“सब जातियों के लोग तुम से बैर रखेंगे”
हाल ही के वर्षों में संसार-भर में यहोवा के लोगों द्वारा अनुभव की गई अद्भुत आशिषों की रोमांचकारी रिपोर्टें सुनने में हम सब आनन्दित हुए हैं। मलावी में २६ वर्षों के क्रूर दमन के बाद कार्य के वैधीकरण से हमारी आँखों में ख़ुशी के आँसू आ गए। हमने राहत की साँस ली जब हमने पूर्वी यूरोप में भक्तिहीन साम्यवाद का विध्वंस देखा जिसका परिणाम अक्षरशः हमारे हज़ारों भाइयों के लिए उसके अत्याचारी बोझ से छुटकारा था। हम उत्सुक चिंता से देख रहे थे जब यूनान में हमारी उपासना की स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाया गया; हम हर्षित हुए जब हमने यूरोप के उच्चतम न्यायालय में गुँजायमान जीत हासिल की। हम संस्था की शाखाओं के बड़े पैमाने पर विस्तार की रिपोर्टें सुनकर आनन्दित हुए हैं जिसने सच्चाई ढूँढनेवालों के लिए विशाल मात्रा में साहित्य के उत्पादन को संभव किया है। हम चकित हुए बिना नहीं रह सके जब हमने सुना कि कीव, यूक्रेन के अधिवेशन में ७,४०० से अधिक लोगों का बपतिस्मा हुआ। जी हाँ, राज्य कार्य में इन उल्लेखनीय बढ़ौतियों ने हमारे हर्ष को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया है!
२ जबकि हमारे आनन्द का कारण बड़ा है, हमें अत्यधिक हर्षित होने के विरुद्ध सचेत रहना है। अनुकूल रिपोर्टों की श्रृंखला हमारा यह तय करने का कारण बन सकती है कि सुसमाचार के प्रति विरोध ढह रहा है और कि यहोवा के लोग संसार भर में स्वीकृति प्राप्त कर रहे हैं। ऐसी विचारधारा भ्रामक हो सकती है। जबकि हमने कुछ संतोषजनक विजय प्राप्त की हैं और कुछ देशों में सुसमाचार के प्रति अड़चनों को कम करने में कुछ हद तक सफलता प्राप्त की है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संसार के साथ हमारा मूल संबंध अपरिवर्तित रहता है। यीशु के अनुयायियों के तौर पर हम “संसार के नहीं।” इस प्रकार, हम निश्चित हो सकते हैं कि ‘सब जातियों के लोग हम से बैर रखेंगे।’ (यूह. १५:१९; मत्ती २४:९) जब तक यह रीति-व्यवस्था चलती है, कोई भी बात इस बुनियादी नियम को नहीं बदल सकती कि “जितने मसीह यीशु में भक्ति के साथ जीवन बिताना चाहते हैं वे सब सताए जाएंगे।”—२ तीमु. ३:१२.
३ इतिहास के पन्ने इस चेतावनी की सच्चाई की गवाही देते हैं। जबकि, मसीहियत के संस्थापक यीशु ने, शक्तिशाली शासकों और उनकी प्रजा के सामने अद्भुत गवाही दी, उसने प्रतिदिन दुर्व्यवहार सहा और निरंतर मार डाले जाने के ख़तरे में था। जबकि उसके प्रेरितों ने अनेकों को शिष्य बनने में मदद की, मसीही यूनानी शास्त्रों के लेखन में हिस्सा लिया, और आत्मा के चमत्कारिक वरदानों को प्रदर्शित किया, उनसे भी उसी तरह घृणा और दुर्व्यवहार किया गया। उनके अच्छे आचरण और पड़ोसी के प्रति प्रेम के बावजूद भी, अधिकांश लोगों द्वारा सभी मसीहियों को घृणित “मत” समझा जाता था जिसके ‘विरुद्ध लोग बातें कहते थे।’ (प्रेरितों २८:२२) जबकि आज की संसारव्याप्त मसीही कलीसिया का प्रयोग यहोवा ने अपनी इच्छा पूरी करने के लिए अद्भुत तरीक़े से किया है, इस दुष्ट रीति-व्यवस्था के प्रत्येक तत्त्व द्वारा इसका निरंतर विरोध हुआ है और निन्दा की गयी है। उस विरोध के समाप्त होने की प्रत्याशा करने का कोई कारण नहीं है।
४ पहली शताब्दी में, शैतान ने यीशु के शिष्यों को विभिन्न तरीक़ों से सताया। घृणापूर्ण विरोधियों ने सुस्पष्ट झूठ कहे जिसने उनका अयथार्थ रूप प्रस्तुत किया। (प्रेरितों १४:२) उन्हें डराने के प्रयास में खतरनाक धमकियाँ दी गयीं। (प्रेरितों ४:१७, १८) क्रुद्ध भीड़ ने उन्हें चुप करवाना चाहा। (प्रेरितों १९:२९-३४) बिना किसी वैध कारण के उन्हें बन्दीगृह में डाला गया। (प्रेरितों १२:४, ५) उत्पीड़कों ने अकसर शारीरिक हिंसा का प्रयोग किया। (प्रेरितों १४:१९) कुछ किस्सों में निर्दोष लोगों की जानबूझकर हत्या की गयी। (प्रेरितों ७:५४-६०) प्रेरित पौलुस ने व्यक्तिगत रूप से वस्तुतः इन सभी तरीक़ों के दुर्व्यवहार को सहा। (२ कुरि. ११:२३-२७) प्रचार कार्य में बाधा लाने के किसी भी अवसर का प्रयोग करने और उन विश्वासी कार्यकर्त्ताओं पर पीड़ा लाने के लिए विरोधी तत्पर थे।
५ आज शैतान समान युक्तियों का प्रयोग कर रहा है। एक पथभ्रष्ट मत या पंथ के तौर पर हमारा झूठा चित्रण करने के लिए, सुस्पष्ट झूठ बोले गए हैं। कुछ देशों में, अधिकारियों ने हमारे साहित्य को विच्छेदक घोषित किया है और उस पर प्रतिबंध लगा दिया है। लहू की पवित्रता के लिए हमारे आदर का सार्वजनिक रूप से उपहास किया और ललकारा गया है। वर्ष १९४०-१९४५ में, झंडा-सलामी वादविषय से क्रोधित होकर क्रुद्ध भीड़ ने हमारे भाइयों पर हमला किया, क्षति पहुँचायी, और उनकी संपत्ति को नष्ट किया। तटस्थता के वादविषय पर हज़ारों को जेल में डाला गया है। एकदलीय देशों में हमारे भाइयों पर क्रांतिकारी होने का झूठा इलज़ाम लगाया गया है, इसका परिणाम सैकड़ों भाइयों का जेलों और नज़रबन्दी शिविरों में क्रूरतापूर्वक यंत्रणा दिया जाना और मार दिया जाना हुआ है। यह दबाव निरंतर रहा है, स्पष्ट रूप से यह दिखाते हुए कि बिना किसी वैध कारण के हमसे बैर रखा जाता है।—जिहोवाज़ विटनेसिस्—प्रोक्लेमर्स ऑफ गॉडस् किंगडम किताब का अध्याय २९ देखिए।
६ भविष्य में क्या रखा है? जबकि यहोवा के लोग शायद समय समय पर विजय प्राप्त करें ताकि संसार के किसी भाग में तनाव कम हो, कुल मिलाकर स्थिति वही रहती है। वर्ष १९१४ में अपनी अधोगति से शैतान अब भी क्रुद्ध है। वह जानता है कि उसका समय थोड़ा है। जैसे-जैसे भारी क्लेश निकट आता है उसका क्रोध तीव्र होना निश्चित है। सत्तारूढ़ राजा, यीशु मसीह के विरुद्ध लड़ने के लिए वह संपूर्णतया वचनबद्ध है, और अंत तक लड़ने के लिए वह दृढ़-संकल्प है। वह और उसके पिशाच अपना गुस्सा सिर्फ़ पृथ्वी पर यहोवा के लोगों पर निकाल सकते हैं, जो वफ़ादारी से ‘परमेश्वर की आज्ञाओं को मानने, और यीशु की गवाही देने पर स्थिर हैं।’—प्रका. १२:१२, १७.
७ सो जब हम भविष्य की ओर देखते हैं, अपनी अपेक्षाओं में हमें यथार्थवादी होने की ज़रूरत है। यह सोचने का कोई कारण नहीं है कि इब्लीस पीछे हटेगा या हार मान लेगा। हमारे प्रति जो घृणा उसने इस संसार के मन में बिठायी है किसी भी वक्त और किसी भी जगह भड़क सकती है। अनेक देशों में प्रचार करने की हमारी स्वतंत्रता को एक लंबे संघर्ष के बाद ही हासिल किया गया है। यह स्वतंत्रता शायद बहुत ही भंगुर हो, जो किसी सामयिक सहानुभूतिशील शासक या अलोकप्रिय नियम द्वारा बनी रहती है। नाटकीय उथल-पुथल रातों-रात हो सकती है, जिससे अव्यवस्था और मानव अधिकारों का अनियंत्रित दुरुपयोग हो सकता है।
८ कुछ देशों में जिस वर्तमान समृद्धि और स्वतंत्रता का आनन्द हम लेते हैं अचानक समाप्त हो सकती है, जिससे हमारे भाई उसी दुर्व्यवहार का शिकार हो सकते हैं जो उन्होंने अतीत में सहा है। हम स्वयं को भावशून्यता या उदासीनता की भावना में बहकने की अनुमति देने का दुःसाहस नहीं कर सकते, यह सोचते हुए कि हमारे शत्रु पराजित किए गए हैं। इस संसार की घृणा शायद हमेशा पूरी तरह ज़ाहिर न हो, लेकिन यह तीव्र रहती है। परमेश्वर के वचन में प्रत्येक बात यह दिखाती है कि जैसे-जैसे अंत निकट आता है संसार का विरोध कम होने के बजाय और भी तीव्र होगा। सो हमें सचेत रहना है, और अपने आप को “सांपों की नाईं बुद्धिमान और कबूतरों की नाईं भोले” दिखाना है। (मत्ती १०:१६) हमें यह एहसास होना चाहिए कि अंत तक हमें “एक कड़ा संघर्ष” करना है, और धीरज हमारी उत्तरजीविता की कुँजी है।—यहूदा ३, NW; मत्ती २४:१३.
९ संसार के जिस भाग में हम रहते हैं, वहाँ शायद प्रचार कार्य विरोधियों द्वारा बिना किसी सुस्पष्ट अड़चन के बढ़ रहा होगा। यह हमें गंभीर रूप से चिन्तित होने के किसी भी कारण के बारे में संदेही कर सकता है। फिर भी, सतर्क रहने की ज़रूरत है। परिस्थितियाँ जल्द ही बदल सकती हैं। बिना किसी पूर्व सूचना के, विरोधी किसी वादविषय का लाभ उठाकर उसका प्रयोग हमारे विरुद्ध कर सकते हैं। धर्मत्यागी निरंतर शिकायत के किसी कारण को ढूँढ रहे हैं। क्रुद्ध पादरी जो हमारे कार्य के कारण खतरा महसूस करते हैं सार्वजनिक रूप से हमारी भर्त्सना कर सकते हैं। हमारे समुदाय में एक राज्यगृह के निर्माण की हमारी योजनाएँ शायद एक विवाद को भड़का सकती हैं जिससे सारा आस-पड़ोस अशान्त हो जाता है। उत्तेजक कथन छप सकते हैं, जो हमें बदनाम करते हैं। स्थानीय प्रतिष्ठित व्यक्ति जानबूझकर हमारा अयथार्थ रूप प्रस्तुत कर सकते हैं, जिससे हमारे भेंट करते वक्त हमारे पड़ोसी विरोधी हो सकते हैं। यहाँ तक कि शायद हमारे अपने परिवार में प्रिय जन भी क्रोधित हों और हमें सताएँ। इसलिए सचेत रहने की ज़रूरत है, यह एहसास करते हुए कि संसार की शत्रुता सक्रिय है, और यह कभी भी ऊपर आ सकती है।
१० इसका प्रभाव हम पर कैसा होना चाहिए? यह सब कुछ उचित रूप से भविष्य के लिए हमारी विचारधारा और दृष्टिकोण को प्रभावित करता है। किस तरीक़े से? क्या यह हमें इस बारे में आशंकित, भयभीत करेगा कि हमें क्या सहना होगा? क्या हमें अपने प्रचार कार्य में धीमे हो जाना चाहिए क्योंकि हमारे समुदाय में शायद कुछ लोग इसे पसंद न करें? जब अनुचित रूप से हमारी निन्दा की जाती है, तो उत्तेजित होने का क्या कोई उचित कारण है? क्या यह अनिवार्य है कि कठोर बर्ताव यहोवा की सेवा में हमारे आनन्द को हमसे छीन ले? क्या परिणाम के बारे में कोई अनिश्चितता है? नहीं, कभी नहीं! क्यों नहीं?
११ हमें इस तथ्य को कभी भूलना नहीं चाहिए कि जो संदेश हम घोषित करते हैं उसका मूल, हम से नहीं, यहोवा से है। (यिर्म. १:९) हम इस आग्रह को मानने के लिए बाध्य हैं: “उस से प्रार्थना करो; सब जातियों में उसके बड़े कामों का प्रचार करो, . . . इसे सारी पृथ्वी पर प्रगट करो।” (यशा. १२:४, ५) उसने अपने लोगों का दुर्व्यवहार एक विशेष उद्देश्य के लिए सहा है, अर्थात्, ‘अपना नाम सारी पृथ्वी पर प्रसिद्ध करने’ के लिए। (निर्ग. ९:१६) हम वह कार्य कर रहे हैं जिसका आदेश यहोवा द्वारा दिया गया है और वही है जो हमें निडरता से बोलने का साहस देता है। (प्रेरितों ४:२९-३१) पुरानी व्यवस्था के इन अन्तिम दिनों में किया जा सकने वाला यह अति महत्त्वपूर्ण, लाभप्रद, और अत्यावश्यक कार्य है।
१२ यह ज्ञान हमें शैतान और इस संसार के स्पष्ट विरोध में एक दृढ़ स्थिति लेने के लिए साहस प्रदान करता है। (१ पत. ५:८, ९) यह जानना कि यहोवा हमारे साथ है हमें ‘हियाव बान्धने और दृढ़ होने’ में मदद करता है, और अपने उत्पीड़कों के सामने भयभीत होने के किसी भी कारण को दूर करता है। (व्यव. ३१:६; इब्रा. १३:६) जबकि हम विरोधियों द्वारा धमकाए जाने पर हमेशा व्यवहार-कुशल, तर्कसंगत, और बुद्धिमान होने का प्रयास करेंगे, हम यह स्पष्ट करेंगे कि जब हमारी उपासना को चुनौती दी जाती है हम ‘मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्वर की आज्ञा पालन करने’ के लिए दृढ़-संकल्प हैं। (प्रेरितों ५:२९) जब अपनी सफ़ाई में बोलने का तर्कसंगत अवसर है, तो हम ऐसा करेंगे। (१ पत. ३:१५) हालाँकि, हम अपना समय कठोर विरोधियों के साथ विवाद करने में बरबाद नहीं करेंगे जो सिर्फ़ हमारी बदनामी करने में दिलचस्पी रखते हैं। जब वे हमारी निन्दा करते या झूठा इलज़ाम लगाते हैं तो क्रोधित होने या प्रतिकार करने के बजाय, हम मात्र ‘उन को जाने देते’ हैं।—मत्ती १५:१४.
१३ परीक्षाओं के दौरान हमारा धीरज यहोवा को प्रसन्न करता है। (१ पत. २:१९) उस स्वीकृति के लिए हमें कौन-सी क़ीमत चुकानी होगी? क्योंकि हमसे विरोध और घृणा की जाती है क्या हम आनन्द-रहित सेवा करेंगे? निश्चय ही नहीं! यहोवा हमारी आज्ञाकारिता का प्रतिफल “आनन्द और शान्ति” के रूप में देने की प्रतिज्ञा करता है। (रोमि. १५:१३) तीव्र पीड़ा के बावजूद भी, यीशु आनन्दित रहा “उस आनन्द के लिये जो उसके आगे धरा था।” (इब्रा. १२:२) यही हमारे विषय में भी सच है। क्योंकि हमारे धीरज का प्रतिफल इतना बड़ा है, हम कष्टदायक परीक्षाओं को सहने के बावजूद भी ‘आनन्दित और मगन होने’ के लिए प्रेरित होते हैं। (मत्ती ५:११, १२) विपत्तियों के समय में भी, यह आनन्द अपने आप में, राज्य संदेश के समर्थन में यहोवा को स्तुति और आदर देने का एक कारण है।
१४ क्या आख़िरी परिणाम के बारे में कोई अनिश्चितता है, जो हमें आशंकित या अनिर्णीत होने का कारण देगी? नहीं, यहोवा के संगठन और शैतान के संसार के बीच संघर्ष का परिणाम काफ़ी समय पहले निश्चित किया गया था। (१ यूह. २:१५-१७) विरोध की तीव्रता या विस्तार के बावजूद, यहोवा हमें विजय देगा। (यशा. ५४:१७; रोमि. ८:३१, ३७) जबकि हम पूर्णतया परीक्षा में डाले जाते हैं, प्रतिफल प्राप्त करने से कोई भी बात हमें रोक नहीं सकती। हमें “किसी भी बात की चिन्ता” करने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि हमारी विनतियों के जवाब में यहोवा ने हमें शांति प्रदान की है।—फिलि. ४:६, ७.
१५ सो हम प्रत्येक बार यहोवा का धन्यवाद करते हैं जब हम अपने भाइयों के सताहट से बचाए जाने या उन क्षेत्रों में प्रचार करने की स्वतंत्रता के बारे में रिपोर्टें सुनते हैं जहाँ अतीत में उन पर प्रतिबंध था। हम हर्षित होते हैं जब बदलती परिस्थितियाँ हज़ारों निष्कपट लोगों के राज्य संदेश के संपर्क में आने के लिए नए अवसर खोल देती हैं। हम सचमुच कृतज्ञ हैं जब घृणापूर्ण विरोधियों के साथ मुकाबलों में यहोवा हमें जीत देने का चुनाव करता है। हम जानते हैं कि जिस किसी तरीक़े से आवश्यक हो वह हमारे कार्य को आशीष देगा और समृद्ध करेगा ताकि उसकी सच्ची उपासना का घर ऊँचा हो और सभी राष्ट्रों से ‘मनभावने’ जनों को प्रवेश करने का अवसर दिया जाए।—हाग्गै २:७; यशा. २:२-४.
१६ उसी समय, हम पूर्णतया अवगत हैं कि हमारा शत्रु, शैतान बहुत शक्तिशाली है, और वह अंत तक प्रबल रूप से हमारा विरोध करेगा। उसके हमले खुले और घिनौने हो सकते हैं, या वे धूर्त और भ्रामक हो सकते हैं। जहाँ अतीत में हमने सिर्फ़ शांति देखी थी वहाँ अचानक सताहट फूट सकती है। दुष्ट विरोधी अन्यायी रूप से हमें उत्पीड़ित करने में निष्ठुर और क्रूर हो सकते हैं। समय आने पर ऐसे सभी लोगों पर स्पष्ट हो जाएगा कि वे ‘असल में परमेश्वर के विरुद्ध लड़’ रहे हैं, और वह उन्हें नष्ट कर देगा। (प्रेरितों ५:३८, ३९; २ थिस्सु. १:६-९) तब तक, चाहे हमें कुछ भी सहना पड़े, हम निष्ठा से यहोवा की सेवा करने में और राज्य संदेश का प्रचार करने में स्थिर रहने के लिए दृढ़-संकल्प हैं। हम पृथ्वी पर सबसे अधिक आनन्दित लोग हैं, यह जानते हुए कि हम ‘खरे निकलकर जीवन का मुकुट पाएँगे।’—याकू. १:१२.