में डूब जाते हैं। बहन जॉइस के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। उसके पति ने किसी दूसरी औरत के लिए उसे छोड़ दिया। बहन बताती है, “तलाक से मुझे जितना दर्द हुआ, उतना शायद पति की मौत से भी नहीं होता। अगर किसी दुर्घटना या बीमारी से उनकी मौत हुई होती, तो मैं समझ सकती थी कि उस पर उनका कोई बस नहीं था। मगर मुझे छोड़ने का फैसला उनके बस में था। मैं बता नहीं सकती कि मैं कितना अपमानित महसूस कर रही थी।”
18. हम उन मसीहियों की कैसे मदद कर सकते हैं, जिनके जीवन-साथी अब उनके साथ नहीं हैं?
18 जब हम छोटे-छोटे तरीकों से उन मसीहियों की मदद करते हैं, जिनके जीवन-साथी अब उनके साथ नहीं हैं, तो हम उन्हें अपने प्यार का यकीन दिलाते हैं। उन्हें खासकर इस मुश्किल घड़ी में सच्चे दोस्तों की ज़रूरत है। (नीति. 17:17) हम कैसे उनके दोस्त साबित हो सकते हैं? हम उन्हें अपने घर खाने पर बुला सकते हैं, उनके साथ मिलकर कोई मनोरंजन कर सकते हैं या प्रचार में जा सकते हैं। या फिर हम उन्हें अपनी पारिवारिक उपासना में शामिल कर सकते हैं। ऐसा करके हम यहोवा का दिल खुश कर रहे होंगे, क्योंकि वह “टूटे मनवालों के करीब रहता है” और “विधवाओं का रखवाला है।”—भज. 34:18; 68:5.
19. पहला पतरस 3:8 को ध्यान में रखते हुए आपने क्या ठान लिया है?
19 बहुत जल्द परमेश्वर का राज इस दुनिया पर शासन करनेवाला है और तब सारे “दुख भुला दिए जाएँगे।” हमें उस वक्त का इंतज़ार है, जब “पुरानी बातें याद न आएँगी, न ही उनका खयाल कभी [हमारे] दिल में आएगा।” (यशा. 65:16, 17) तब तक आइए अपने मसीही भाई-बहनों को सहारा देते रहें, साथ ही अपनी बातों और कामों से दिखाते रहें कि हम उनसे कितना प्यार करते हैं!—1 पतरस 3:8 पढ़िए।
गीत 111 हमारी खुशी के कई कारण
a लूत, अय्यूब और नाओमी वफादारी से यहोवा की सेवा करते थे, लेकिन उन्हें भी कई मुश्किलों और चिंताओं का सामना करना पड़ा। इस लेख में बताया जाएगा कि उनके अनुभव से हम क्या सीख सकते हैं। इसमें यह भी बताया जाएगा कि जब हमारे भाई-बहन मुश्किलों का सामना करते हैं, तो उनके साथ सब्र से पेश आना, उन पर करुणा करना और अपनी बातों से उन्हें तसल्ली देना क्यों ज़रूरी है।
b इस लेख में नाम बदल दिए गए हैं।
c तसवीर के बारे में: एक भाई किसी बात से बहुत नाराज़ है और वह “बेसिर-पैर की बातें” कर रहा है, जबकि एक प्राचीन सब्र से उसकी सुन रहा है। बाद में जब वह भाई शांत हो जाता है, तो प्राचीन प्यार से उसे सलाह देता है।
d तसवीर के बारे में: एक जवान पति-पत्नी एक ऐसे भाई के साथ वक्त बिता रहे हैं, जिसकी पत्नी की हाल ही में मौत हुई है। वे उस भाई के साथ कुछ तसवीरें देख रहे हैं और उसकी पत्नी के साथ बिताए मीठे पलों को याद कर रहे हैं।