लंबी उम्र पाएँ और तंदरुस्त जीवन जीएँ
सोचिए कि मनुष्य का जीवन एक लंबी बाधा-दौड़ है, एक ऐसी दौड़ जिसमें दौड़नेवालों को बाधाओं के ऊपर से कूदना पड़ता है। सभी दौड़नेवाले दौड़ को एकसाथ शुरू तो करते हैं; लेकिन जब बाधाओं के ऊपर से कूदते हैं तो कभी-कभार वे बाधाओं से टकरा जाते हैं, धीमे पड़ जाते हैं और एक के बाद एक वे दौड़ से बाहर होते जाते हैं।
उसी तरह, इंसान की ज़िंदगी शुरू होती है और ज़िंदगी भर उसे अपने जीवन-पथ में एक के बाद एक बहुत बड़ी-बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हर बाधा को पार करते-करते वह कमज़ोर पड़ता जाता है और कुछ समय बाद थककर हार जाता है। अगर बाधाएँ बहुत कठिन होती हैं तो वह जल्द ही ज़िंदगी की दौड़ में पस्त हो जाता है, वह इस दौड़ से बाहर हो जाता है यानी दम तोड़ देता है। अगर वह विकसित देशों में रहनेवाला व्यक्ति है तो वह करीब ७५ साल जीने की उम्मीद कर सकता है। इसी को मनुष्य की औसत जीवन-अवधि कहा जाता है। यह वह उम्र होती है जिस तक ज़्यादातर लोग पहुँच जाते हैं और इसकी तुलना उस अधिकतम दूरी से की जा सकती है जिसे दौड़नेवाले ज़्यादातर लोग तय कर पाते हैं।a (भजन ९०:१० से तुलना कीजिए।) लेकिन, कुछ धावक औसत दूरी से ज़्यादा दौड़ पाते हैं यानी वे औसत जीवन-अवधि से ज़्यादा साल ज़िंदा रहते हैं, और कई तो उस उम्र तक पहुँच जाते हैं जिसे मनुष्य की अधिकतम जीवन-अवधि समझा जाता है यानी करीब ११५-१२० साल। और इसे इतनी बड़ी बात समझा जाता है कि इसकी चर्चा दुनिया भर के अखबारों में और टेलिविज़न कार्यक्रमों में की जाती है।
बाधाओं की पहचान करना
इस सदी की शुरूआत में लोग जीवन-दौड़ में जितने साल रहते थे आज वे उससे दोगुना साल ज़िंदा रह सकते हैं। क्यों? खासकर इसलिए क्योंकि मनुष्य जीवन में आनेवाली बड़ी-बड़ी बाधाओं को कम कर सका है। लेकिन ये बाधाएँ हैं क्या? और क्या इन्हें और भी कम किया जा सकता है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के एक जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने समझाया कि ऐसी प्रमुख बाधाएँ जिनका मनुष्य की आपेक्षित-जीवन अवधि पर असर पड़ता है, वे हैं आपकी आदतें, वातावरण और चिकित्सा सुविधाएँ।b इसलिए, जितनी अच्छी आपकी आदतें, आपका वातावरण और आपकी चिकित्सा सुविधा होंगी, बाधाएँ उतनी ही कम हो जाएँगी और उतना ही ज़्यादा समय तक आप जीवन-दौड़ में टिक पाएँगे। हालाँकि लोगों की परिस्थितियाँ बहुत अलग-अलग होती हैं, फिर भी लगभग हर कोई—राजा से लेकर रंक तक पूरब से लेकर पश्चिम तक—अपने जीवन की बाधाओं को कम करने के लिए कुछ-न-कुछ ज़रूर कर सकता है। कैसे?
जीवन-दौड़ में आपको सफल बनानेवाली आदतें
द न्यू इंग्लैंड जरनल ऑफ मॆडिसिन रिपोर्ट करती है, “जो लोग अपनी तंदरुस्ती का बहुत खयाल रखते हैं वे लंबा जीवन जीते हैं, और जीवन के आखिरी सालों में ही कहीं जाकर शायद उन्हें किसी कमज़ोरी या अपंगता का शिकार होना पड़ता है।” असल में खाने-पीने, सोने, सिगरॆट पीने और व्यायाम करने जैसी आदतों में बदलाव करके एक बाधा को कम किया जा सकता है। आइए व्यायाम की आदत पर गौर करें।
शारीरिक व्यायाम की आदत। संतुलित व्यायाम बहुत फायदेमंद हो सकता है। (“कितना और किस किस्म का व्यायाम?” बक्स देखिए।) अध्ययन दिखाते हैं कि घर के अंदर और बाहर हलकी-फुलकी कसरत करने से बुज़ुर्गों और ‘बहुत ही बूढ़ों’ में भी ताकत और चुस्ती-फुरती आ जाती है। उदाहरण के लिए, ७२-९८ साल की उम्रवाले बूढ़ों के एक ग्रुप में देखा गया कि सिर्फ दस हफ्ते तक वेटलिफ्टिंग की हलकी कसरत करने के बाद वे ज़्यादा तेज़ी-से चल पा रहे थे और ज़्यादा आसानी-से सीढ़ियाँ चढ़ पा रहे थे। इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं! क्योंकि कसरत के बाद की गयी जाँच से पता चला कि उन बूढ़ों की मांसपेशियों की ताकत दोगुना से भी ज़्यादा बढ़ गई थीं। एक और ग्रुप में ७० साल तक की उम्रवाली अधिकतर सुस्त महिलाओं ने हफ्ते में दो बार व्यायाम किया। एक साल तक ऐसा करने के बाद उनकी मांसपेशी और हड्डियाँ मज़बूत हो गई थीं, और उनकी ताकत बढ़ गई थी, उनका संतुलन भी अच्छा हो गया था। इन अध्ययनों का संचालन करनेवाली, शरीरक्रिया-विज्ञानी मिरीयम नॆलसन ने कहा, “जब हमने व्यायाम शुरू किया तो हमें डर था कि इन महिलाओं के स्नायु, नसों और मांसपेशियों में चोट आ जाएगी लेकिन हमें देखकर ताज्जुब हुआ कि ऐसा नहीं हुआ बल्कि ये महिलाएँ और ज़्यादा ताकतवर और तंदुरुस्त बनती गयीं।”
बुढ़ापे और व्यायाम के बारे में कई वैज्ञानिक अध्ययनों के निष्कर्ष का सार देते हुए एक पाठ्य-पुस्तक कहती है: “व्यायाम करने से बुढ़ापा जल्दी नहीं आता, उम्र लंबी होती है और मौत से पहले बहुत कम समय तक दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है।”
मानसिक व्यायाम की आदत। “पड़े-पड़े तो लोहे में भी ज़ंग लग जाती है” लगता है कि यह कहावत सिर्फ हाथ-पैरों पर ही नहीं बल्कि दिमाग पर भी लागू होती है। हालाँकि बुढ़ापे के साथ-साथ याददाश्त कुछ कमज़ोर पड़ जाती है, लेकिन अमरीकी राष्ट्रीय संस्थान द्वारा बुढ़ापे पर किए गए अध्ययन दिखाते हैं कि बूढ़ों के दिमाग में इतनी क्षमता होती है कि बुढ़ापे के प्रभावों को सँभाल सके। इसलिए, तंत्रिका-विज्ञानी डॉ. ऐन्टोनीओ आर. डामास्यो यह निष्कर्ष निकालता है: “बुढ़ापे में भी लोगों का दिमाग ठीक तरह से काम कर सकता है और तेज़ बना रह सकता है।” किन कारणों से बुज़ुर्गों का दिमाग तंदरुस्त और तेज़ बना रहता है?
दिमाग में १०० अरब मस्तिष्क कोशिकाएँ या तंत्रिकाएँ होती हैं, और उनके बीच खरबों जोड़ होते हैं। ये जोड़ टॆलिफोन लाइनों की तरह काम करते हैं और तंत्रिकाओं को एक दूसरे से “बात” करने में समर्थ करते हैं जिससे यह बहुत सारे काम कर पाते हैं जैसे हमारी याददाश्त बनाए रखना। जैसे-जैसे दिमाग बूढ़ा होता है, तंत्रिकाएँ मरती जाती हैं। (“मस्तिष्क की कोशिकाओं पर एक नयी नज़र” बक्स देखिए।) फिर भी, बूढ़ों के दिमाग घटती तंत्रिकाओं की भरपाई कर लेते हैं। जब कभी एक तंत्रिका मरती है तो उसकी पड़ोसी तंत्रिकाएँ दूसरी तंत्रिकाओं से नये जोड़ बना लेती हैं और मृत तंत्रिका का काम सँभाल लेती हैं। इस तरह, मस्तिष्क असल में एक काम की ज़िम्मेदारी एक हिस्से से लेकर दूसरे हिस्से पर डाल देता है। इसलिए, बहुत-से बुज़ुर्ग लोग वही मानसिक काम कर पाते हैं जो जवान लोग करते हैं, लेकिन इन कामों को करने के लिए शायद उनका मस्तिष्क दूसरे हिस्सों का इस्तेमाल करता है। कुछ बातों में, बूढ़ों का दिमाग थोड़ा-बहुत एक पुराने टॆनिस खिलाड़ी की तरह काम करता है जो फुर्तीला तो नहीं रहता लेकिन अनुभव से उस तकनीक और कौशल का इस्तेमाल करता है जिनकी छोटे खिलाड़ियों में कमी होती है। और चाहे वह अपने जूनियरों से फर्क तकनीक इस्तेमाल करता भी हो, फिर भी पॉइंट्स तो बनाता ही है यानी काम तो कर पाता है।
पॉइंट्स बढ़ाते रहने के लिए कौन-सी बात बुज़ुर्गों की मदद कर सकती है? ७०-८० साल की उम्र के १,००० से ज़्यादा लोगों का अध्ययन करने के बाद, जरा-विज्ञान शोधकर्ता डॉ. मॆरिलिन ऐलबर्ट ने पाया कि मानसिक व्यायाम भी एक कारण है जिससे पता चलता है एक बूढ़े व्यक्ति का दिमाग बुढ़ापे में भी ठीक तरह से काम कर पाएगा या नहीं। (“दिमाग को तंदरुस्त रखना” बक्स देखिए।) मानसिक व्यायाम दिमाग की “टॆलिफोन लाइनों” को चालू रखता है। दूसरी ओर, विशेषज्ञ कहते हैं कि इंसान मानसिक रूप से तब कमज़ोर होना शुरू हो जाता है “जब वह रिटायर हो जाता है, आलसी हो जाता है, और कहता है कि अब उसे दुनिया के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने की ज़रूरत नहीं।”—दिमाग के अंदर (अँग्रेज़ी)।
इसलिए जरा-विज्ञानी डॉ. जैक रो बताता है, खुशखबरी यह है कि “जो बातें हमारे बस में हैं या जिनको हम बदल सकते हैं उससे हम आराम से बुढ़ापा काटने की अपनी क्षमता को बढ़ा सकते हैं।” इसके अलावा, अच्छी आदतें किसी भी उम्र में डाली जा सकती हैं। एक शोधकर्ता कहता है, “चाहे ज़िंदगी भर आपकी स्वास्थ्य-संबंधी आदतें अच्छी न रही हों और आप बुढ़ापे में आकर बदलाव क्यों न करें फिर भी एक स्वस्थ जीवन-शैली अपनाने के कुछ प्रतिफल तो ज़रूर मिलेंगे।”
वातावरण से फर्क पड़ता है
मान लीजिए कि आज लंदन में पैदा हुई एक लड़की, मध्ययुग के लंदन में पैदा हुई होती, तो उसकी आपेक्षित-जीवन अवधि आज की तुलना में आधे से भी कम होता। यह फर्क इसलिए नहीं आता कि अचानक उस लड़की के शरीर पर प्रभाव पड़ेगा बल्कि इसलिए कि उस समय और आज के समय के वातावरण और चिकित्सा सुविधा में बहुत बड़ा फर्क था। और जैसा हमने देखा था यह भी मनुष्य की जीवन-दौड़ में दो बड़ी बाधाएँ हैं। लेकिन आइए इनमें से पहले वातावरण पर ध्यान दें।
भौतिक वातावरण। अतीत में, भौतिक वातावरण या मनुष्य का घर उसके स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा था। लेकिन हाल के दशकों में, भौतिक वातावरण से पैदा होनेवाले खतरों को कम कर दिया गया है। घरों में अच्छी साफ-सफाई, साफ पानी और कीड़े-मकोड़ों की रोकथाम के कारण इंसान के भौतिक वातावरण में सुधार हुआ है, उसके स्वास्थ्य में सुधार हुआ है, और औसत जीवन भी बढ़ा है। इसका नतीजा यह है कि संसार के अनेक भागों में मनुष्य अब जीवन-दौड़ में लंबी दूरी तय कर पा रहा है।c घर में साफ-सफाई का प्रबंध करने से भौतिक बाधा कम तो हुई है मगर इसके साथ किसी और चीज़ की भी ज़रूरत है और वह है, एक स्वस्थ सामाजिक और धार्मिक वातावरण!
सामाजिक वातावरण। सामाजिक वातावरण लोगों से बना होता है, उन लोगों से जिनके साथ आप रहते, काम करते, खाते-पीते, उपासना करते और खेलते हैं। जब आपको साफ पानी मिलता है तो आपके घर का और आसपास का वातावरण शुद्ध रहता है; उसी तरह, अगर आप अपने सामाजिक वातावरण या माहौल को सुधारना चाहते हैं तो आपके पास अच्छे दोस्तों का होना बहुत ज़रूरी है। जब आप दूसरों के साथ अपने सुख-दुःख, अपनी आशा-निराशा बाँटते हैं तो माहौल से होनेवाली बाधा घट जाती है और आप जीवन-दौड़ में लंबी दूरी तय कर पाते हैं।
इसके बजाय अगर दोस्तों की कमी है तो अकेलापन महसूस हो सकता है और एक इंसान का सामाजिक जीवन खत्म हो सकता है। अगर आपके आस-पास के लोग यह नहीं दिखाते कि उन्हें आपकी परवाह है तो आप उदास हो सकते हैं। वृद्धाश्रम में रहनेवाली एक स्त्री ने एक जान-पहचानवाले को लिखा: “मैं ८२ साल की हूँ और इस आश्रम में पिछले १६ साल से रह रही हूँ। यहाँ हमारे साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है, फिर भी अकेलापन कभी-कभी काटने को दौड़ता है।” दुःख की बात है कि इस स्त्री की तरह पश्चिमी देशों में बहुत-से बूढ़े लोग ऐसा ही महसूस करते हैं। वे अकसर ऐसे सामाजिक वातावरण में रहते हैं जो उन्हें ठुकराता तो नहीं लेकिन हाँ, उनकी कदर भी नहीं करता। वृद्धावस्था अंतर्राष्ट्रीय संस्थान का जेम्स कायॆखा कहता है, इसका नतीजा यह है कि “विकसित देशों में अकेलापन बूढ़ों के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है।”
यह सच है कि आप शायद उन परिस्थितियों को नहीं बदल सकते जिनके कारण आपको अकेलापन महसूस हो, जैसे न चाहते हुए भी रिटायर होना, चुस्ती-फुरती घटना, पुराने दोस्तों का न रहना या विवाह-साथी की मौत होना। लेकिन फिर भी आप कुछ ऐसे कदम उठा सकते हैं जिनसे आपकी बाधा कम हो सकती है और आप उसे आसानी से पार कर सकते हैं। पहली बात जिसे आप याद रख सकते हैं कि अकेलापन महसूस करना बुढ़ापे की निशानी नहीं है क्योंकि कई बार जवान भी अकेलापन महसूस करते हैं। बूढ़ा होना समस्या नहीं है लेकिन समाज से अलग रहना समस्या है। तो आप ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे कि अकेलापन महसूस न हो?
एक बुज़ुर्ग विधवा सलाह देती है “आप एक ऐसा इंसान बनने की कोशिश कीजिए जिससे लोगों को आपके साथ मिलना जुलना अच्छा लगे, क्योंकि चिड़चिड़े इंसान के साथ दोस्ती रखना कोई भी पसंद नहीं करता। आपको हँसमुख बनने की कोशिश करनी चाहिए। माना कि इसके लिए आपको मेहनत करनी पड़ेगी लेकिन आपकी मेहनत बेकार नहीं जाएगी। कहते हैं ना, कर भला, सो हो भला।” वह आगे कहती है: “मैं ज्ञानप्रद पत्रिकाएँ पढ़ती हूँ, समाचार सुनती हूँ और ताज़ा खबरें जानने की कोशिश करती हूँ ताकि बूढ़े या जवान, जिनसे भी मिलूँ, उनसे बात करने के लिए मेरा पास कोई विषय हो।”
कुछ और सुझाव भी हैं: जैसे “दूसरों की पसंद में दिलचस्पी दिखाना सीखिए। प्रश्न पूछिए और जितना हो सके उतने उदार बनिए। अगर आपके पास भौतिक चीज़ें नहीं हैं तो आप अपना समय दे सकते हैं; देने से खुशी मिलती है। चिट्ठियाँ लिखिए। कोई शौक पैदा कीजिए। दूसरों के घर जाने से या लोगों के साथ बाहर जाने से इनकार मत कीजिए। अपने घर को साफ-सुथरा और सजाकर रखिए ताकि आनेवाले लोग अच्छा महसूस करें। ज़रूरतमंदों के पास जाइए उनकी मदद करने के लिए तैयार रहिए।
धार्मिक वातावरण। इस बात के ढेरों प्रमाण हैं कि धार्मिक कामों में हिस्सा लेने से बूढ़ों को लगता है कि उनके “जीवन में कुछ अर्थ” है। उन्हें “जीवन में अधिक संतुष्टि” और “खुशी” मिलती है, उन्हें “उपयोगी होने का एहसास” और “सामाजिक मेलजोल और खुशहाली का एहसास” होता है। क्यों? पुस्तक बढ़ती उम्र—बुढ़ापे की सच्चाइयाँ (अँग्रेज़ी) बताती है: “धर्म लोगों को जीवन में मकसद देता है, और इसमें ऐसी मनोवृत्ति, मूल्य और मान्यताएँ दी जाती हैं जिससे बुज़ुर्ग लोग इस दुनिया को ज़्यादा अच्छी तरह समझने में दिलचस्पी लेते हैं।” इसके अलावा, धार्मिक कामों के ज़रिए बुज़ुर्ग लोगों का दूसरे लोगों से मेलजोल बढ़ता है और इस तरह “सामाजिक रूप से कट जाने और अकेलापन महसूस करने की संभावना कम” हो जाती है।
लूईज़ और ईवलिन ८० साल की विधवा हैं और ऊपर कही गई ये बातें उन पर सच साबित हुई हैं। वे यहोवा के साक्षियों की कलीसिया की सदस्य हैं। लूईज़ कहती है, “राज्यगृह में,d मुझे सबसे बात करना अच्छा लगता है, चाहे वे बूढ़े हों या जवान। सभाओं में बहुत कुछ सीखने को मिलता है। सभाओं के बाद हम हँसते-हँसाते हैं, जिससे हमें बड़ा मज़ा आता है।” ईवलिन को भी अपने धार्मिक कामों से फायदा पहुँचा है। वह कहती है, “पड़ोस में जाकर लोगों को बाइबल के बारे में बताने से मैं अकेलेपन से दूर रहती हूँ। लेकिन इससे भी बढ़कर बात तो ये है कि मुझे ऐसा करने से बहुत खुशी मिलती है। दूसरों को जीवन का सही अर्थ बताना एक बड़ा ही संतोषदायी काम है।”
ज़ाहिर है कि लूईज़ और ईवलिन की ज़िंदगी का एक मकसद है। इसके कारण उन्हें जो संतुष्टि महसूस होती है इससे वे दूसरी बाधा, यानी वातावरण या माहौल की बाधा को कम करके जीवन-दौड़ में आगे बढ़ पाती हैं।—भजन ९२:१३, १४ से तुलना कीजिए।
उपलब्ध हैं—सस्ती चिकित्सा सुविधाएँ और बढ़िया इलाज
इस सदी में चिकित्सा विज्ञान में हुई प्रगति ने तीसरी बाधा यानी चिकित्सा सुविधा की बाधा को बहुत घटा दिया है। लेकिन ऐसा पूरी दुनिया में सभी जगहों पर नहीं हुआ है। द वर्ल्ड हॆल्थ रिपोर्ट १९९८ कहती है कि कई गरीब देशों में “१९७५-१९९५ के बीच आपेक्षित-जीवन अवधि असल में घट गयी थी।” WHO के महा-निदेशक ने कहा कि “सबसे कम विकसित देशों में आज ४ में से ३ लोग ५० साल की उम्र पार नहीं कर पाते जबकि ५० साल तो इस सदी की शुरूआत में पूरे संसार का औसत आपेक्षित-जीवन अवधि थी।”
लेकिन आज गरीब देशों में बढ़ती संख्या में बूढ़े और जवान लोग वहाँ उपलब्ध सस्ती स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठाकर इस बाधा को घटा रहे हैं। उदाहरण के लिए, तपेदिक या टीबी का इलाज करने के नये तरीके को ही लीजिए।
दुनिया में जितने लोग एड्स, मलेरिया और गर्म देशों में होनेवाली बीमारियों से नहीं मरते उससे कहीं ज़्यादा टीबी से मर जाते हैं, यानी हर दिन करीब ८,००० लोग। पूरी दुनिया के हर १०० टीबी मरीज़ों में से ९५ मरीज़ दुनिया के विकासशील देशों में पाए जाते हैं। आज करीब २ करोड़ लोग सक्रिय टीबी से पीड़ित हैं और अगले दस सालों में यह करीब ३ करोड़ लोगों की जान ले सकती है जो कि बोलिविया, कंबोडिया और मलावी की कुल आबादी के बराबर है।
इसलिए १९९७ में WHO को यह घोषणा करने में खुशी हुई कि अब एक ऐसी योजना निकाली गई है जिसमें टीबी का इलाज छः महीनों में ही किया जा सकता है और व्यक्ति को अस्पताल में भरती होने या किसी खास तकनीकी-चिकित्सा सुविधा की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। WHO के प्रकाशन द टीबी ट्रीटमॆंट ऑबसर्वर ने कहा कि “पहली बार, कारगर इलाज और बेहतरीन व्यवस्था दुनिया के हाथ लगी हैं जो न सिर्फ अमीर देशों में, बल्कि सबसे गरीब देशों में भी टीबी की महामारी को खत्म कर सकती है।” इस तरीके को कुछ लोग “इस दशक की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण जन-स्वास्थ्य उपलब्धि” कहते हैं—इसका नाम है DOTS.e
टीबी के पुराने इलाजों की तुलना में इस नए तरीके के मुताबिक इलाज करने से खर्च काफी कम आता है, और नतीजे काफी अच्छे निकल रहे हैं, खासकर विकासशील देशों में रहनेवालों के लिए। “टीबी की रोकथाम के लिए किसी दूसरी योजना को लगातार इतनी सफलता नहीं मिली है,” WHO के विश्वव्यापी टीबी कार्यक्रम का अध्यक्ष, डॉ. अराटा कोची कहता है। “गरीब-से-गरीब देशों में भी DOTS की सफलता दर ९५ प्रतिशत है।” १९९७ के अंत तक, DOTS योजना को ८९ देशों में अपनाया जा चुका था। और अब इसे ९६ देशों में अपनाया जा चुका है। WHO को आशा है कि यह योजना सबसे कम विकसित देशों में भी कई करोड़ लोगों तक पहुँचेगी और उन्हें जीवन की दौड़ में तीसरी बाधा को घटाने में मदद देगी।
अपनी आदतों को बदलने, अपने वातावरण को सुधारने और अच्छा इलाज करने के ज़रिए मनुष्य सचमुच अपनी औसत जीवन-अवधि और आपेक्षित-जीवन अवधि को बढ़ा सका है। अब प्रश्न यह है, क्या एक दिन मनुष्य अपनी अधिकतम जीवन-अवधि को भी बढ़ा सकेगा, यहाँ तक कि क्या वह हमेशा-हमेशा के लिए ज़िंदा रह सकेगा?
[फुटनोट]
a हालाँकि “आपेक्षित-जीवन अवधि” और “औसत जीवन-अवधि” को अकसर अदल-बदल कर इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इन दोनों के बीच फर्क है। “आपेक्षित-जीवन अवधि” वे साल हैं जो एक व्यक्ति जीने की अपेक्षा कर सकता है, जबकि “औसत जीवन-अवधि” उन सालों की औसत को सूचित करती है जितने साल किसी जगह के लोग असल में जीते हैं। इस तरह, औसत जीवन-अवधि के आधार पर आपेक्षित-जीवन अवधि का अनुमान लगाया जाता है।
b उन बाधाओं के साथ-साथ जिन्हें बदला जा सकता है, न बदलनेवाली बाधाओं का भी मनुष्य के स्वास्थ्य और उम्र पर असर होता है जैसे कि आनुवंशिक बाधाएँ। इसकी चर्चा अगले लेख में की जाएगी।
c “स्वच्छता की चुनौती का सामना करना” और “आपके स्वास्थ्य को क्या निर्धारित करता है—आप क्या कर सकते हैं” नामक लेख देखिए जो सजग होइए! के सितंबर २२, १९८८ अँग्रेज़ी अंक में और अप्रैल ८, १९९५ हिंदी अंक में हैं। इन लेखों को पढ़ने से आपको मदद मिलेगी कि किन सरल तरीकों से आप अपने घर का वातावरण सुधार सकते हैं।
d जिस जगह यहोवा के साक्षी अपनी साप्ताहिक सभाएँ रखते हैं उसे राज्यगृह कहा जाता है। इन सभाओं में सब तरह के लोगों का स्वागत किया जाता है, इनमें कोई चंदा नहीं माँगा जाता।
e ‘डाइरॆक्टली ऑबसर्व्ड ट्रीटमॆंट, शॉर्ट-कोर्स’ का संक्षिप्त नाम DOTS है। DOTS व्यवस्था के बारे में अधिक जानकारी के लिए, जून ८, १९९९ की सजग होइए! में लेख “टीबी का मुकाबला करने के लिए नया हथियार” देखिए।
[पेज 6 पर बक्स/तसवीर]
कितना और किस किस्म का व्यायाम?
वृद्धावस्था राष्ट्रीय संस्थान (NIA) कहता है, “हर दिन तीस मिनट तक संतुलित व्यायाम करने का लक्ष्य रखना अच्छा है।” लेकिन आपको लगातार ३० मिनट तक व्यायाम करने की ज़रूरत नहीं। कहा जाता है कि तीन बार १०-१० मिनट तक व्यायाम करने से भी वही फायदे होते हैं जो उसी किस्म के व्यायाम को एक ही बार में ३० मिनट तक करने से होते हैं। आप किस किस्म के व्यायाम कर सकते हैं? NIA पुस्तिका आलस न करें: व्यायाम करें! (अँग्रेज़ी) सलाह देती है: “जैसे लिफ्ट के बजाय सीढ़ियाँ चढ़ना, या गाड़ी के बजाय चलकर जाना, दिन में ३० मिनट के व्यायाम में जोड़े जा सकते हैं। आँगन बुहारना, बच्चों के साथ भाग-दौड़कर खेलना, बागवानी करना यहाँ तक कि घर के काम करना, ये सब काम इस तरह किये जा सकते हैं कि इस समय को आपके दिन-भर के कुल व्यायाम-समय में जोड़ा जा सके।” लेकिन, व्यायाम का कार्यक्रम शुरू करने से पहले अपने डॉक्टर की सलाह लेने में बुद्धिमानी है।
[तसवीर]
थोड़े-बहुत मेहनत के काम से बूढ़ों को फिर से ताकत और चुस्ती-फुरती मिल सकती है
[पेज 7 पर बक्स/तसवीर]
दिमाग को तंदरुस्त रखना
हज़ारों बूढ़े लोगों पर किये गये वैज्ञानिक अध्ययनों से ऐसी कई बातें पता चली हैं जो उनके दिमाग को तंदरुस्त रखने में मदद देती हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं, “पढ़ना, सैर-सपाटा करना, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, शिक्षा, क्लबों और व्यावसायिक कामों में हिस्सा लेना।” “जितने अलग-अलग तरह के काम कर सकते हों कीजिए।” “रिटायर होने पर भी कुछ काम-काज करते रहिए।” “टीवी बंद कर दीजिए।” “कोई कोर्स कीजिए।” यह माना जाता है कि ऐसे कामों से न सिर्फ मन बहलता है बल्कि दिमाग में नये जोड़ भी बनते हैं।
[तसवीर]
मानसिक व्यायाम करने से दिमाग तंदरुस्त बना रहता है
[पेज 8 पर बक्स/तसवीर]
बढ़ती उम्रवालों के लिए स्वस्थ रहने के सुझाव
अमरीकी स्वास्थ्य और मानव सेवाएँ मंत्रालय का एक विभाग, वृद्धावस्था राष्ट्रीय संस्थान कहता है कि अच्छी सलाह, जैसे निम्नलिखित सलाह को मानने से “स्वस्थ रहने और लंबे समय तक जीने की संभावना बढ़ सकती है:
● संतुलित भोजन लें, जिसमें फल और सब्ज़ियाँ हों।
● अगर आप शराब पीते हैं तो ज़्यादा न पीएँ।
● धूम्रपान न करें। हो सके तो इसे छोड़ दें, इसे कभी भी छोड़ा जा सकता है।
● नियमित रूप से व्यायाम करें। व्यायाम कार्यक्रम शुरू करने से पहले डॉक्टर की सलाह लें।
● घरवालों और दोस्तों से नाता न तोड़ें।
● काम, खेल और संगति के द्वारा व्यस्त रहें।
● ज़िंदगी में कभी उम्मीद न छोड़ें।
● ऐसे काम करें जिनसे आपको खुशी मिलती हो।
● समय-समय पर शारीरिक जाँच करवाएँ।
[पेज 9 पर बक्स]
मस्तिष्क की कोशिकाओं पर एक नयी नज़र
मनोरोग-विज्ञानी और तंत्रिका-विज्ञानी डॉ. मॆरिलिन ऐलबर्ट कहती है, “पहले हम सोचते थे कि हमारे मस्तिष्क के हर हिस्से में हर दिन मस्तिष्क कोशिकाएँ मरती रहती हैं, लेकिन यह सच नहीं है, उम्र बढ़ने के साथ-साथ कुछ नुकसान तो ज़रूर होता है लेकिन इस तरह से नहीं, जो नुकसान होता है वह मस्तिष्क के कुछ खास हिस्सों में ही होता है।” इसके अलावा, हाल की खोज के मुताबिक यह पुरानी मान्यता कि मनुष्य के मस्तिष्क में नयी कोशिकाएँ नहीं उत्पन्न हो सकतीं “सही नहीं है,” नवंबर १९९८ की साइंटिफिक अमॆरिकन रिपोर्ट करती है। तंत्रिका-विज्ञानियों का कहना है कि अब उन्होंने इसका सबूत इकट्ठा कर लिया है कि बुज़ुर्ग लोगों में भी “सैकड़ों की तादाद में नयी तंत्रिकाएँ बनती रहती हैं।”
[पेज 11 पर बक्स]
बूढ़े और बुद्धिमान?
बाइबल पूछती है, ‘क्या बुद्धि वृद्धों में और समझ लम्बी आयु वालों में नहीं पाई जाती?’ (अय्यूब १२:१२, NW) इसका जवाब क्या है? शोधकर्ताओं ने बूढ़ों के इन गुणों को जाँचने के लिए अध्ययन किया कि उनमें “अंतर्दृष्टि, अच्छी सूझबूझ, परख-शक्ति, विरोधी मूल्यों को आँकने और समस्या का अच्छा समाधान निकालने की क्षमता” किस हद तक है? यू.एस.न्यूज़ एण्ड वर्ल्ड रिपोर्ट के अनुसार, अध्ययन ने दिखाया कि “बूढ़े लोगों की बौद्धिक क्षमता जवान लोगों से हमेशा ज़्यादा होती है, वे अच्छी तरह सोच-समझकर बढ़िया और फायदेमंद सलाह देते हैं।” अध्ययन दिखाते हैं कि “कोई भी फैसला करने में अकसर बूढ़े लोगों को जवानों से ज़्यादा समय लगता है, लेकिन आम तौर पर उनका फैसला बेहतर होता है।” इसलिए, जैसे अय्यूब नामक बाइबल पुस्तक बताती है, बूढ़ों के पास वाकई ज्ञान और बुद्धि की कमी नहीं!
[पेज 5 पर तसवीर]
मनुष्य का जीवन बाधाओं से भरी दौड़ के समान है
[पेज 9 पर तसवीर]
एक विधवा सलाह देती है, “आप एक ऐसा इंसान बनने की कोशिश कीजिए जिससे लोगों को आपके साथ मिलना जुलना अच्छा लगे।”
[पेज 10 पर तसवीरें]
“दूसरों को जीवन का सही अर्थ बताना एक बड़ा ही संतोषदायी काम है।”—ईवलिन
[पेज 10 पर तसवीरें]
“राज्यगृह में मुझे सबसे बात करना अच्छा लगता है, चाहे वे बूढ़े हों या जवान।”—लूईज़