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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1999
w99 4/1 पेज 23-27

सुख और शांति की खोज में

पासकाल स्टीज़ी की ज़बानी

रात बहुत बीत चुकी थी। दक्षिण-फ्रांस में बेज़ये शहर की सड़कें सूनी पड़ी थीं। मैंने और मेरे दोस्त ने धार्मिक किताबों की दुकान देखी जिसकी दीवार पर अभी-अभी पेंट किया गया था। हम दोनों ने उस दीवार पर बड़े-बड़े काले अक्षरों में जर्मन तत्वज्ञानी नीची के ये शब्द लिख दिए: ‘सारे ईश्‍वर मुर्दाबाद, इंसानी ताकत ज़िंदाबाद!’ मगर ऐसा करने के लिए मुझे किस बात ने उकसाया?

मेरा जन्म १९५१ में, फ्रांस में हुआ, एक ऐसे कैथोलिक परिवार में जिसके पूर्वज इटैलियन थे। जब मैं छोटा था तब छुट्टी मनाने हमारा परिवार दक्षिणी इटली जाया करता था। वहाँ हर गाँव में कुवाँरी मरियम की मूरत थी। जब इन बड़ी-बड़ी मूरतों के लम्बे-लम्बे जलूस पहाड़ों से गुज़रते जाते थे तो मैं अपने नाना जी के साथ-साथ उनके पीछे जाता था, जबकि उन मूरतों पर मुझे ज़रा भी विश्‍वास नहीं था। मैंने अपनी बुनियादी शिक्षा पादरियों द्वारा चलाए गए एक धार्मिक स्कूल से पूरी की। मगर मुझे ऐसी कोई बात याद नहीं जो मैंने वहाँ सुनी हो और मेरा सचमुच परमेश्‍वर में विश्‍वास बढ़ा हो।

जब मैंने मोनपेलये की एक यूनिवर्सिटी में डॉक्टरी की पढ़ाई शुरू की तभी से मैंने जीवन के उद्देश्‍य के बारे में सोचना शुरू किया। युद्ध में मेरे पिता घायल हो गए थे और डॉक्टर हर दम उनकी देखभाल करने में लगे रहते। उस वक्‍त वियतनाम-युद्ध पूरे ज़ोरों पर चल रहा था, और ये सब देखकर मैं सोचता कि युद्ध में घायल लोगों को ठीक करने में समय और मेहनत लगाने के बजाए, अक्लमंदी इसमें होती कि युद्धों को ही खत्म कर दिया जाता। उस वक्‍त फेफड़े का कैंसर फैला हुआ था, और मैंने सोचा कि बीमारी की जड़, यानी तम्बाकू को मिटा देना ही इसका सबसे बढ़िया इलाज होता। साथ-ही कई विकासशील देशों में लोगों को कुपोषण के कारण और अमीर देशों में ज़रूरत से ज़्यादा खाना खाने के कारण बीमारियाँ हो रही थीं। क्या बीमारियों का इलाज करने के बजाए यह ज़्यादा अच्छा नहीं होता कि बीमारियों की जड़ को ही मिटा दिया जाता? दुनिया में इतनी दुख-तकलीफें क्यों हैं? मैंने सोचा कि अपना ही नुकसान करनेवाले इस समाज में ज़रूर कोई बहुत बड़ी गड़बड़ है, और सरकार ही इसकी ज़िम्मेदार है।

मेरी मनपसंद किताब का लेखक समाज-विद्रोही था और मैं उसमें से कुछ वाक्य लेकर दीवारों पर लिख देता था। फिर धीरे-धीरे मैं भी समाज-विद्रोही बनता चला गया, एक ऐसा व्यक्‍ति जो किसी धर्म में विश्‍वास नहीं करता, कोई नैतिक नियम नहीं मानता, जिसे किसी परमेश्‍वर या किसी गुरू की ज़रूरत नहीं थी। मेरी नज़र में परमेश्‍वर और धर्म ऐसी चीज़ें थीं जो अमीर और ताकतवर लोगों की ईजाद थीं, ताकि लोगों पर राज किया जा सके और उनका शोषण किया जा सके। लोगों के प्रति उनकी यह धारणा थी कि ‘तुम हमारे लिए पृथ्वी पर कठिन परिश्रम करो और स्वर्ग में तुम्हें इसका बड़ा इनाम मिलेगा।’ मगर ‘परमेश्‍वर पर भरोसा करके सब कुछ सहते जाओ’ वाला ज़माना अब नहीं रहा था। और ये बात ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को बताने की ज़रूरत थी। ऐसा करने का एक तरीका था दीवारों पर लिखना।

इन सबका परिणाम यह हुआ कि मेरी पढ़ाई पीछे छूट गई। इसलिए मैंने भूगोल और परिस्थिति-विज्ञान की शिक्षा पाने के लिए मोनपेलये की दूसरी एक यूनीवर्सिटी में दाखिला ले लिया था। मगर वहाँ के माहौल में भी विद्रोह फैला हुआ था। मैं जितना ज़्यादा परिस्थिति-विज्ञान का अध्ययन करता उतना ज़्यादा मुझे यह देखकर गुस्सा आता कि हमारी इतनी सुंदर पृथ्वी को प्रदूषित किया जा रहा था।

हर साल मैं गर्मी की छुट्टियाँ बिताने के लिए यूरोप में हज़ारों किलोमीटर का सफर इधर-उधर से लिफ्ट ले-लेकर तय करता था। सफर के समय सैकड़ों ड्राइवरों से बात करने का मौका मिलता, और मैंने खुद भी आँखों से देखा कि समाज में बहुत बुराई है और वह बरबाद हो रहा है। एक बार जब मैं सुख-शांति के सुंदर बसेरे की तलाश में था तो मुझे कुछ बहुत-ही खूबसूरत समुद्री-किनारे देखने को मिले जो क्रीट द्वीप पर थे। मगर यह देखकर मुझे बहुत दुख हुआ कि उनमें तेल फैला हुआ था। मैंने सोचा कि इस दुनिया के किसी कोने में सुख और शांति का बसेरा अब भी बचा है या नहीं।

वापिस खेती-बाड़ी की ओर

फ्रांस में, परिस्थिति-विज्ञानी कह रहे थे कि हमें वापिस खेती-बाड़ी करनी चाहिए, तभी समाज की समस्याओं को दूर किया जा सकता है। मैं हाथों से काम करना चाहता था। इसलिए मैंने दक्षिणी फ्रांस में, सेवॆन पहाड़ के नीचे बसे छोटे-से गाँव में पत्थरों से बना पुराना घर खरीद लिया। दरवाजे पर मैंने लिख दिया यहाँ “सुख-शांति का बसेरा” है, यह अमरीका के हिप्पी लोगों का नारा था। एक जर्मन लड़की जो हमारे इलाके से गुज़र रही थी मेरी साथी बनकर मेरे साथ रहने लगी। मेयर के सामने उसके साथ शादी करने का तो सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि वह सरकार का नुमाइंदा था। और चर्च? चर्च के बारे में तो सोचिए भी मत!

ज़्यादातर हम नंगे पाँव ही चलते थे। मेरे बाल लम्बे-लम्बे और दाढ़ी गंदी, उलझी हुई थी। फल और सब्ज़ियाँ उगाने में मुझे बड़ा मज़ा आता था। गर्मियों में आसमान नीला होता, सकाडा कीट शोर मचाते, हवा में जंगली फूलों की तेज़ खुशबू होती, और हम वहाँ के मौसम के हिसाब से जो फल उगाते—अंगूर और अंजीर—वे बहुत-ही रसदार होते! ऐसा लगता मानों हमने परादीस में अपनी जगह बना ली है।

परमेश्‍वर में विश्‍वास जागा

विश्‍व-विद्यालय में मैंने कोशिका जीव-विज्ञान, भ्रूणविज्ञान और शरीर-रचना-विज्ञान का अध्ययन किया था। इनकी सबकी पेचीदगी और तालमेल को देखकर मुझ पर बहुत गहरा असर हुआ था। अब मैं सृष्टि को हर दिन और करीब से देख सकता था और विचार कर सकता था। इसकी सुंदरता और उपजाने की क्षमता देखकर मैं दंग था। एक के बाद एक दिन गुज़रता गया और सृष्टि की किताब का एक-एक पन्‍ना मेरे सामने खुलता गया। एक दिन मैं पहाड़ों की सैर करते-करते कुछ सोचते-सोचते बहुत दूर निकल गया। मैं जीवन के बारे में बहुत गहराई से सोच रहा था जिसके बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि ज़रूर इस सृष्टि का कोई बनानेवाला होगा। मैंने अपने मन में ठान लिया कि मैं परमेश्‍वर पर विश्‍वास करूँगा। पहले मैं खाली-खाली-सा महसूस करता था, और यह अकेलापन मुझे काटने को दौड़ता था। जिस दिन मैंने परमेश्‍वर पर विश्‍वास करना शुरू किया, मैंने खुद-से कहा, ‘पासकाल, तुम्हारे वो अकेलेपन के दिन अब हमेशा के लिए दूर हुए क्योंकि अब तुम अकेले नहीं हो।’ वो एक अनोखा एहसास था।

जल्द-ही हमें एक लड़की पैदा हुई—आमानडीन। वह मेरी आँखों की ज्योति थी। क्योंकि अब मैं परमेश्‍वर में विश्‍वास करने लगा था इसलिए मैंने कुछ नैतिक नियमों पर, जो मुझे मालूम थे अमल करना शुरू कर दिया। चोरी करना, झूठ बोलना मैंने छोड़ दिया, और जल्द-ही मुझे यह एहसास हुआ कि ऐसा करने से पड़ोसियों के साथ मेरी समस्याएँ काफी कम हो गईं हैं। मगर अब भी कुछ समस्याएँ बाकी थीं, और मेरा बसेरा असलियत में सुख-शांति का वह बसेरा नहीं था जिसकी मैंने उम्मीद की थी। अड़ोस-पड़ोस के लोग अंगूर की खेती करते थे, वे तरह-तरह के कीटनाशक इस्तेमाल करते थे जिसकी वज़ह से मेरी फसल खराब होती थी। मुझे मेरे सवाल का जवाब अब तक नहीं मिला था कि बुराई की आखिर वज़ह क्या है। हालाँकि मैंने शादीशुदा ज़िंदगी के बारे में बहुत कुछ पढ़ रखा था मगर फिर भी हम दोनों में ज़ोरदार तकरार हो जाती थी। हमारे बहुत कम दोस्त थे, और जो थे वे भी झूठे; कुछ ने तो यह कोशिश की कि मेरी साथी मुझे दगा दे दे। नहीं, यह सचमुच का सुख-शांति का बसेरा नहीं था।

मेरी प्रार्थनाओं का जवाब

मैं अपने तरीके से परमेश्‍वर से अकसर प्रार्थना करता कि मुझे जीवन में राह दिखाए। एक रविवार की सुबह ऐसा हुआ कि ईरेन लोपेज़ नामक एक स्त्री अपने छोटे लड़के के साथ हमारे घर आई। वह यहोवा की साक्षी थी। उसने जो कुछ कहा मैंने उसे सुना, और जब उसने दुबारा भेंट करने के लिए पूछा तो मैंने हाँ कह दिया। अगली बार मुझसे मिलने दो आदमी आए। उनसे बात-चीत करके मुझे दो बातें याद रहीं—सुख-शांति की दुनिया और परमेश्‍वर का राज्य। इन बातों को मैंने बहुत अच्छी तरह अपने दिल में बिठा लिया, और कुछ ही महीनों में यह समझ गया कि अगर मैं साफ अंतःकरण और सच्ची खुशी पाना चाहता हूँ तो मुझे परमेश्‍वर की इच्छा के मुताबिक जीना होगा।

परमेश्‍वर के वचन के मुताबिक जीना शुरू करने के लिए, पहले-पहल तो मेरी साथी मुझसे शादी करने को राज़ी हो गई। लेकिन बाद में वह ऐसे लोगों की गंदी संगति में पड़ गई जो परमेश्‍वर और उसके स्तरों का मज़ाक उड़ाते थे। वसंत की एक शाम, मुझे बहुत भारी धक्का लगा जब मैंने घर आकर यह देखा कि घर में कोई नहीं है। मेरी साथी जा चुकी थी, साथ ही वह हमारी तीन साल की बच्ची को भी ले गई थी। कई दिन तक मैं उनके लौटने की राह देखता रहा—मगर सब बेकार था। परमेश्‍वर को दोष देने के बजाए, मैंने उससे प्रार्थना की कि वह मेरी मदद करे।

कुछ समय बाद मैंने बाइबल उठाई और अपने अंजीर के पेड़ के नीचे जाकर बैठ गया और उसे पढ़ना शुरू कर दिया। असल में, उसका एक-एक शब्द मैं अपने दिल में उतारता जा रहा था। मैंने जबकि मनोचिकित्सकों और मनोविज्ञानियों द्वारा लिखी तरह-तरह की किताबें पढ़ रखी थीं मगर ऐसी बुद्धि की बातें मैंने कभी नहीं पढ़ी थीं। ज़रूर यह किताब परमेश्‍वर की प्रेरणा से लिखी गई होगी। यीशु की शिक्षा और लोगों के स्वभाव को समझने की उसकी क्षमता से मैं हैरान था। भजन संहिता पढ़कर मुझे बहुत सकून मिला और नीतिवचन में ज़बरदस्त बुद्धि की बातें देखकर मैं दंग रह गया। जल्द ही मुझे एहसास हो गया कि सृष्टि का अध्ययन, किसी व्यक्‍ति को परमेश्‍वर की ओर बहुत-ही अच्छी तरह खींच सकता है लेकिन उसके अध्ययन से “उसकी गति के किनारे ही” दिखेंगे।—अय्यूब २६:१४.

मेरे पास साक्षी ये किताबें छोड़ गए थे सत्य जो अनन्त जीवन की ओर ले जाता है और अपना पारिवारिक जीवन आनन्दित बनाना।a इन किताबों को पढ़कर मेरी आँखें खुल गईं। सत्य पुस्तक से मैंने जाना कि क्यों इंसान प्रदूषण, युद्ध, बढ़ती हिंसा और परमाणु विनाश के खतरे का सामना कर रहा है। और जैसे मैं शाम की लालिमा देखकर बता सकता था कि अगले दिन मौसम एकदम ठीक रहेगा, वैसे ही ये सब घटनाएँ साबित करती हैं कि परमेश्‍वर का राज्य निकट है। पारिवारिक जीवन किताब पढ़कर मुझे इच्छा हुई कि काश मैं यह किताब अपनी साथी को दिखा सकता और उससे कह पाता कि अगर हम बाइबल की हिदायतों पर अमल करें तो हम सुखी हो सकते हैं। मगर अब यह सम्भव नहीं था।

आध्यात्मिक उन्‍नति करना

मैं ज़्यादा सीखना चाहता था इसलिए मैंने रोबॆर नामक एक साक्षी से कहा कि मुझसे मिलने आया करे। उसे ताज्जुब हुआ जब मैंने उससे कहा कि मैं बपतिस्मा लेना चाहता हूँ, इसलिए उसने मेरे साथ बाइबल अध्ययन शुरू कर दिया। मैं जो-जो बातें सीख रहा था उन्हें दूसरों को बताता साथ-ही मैंने राज्य-गृह से प्रकाशन लेकर लोगों को देना भी शुरू कर दिया।

रोज़ी-रोटी कमाने के लिए मैं मिस्तरी का कोर्स करने लगा। इस बात को जानते हुए कि परमेश्‍वर का वचन लोगों का कितना भला कर सकता है, मैं हर मौके की तलाश में रहता कि अपने साथी विद्यार्थियों और टीचरों को प्रचार करूँ। एक शाम मैं बरामदे में सॆर्ज़ से मिला। उसके हाथ में कुछ पत्रिकाएँ थीं। मैंने उससे कहा “लगता है कि आपको पढ़ने का शौक है।” उसने कहा “जी हाँ, मगर मैं इन्हें पढ़-पढ़कर बोर हो गया हूँ।” मैंने उससे पूछा “क्या तुम कुछ बढ़िया किताब पढ़ना चाहते हो?” परमेश्‍वर के राज्य के बारे में हमारे बीच बहुत अच्छी बात-चीत हुई। बाद में उसने कुछ बाइबल साहित्य लिए। अगले हफ्ते वह मेरे साथ राज्य-गृह गया, और उसके साथ बाइबल-अध्ययन शुरू हो गया।

एक दिन मैंने रोबॆर से पूछा कि क्या मैं भी घर-घर जाकर प्रचार कर सकता हूँ। वह गया और अपनी अलमारी से मेरे लिए एक सूट निकाल लाया। अगले रविवार मैंने पहली बार सेवकाई में उसके साथ हिस्सा लिया। फिर मैंने अपना जीवन यहोवा परमेश्‍वर को समर्पित किया और इसे मार्च ७, १९८१ में सबके सामने बपतिस्मा लेकर ज़ाहिर किया।

दुख की घड़ी में मदद

इस बीच मुझे पता चला कि आमानडीन और उसकी माँ विदेश में कहाँ रह रहे हैं। मगर सब बेकार; उसकी माँ ने वैध रूप से, उस देश के कानून के मुताबिक जहाँ वह रहती थी मुझे अपनी बेटी से मिलने नहीं दिया। मैं टूट गया था। आमानडीन की माँ ने शादी कर ली थी, और मेरी रही-सही आशा भी टूट कर चकनाचूर हो गई, जब मुझे यह बात बताने के लिए कानूनी नोटिस मिला कि उसके पति ने मेरी बेटी को गोद ले लिया है—पूरी तरह से मेरी मर्ज़ी के बगैर। अब मेरा अपनी बच्ची पर कोई अधिकार नहीं था। मैंने भी कानूनी कार्यवाही की, लेकिन मुझे उससे मिलने का अधिकार नहीं मिला। मेरा दुख इतना बढ़ गया था मानो मैं अपने ऊपर पचास किलो बोझ लादे फिर रहा हूँ।

लेकिन यहोवा के वचन ने मुझे कई तरह से सम्भाला। एक दिन जब मैं बहुत दुखी था, तो मैंने नीतिवचन २४:१० को बार-बार पढ़ा: “यदि तू विपत्ति के समय साहस छोड़ दे, तो तेरी शक्‍ति बहुत कम है।” इस वचन ने मुझे पूरी तरह टूट जाने से बचाया। फिर एक बार, अपनी बेटी से मिलने की नाकाम कोशिश के बाद मैं सेवकाई करने चला गया और अपने बैग के हैंडल को उतनी कस कर पकड़ा जितनी मुझ में ताकत थी। ऐसे मुश्‍किल लमहों में मैंने भजन १२६:६ की सच्चाई को महसूस किया, जो कहता है: “चाहे बोनेवाला बीज लेकर रोता हुआ चला जाए, परन्तु वह फिर पूलियां लिए जयजयकार करता हुआ निश्‍चय लौट आएगा।” इससे मैंने एक ज़रूरी सबक सीखा था कि जब बड़ी समस्याएँ आती हैं, और उन्हें हल करने के लिए जब हम अपनी पूरी जी-जान लगा देते हैं, तो फिर हमें उन बातों को पीछे छोड़ देना चाहिए और यहोवा की सेवा करने में आगे बढ़ते रहना चाहिए। अपना आनंद बनाए रखने का सिर्फ यही एक रास्ता है।

कुछ बेहतर चीज़ पाने की कोशिश

मेरे अंदर बदलाव देखकर मेरे प्यारे पापा-मम्मी मेरी मदद करना चाहते थे कि मैं यूनीवर्सिटी की अपनी पढ़ाई पूरी करूँ। उनके इस प्यार के लिए मैंने उनका धन्यवाद किया मगर अब तो मेरा मकसद कुछ और था। सत्य सीखने के बाद मैं सब मानव-तत्त्वज्ञान, रहस्यवाद और ज्योतिष-विद्या से आज़ाद हो गया था। अब मुझे सच्चे दोस्त मिल गए थे जो कभी युद्ध नहीं करते। इसके अलावा मेरे पास अब उन सवालों का भी जवाब था कि आज पृथ्वी पर इतनी दुख तकलीफें क्यों हैं। मैं परमेश्‍वर का एहसानमंद था और इसलिए उसकी सेवा जी-जान से करना चाहता था। जैसे यीशु ने सेवकाई में खुद को पूरी तरह से लगा दिया था, मैं भी वैसा ही करना चाहता था।

सन्‌ १९८३ में अपने मिस्तरी-व्यवसाय को मैंने बंद कर दिया और पूर्ण-समय का सेवक बन गया। अपनी प्रार्थनाओं के जवाब में मुझे एक बगीचे में पार्ट-टाइम नौकरी मिल गई जिससे मैं अपनी गुज़र-बसर कर सकता था। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा जब मैं और सॆर्ज़ पायनियर स्कूल एक साथ गए, वही जवान जिसे मैंने प्रचार किया था, जब हम दोनों मिस्तरी-स्कूल में थे! तीन साल रैग्यूलर पायनियरिंग करने के बाद मेरे अंदर यह इच्छा हुई कि मैं और ज़्यादा यहोवा की सेवा करूँ। इसलिए १९८६ में मुझे प्रॉवाँ नामक सुंदर गाँव में स्पेशल पायनियर नियुक्‍त किया गया, जो पैरिस से ज़्यादा दूर नहीं था। मैं अकसर शाम को घर लौटने पर घुटने टेक कर यहोवा से प्रार्थना करता और उस दिन के लिए धन्यवाद देता, जिसमें मैंने लोगों को उसके बारे में बताया। असल में, ज़िंदगी में दो बातें मुझे सबसे ज़्यादा खुशी देती हैं, परमेश्‍वर से बात करना और परमेश्‍वर के बारे में लोगों से बात करना।

मेरे लिए एक और खुशी की बात हुई। मेरी मम्मी का बपतिस्मा हुआ। उस समय वो ६८ साल की थीं। वे सेबासाँ में रहती थीं, जो दक्षिणी-फ्रांस में एक छोटा सा गाँव है। जब मेरी मम्मी ने बाइबल पढ़ना शुरू किया था तो मैंने उनके लिए प्रहरीदुर्ग और सजग होइए! का सबस्क्रिप्शन करवा दिया था। वो बहुत समझदार इंसान थीं और बहुत जल्द-ही उन्हें यह महसूस हो गया कि जो वही पढ़ रही हैं वह सच्चाई है।

बॆथॆल—शानदार आध्यात्मिक परादीस

वॉच टावर सोसाइटी ने जब यह फैसला किया कि स्पेशल-पायनियर की संख्या को कम किया जाए, तब मैंने मिनिस्टीरियल ट्रेनिंग स्कूल और बॆथॆल, फ्रांस में यहोवा के साक्षियों के ब्रांच ऑफिस के लिए फॉर्म भर दिए। मैंने सब कुछ यहोवा पर छोड़ दिया कि वही फैसला करे कि मैं कहाँ सबसे अच्छी तरह उसकी सेवा कर सकता हूँ। कुछ महीनों बाद दिसंबर १९८९ में मुझे बॆथॆल में बुलाया गया जो उत्तर-पश्‍चिम फ्रांस के लूवीए में था। यह बहुत अच्छा फैसला साबित हुआ, क्योंकि जब मेरे पापा-मम्मी बहुत बीमार होते तब उनकी सेवा करने में मैं अपने भाई-भाभी का हाथ बँटाने में मदद कर सकता था। ऐसा सम्भव नहीं हो पाता अगर मैं उनके घर से हज़ारों किलोमीटर दूर मिशनरी सेवा करने के लिए चला गया होता।

मेरी मम्मी मुझसे मिलने कई बार बॆथॆल आईं। जबकि उनके लिए मुझसे अलग रहना मुश्‍किल था मगर फिर भी वे अकसर यही कहतीं: “मेरे बेटे, बॆथॆल में ही रहो। मैं बहुत खुश हूँ कि तुम इस तरह यहोवा की सेवा कर रहे हो।” दुख की बात है कि मेरे पापा-मम्मी गुज़र चुके हैं। मगर मुझे इसी पृथ्वी पर उनसे मिलने का बेसब्री से इंतज़ार है, जब यह दुनिया सचमुच में सुख-शांति का बसेरा बन चुकी होगी!

मुझे पूरा यकीन है कि अगर आज किसी घर को सुख-शांति का बसेरा कहा जा सकता है तो वह सिर्फ बॆथॆल है—“यहोवा का भवन”—क्योंकि यहाँ सचमुच सुख-शांति का बसेरा है, जिसमें आध्यात्मिकता वास करती है, हमारे पास यहाँ ये मौका है कि आत्मा के फलों को उत्पन्‍न करें। (गलतियों ५:२२, २३) पारिवारिक प्रहरीदुर्ग अध्ययन और हर सुबह बाइबल पाठ की चर्चा के दौरान हमें बहुत ही बढ़िया आध्यात्मिक भोजन मिलता है और यह मुझे बॆथॆल सेवा में लगे रहने की ताकत देता है। इसके अलावा हमारे पास यह भी मौका है कि ऐसे भाई-बहनों से संगति कर सकें जो बहुत आध्यात्मिक हैं और कई दशकों से यहोवा की सेवा वफादारी से कर रहे हैं। इसकी वज़ह से बॆथॆल ऐसी एक अनोखी जगह बन गया है जहाँ हम आध्यात्मिक रूप से उन्‍नति कर सकते हैं। अब जबकि मुझे अपनी बेटी से जुदा हुए १७ साल बीत चुके हैं, आज मैं बॆथॆल में बहुत-से जोशीले जवान देखता हूँ, जिन्हें मैं अपने बच्चे मानता हूँ, और आध्यात्मिक रूप से आगे बढ़ने के लिए मैं उनकी खुशी-खुशी मदद करता हूँ। पिछले आठ सालों में मैंने सात अलग-अलग जगह काम किया है। जबकि ऐसे बदलाव आसान नहीं थे, मगर ऐसी ट्रेनिंग से आगे चलकर बहुत फायदे होते हैं।

पहले मैं एक ऐसी सेम उगाता था जो सौ गुना फलती थी। ऐसे ही, मैंने यह अनुभव किया कि जब हम बुराई बोते हैं तो सौ गुना ज़्यादा बुराई काटने को मिलती है, और वह भी बार-बार। तज़ुर्बा एक ऐसा स्कूल है जहाँ ठोकर खा-खा कर ही सीखना पड़ता है। ठोकर खाकर सिखने के बजाए काश मैं यहोवा के मार्गों पर चलकर ही बड़ा हुआ होता। यह उन जवानों के लिए कितनी बड़ी आशिष है जिनका परवरिश मसीही माता-पिता करते हैं! बेशक, यह ज़्यादा अच्छा है कि वही बोया जाए जो यहोवा की नज़र में सही है ताकि सौ-गुना ज़्यादा शांति और संतुष्टि का फल मिले।—गलतियों ६:७, ८.

जब मैं पायनियर बना, तो कई बार धार्मिक किताबों की उस दुकान के पास से गुज़रा जिसकी दीवार पर हमने विद्रोह का नारा लिखा था। मैं उस दुकान के अंदर भी गया और मैंने उसके मालिक से जीवते परमेश्‍वर और उसके उद्देश्‍य के बारे में बात भी की। जी हाँ, परमेश्‍वर जीवित है! इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यहोवा ही एकमात्र सच्चा परमेश्‍वर है, एक वफादार पिता जो अपने बच्चों का साथ कभी नहीं छोड़ता। (प्रकाशितवाक्य १५:४) मेरी यही तमन्‍ना है कि सभी देशों के लोग आज उस आध्यात्मिक परादीस को और आनेवाले असली परादीस को पा सकें और जीवते परमेश्‍वर यहोवा की सेवा और स्तुति कर सकें!

[फुटनोट]

a इन प्रकाशनों को वॉच टावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित किया गया है।

[पेज 26 पर तसवीर]

इस शानदार सृष्टि की वज़ह से मैंने अपने मन में ही परमेश्‍वर पर विश्‍वास करने का फैसला किया। (दाएँ) आज बॆथॆल सेवा में

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