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आप शायद अपने भाई को पा लें

“यदि तेरा भाई तेरा अपराध करे, तो जा और अकेले में बातचीत करके उसे समझा; यदि वह तेरी सुने तो तू ने अपने भाई को पा लिया।”—मत्ती १८:१५.

१, २. समस्याओं को सुलझाने के लिए यीशु ने कौन-सी व्यावहारिक सलाह दी?

पृथ्वी पर यीशु की ज़िंदगी का बस एक ही साल बाकी रह गया था और इसके खत्म होने से पहले यीशु अपने चेलों को कुछ ज़रूरी बातें सिखाना चाहता था। ये बातें क्या थीं, इस बारे में आप मत्ती १८ अध्याय में पढ़ सकते हैं। एक सबक था बच्चों की तरह नम्र होने की अहमियत। इसके बाद यीशु ने ज़ोर देकर समझाया कि हमें “इन छोटों में से” किसी एक को भी ठोकर नहीं खिलानी चाहिए और जो “इन छोटों में से” भटक रहे हैं उन्हें वापस सही राह पर लाने की कोशिश करनी चाहिए जिससे कि वे नाश न हो जाएँ। इसके बाद यीशु ने मसीही भाई-बहनों के बीच पैदा होनेवाली समस्याओं को सुलझाने के लिए कुछ ज़रूरी और कारगर सलाह दी।

२ आपको शायद यीशु के शब्द याद हों: “यदि तेरा भाई तेरा अपराध करे, तो जा और अकेले में बातचीत करके उसे समझा; यदि वह तेरी सुने तो तू ने अपने भाई को पा लिया। और यदि वह न सुने, तो और एक दो जन को अपने साथ ले जा, कि हर एक बात दो या तीन गवाहों के मुंह से ठहराई जाए। यदि वह उन की भी न माने, तो कलीसिया से कह दे, परन्तु यदि वह कलीसिया की भी न माने, तो तू उसे अन्यजाति और महसूल लेनेवाले के ऐसा जान।” (मत्ती १८:१५-१७) इस सलाह को हमें कब मानना चाहिए और इसे मानने के बारे में हमें क्या सोचना चाहिए?

३. दूसरों की गलतियों के बारे में आम तौर पर हमें कैसा रवैया अपनाना चाहिए?

३ पिछले लेख में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि हम सब असिद्ध होने के कारण बार-बार पाप करते हैं इसलिए हमें दूसरों को माफ करने की कोशिश करनी चाहिए। खासकर तब जब किसी भाई या बहन ने हमें चोट पहुँचानेवाली बात कह दी हो या हमारे साथ सही तरीके से पेश नहीं आए हों। (१ पतरस ४:८) अकसर सबसे बढ़िया यही होता है कि उनकी गलती को अनदेखा कर दें और बस माफ करके भुला दें। ऐसा करके हम मसीही कलीसिया में शांति कायम रखने में मदद देंगे। (भजन १३३:१; नीतिवचन १९:११) लेकिन, ऐसा भी हो सकता है कि नाराज़ करनेवाले या चोट पहुँचानेवाले भाई-बहन से मिलकर आप मामले को सुलझाना चाहें। ऐसे वक्‍त पर, ऊपर दिए गए यीशु के शब्द हमारी मदद करेंगे।

४. मत्ती १८:१५ का उसूल, दूसरों के गलती करने पर कैसे लागू किया जा सकता है?

४ यीशु ने सलाह दी, “यदि तेरा भाई तेरा अपराध करे, तो जा और अकेले में बातचीत करके उसे समझा।” ऐसा करना अक्लमंदी है। इस आयत को जर्मन भाषा की कुछ बाइबलों में ऐसा कहा गया है, “चार आँखों के सामने” उसकी गलती बता दे, यानी आपकी और उसकी आँखें। जब आप अपने भाई को अकेले में प्यार से समझाते हैं, तो समस्या को सुलझाना आसान हो जाता है। जिस भाई ने कोई अपमानजनक या कठोर बात कह दी हो उसे शायद अकेले में सिर्फ आपके सामने अपनी गलती मान लेने में आसानी होगी। अगर दूसरों के सामने उसकी गलती बताई जाए तो शायद असिद्धता की वज़ह से वह भाई या बहन अपनी गलती न माने या अपनी गलती को सही ठहराने की कोशिश भी करे। इसलिए अगर आप “चार आँखों के सामने” यानी अकेले में उससे बात करते हैं, तो हो सकता है कि आपको पता चले कि उसने जान-बूझकर कोई गलती नहीं की बल्कि यह सिर्फ आपकी गलतफहमी थी। जब आप दोनों समझ लेते हैं कि यह बस एक गलतफहमी थी, तो आप इसे वहीं खत्म कर सकते हैं जिससे एक छोटी-सी समस्या राई से पहाड़ न बन जाए और आप दोनों के बीच एक दीवार बनकर खड़ी न हो जाए। इसलिए, मत्ती १८:१५ का उसूल रोज़मर्रा की छोटी-मोटी नाराज़गियों पर भी लागू किया जा सकता है।

उसका क्या मतलब था?

५, ६. आस-पास की आयतों के मुताबिक मत्ती १८:१५ में किस तरह के पाप का ज़िक्र किया गया है और यह हम कैसे जान सकते हैं?

५ असल में देखा जाए तो यीशु की सलाह बहुत ही नाज़ुक मामलों के बारे में है। यीशु ने कहा: “यदि तेरा भाई तेरा अपराध करे।” मोटे तौर पर देखा जाए तो, किसी भी गलती को “अपराध” या पाप कहा जा सकता है, चाहे वह छोटी हो या बड़ी। (अय्यूब २:१०; नीतिवचन २१:४; याकूब ४:१७) लेकिन आस-पास की आयतें दिखाती हैं कि जिस पाप के बारे में यीशु बता रहा था वह बहुत ही बड़ा रहा होगा। इतना बड़ा कि अपराधी अगर पछतावा न दिखाए तो उसे ‘अन्यजाति का और महसूल लेनेवाला’ कहा जा सकता था। इसका क्या मतलब है?

६ यीशु के ये शब्द सुननेवाले उसके चेले जानते थे कि उनकी जाति के लोग यानी यहूदी, गैर-यहूदियों के साथ मेल-जोल नहीं रखते थे। (यूहन्‍ना ४:९; १८:२८; प्रेरितों १०:२८) और वे महसूल लेनेवालों से खुद को दूर रखते थे क्योंकि महसूल लेनेवाले यहूदी होने के बावजूद, अपनी ही जाति के लोगों के साथ बुरा सलूक करते थे। इसलिए हम कह सकते हैं कि मत्ती १८:१५-१७ में जिन पापों का ज़िक्र किया गया है, वे काफी बड़े रहे होंगे, सिर्फ छोटी-मोटी नाराज़गियाँ नहीं जिन्हें आप माफी देकर भूल सकें।—मत्ती १८:२१, २२.a

७, ८. (क) किस तरह के पापों में प्राचीन की कार्यवाही ज़रूरी होती है? (ख) मत्ती १८:१५-१७ के अनुसार, किस तरह के पापों को दो मसीही आपस में सुलझा सकते हैं?

७ मूसा की व्यवस्था के मुताबिक कुछ पापों के लिए माफी पाना काफी नहीं था। ये ऐसे पाप थे जैसे, परमेश्‍वर की निंदा, धर्मत्याग, मूर्तिपूजा, व्यभिचार या पराई स्त्री या पुरुष के साथ संबंध और एक पुरुष का दूसरे पुरुष के साथ संबंध, वगैरह वगैरह। इन पापों की खबर पुरनियों (या याजकों) को दी जानी थी और वो इस मामले पर ज़रूरी कार्यवाही करते। आज मसीही कलीसिया में भी ऐसा ही होता है। (लैव्यव्यवस्था ५:१; २०:१०-१३; गिनती ५:३०; ३५:१२; व्यवस्थाविवरण १७:९; १९:१६-१९; नीतिवचन २९:२४) लेकिन, ध्यान दीजिए कि मत्ती १८ अध्याय में यीशु ने जिन पापों का ज़िक्र किया वे ऐसे थे जिन्हें दो व्यक्‍ति चाहे तो आपस में सुलझा सकते थे। मिसाल के तौर पर: एक भाई गुस्से या जलन के मारे किसी दूसरे भाई के बारे में झूठी बातें कहता है। एक मसीही किसी काम का कॉन्ट्रैक्ट लेता है, जिसमें वह वादा करता है कि वह खास किस्म का माल इस्तेमाल करेगा और एक ठहराई हुई तारीख तक इसे खत्म कर लेगा। एक भाई कर्ज़ में लिया हुआ पैसा किसी ठहराए हुए दिन तक लौटाने का वादा करता है। एक और मसीही यह वादा करता है कि अगर उसका मालिक उसे ट्रेनिंग दे, तो वह इसका इस्तेमाल (नौकरी छोड़ने के बाद भी) ठहराए हुए समय तक या एक खास इलाके में अपने मालिक के खिलाफ होड़ लगाने के लिए नहीं करेगा या उसके ग्राहकों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश नहीं करेगा।b अगर एक भाई अपना वादा पूरा नहीं करता और उसे अपने किए पर पछतावा भी नहीं, तो यह सचमुच एक गंभीर बात होगी। (प्रकाशितवाक्य २१:८) मगर ऐसे पाप भी दोनों व्यक्‍ति चाहे तो आपस में सुलझा सकते हैं।

८ लेकिन किसी मामले को सुलझाने के लिए सबसे पहले आपको क्या करना चाहिए? यीशु ने जो बताया उसे अकसर तीन कदमों से समझाया जाता है। आइए हर कदम पर गौर करें। इन्हें ऐसे कानून न समझें जिन्हें रत्ती भर भी बदला नहीं जा सकता। लेकिन, यह समझने की कोशिश कीजिए कि यीशु क्या कहना चाहता है और कभी-भी यह नहीं भूलिए कि आपका मकसद है प्यार से अपने भाई को पा लेना।

अपने भाई को पा लेने की कोशिश कीजिए

९. मत्ती १८:१५ की सलाह पर चलते वक्‍त हमें किस बात का ध्यान रखना चाहिए?

९ यीशु ने यूँ शुरूआत की: “यदि तेरा भाई तेरा अपराध करे, तो जा और अकेले में बातचीत करके उसे समझा; यदि वह तेरी सुने तो तू ने अपने भाई को पा लिया।” बेशक, यह कदम सिर्फ शक की बुनियाद पर नहीं उठाया जा सकता। आपके पास पक्का सबूत या सही-सही जानकारी होनी चाहिए कि आपके भाई ने गलती की है ताकि आप अपने भाई को यह समझने में मदद कर सकें कि उसने गलती की है और उसे सुलझाना बहुत ज़रूरी है। यह कदम जल्द-से-जल्द उठाना ज़रूरी है, इस तरह मामला ज़्यादा नहीं बढ़ेगा ना ही वक्‍त के बीतते-बीतते दूसरे व्यक्‍ति का रवैया कठोर होगा। और याद रहे दिन-रात इसके बारे में चिंता करते रहने से आपका भी नुकसान होगा। और क्योंकि यह बातचीत आप दोनों के बीच होनेवाली है, तो यह ज़रूरी है कि आप इस बारे में किसी और को न बताएँ। उनकी हमदर्दी पाने या उनकी नज़रों में खुद को अच्छा दिखाने के लिए ऐसा करना सही नहीं होगा। (नीतिवचन १२:२५; १७:९) क्यों? क्योंकि आप अपने भाई को पाना या जीतना चाहते हैं।

१०. अपने भाई को पा लेने में कौन-सी बात हमें मदद करेगी?

१० किसी भी तरह अपने भाई को पाना ही आपका मकसद होना चाहिए, न कि यह कि उसे सज़ा दें, उसकी बेइज़्ज़ती करें या उसे पूरी तरह बरबाद कर दें। अगर उसने सचमुच पाप किया है तो यहोवा के साथ उसका रिश्‍ता खतरे में है। बेशक आप चाहते हैं कि वह आपका भाई बना रहे। ऐसा करने में आप तभी कामयाब होंगे अगर आप अकेले में की गयी बातचीत में शांत रहते हैं, कठोर शब्द नहीं बोलते या उस पर दोष लगाने के लहज़े में बात नहीं करते। इस आपसी मुलाकात में, याद रखिए कि आप दोनों ही असिद्ध और पापी इंसान हैं। (रोमियों ३:२३, २४) जब उसे यह एहसास होगा कि आपने उसके बारे में दूसरों से बात नहीं की है और जब वह समझेगा कि आप उसकी मदद करना चाहते हैं तो समस्या बड़ी आसानी से सुलझायी जा सकती है। इस तरह प्यार से पेश आना सचमुच अक्लमंदी होगी, खासकर अगर आपको पता चलता है कि दोनों ने ही बराबर गलती की है या सारी समस्या की जड़ सिर्फ एक गलतफहमी है।—नीतिवचन २५:९, १०; २६:२०; याकूब ३:५, ६.

११. हमारे खिलाफ अपराध करनेवाला भाई अगर हमारी नहीं सुनता, तब भी हम क्या कर सकते हैं?

११ अगर आप अपने भाई को उसकी गलती का एहसास कराएँ और उसकी गंभीरता समझाएँ, तो हो सकता है कि उसे पछतावा हो। लेकिन, पछतावा दिखाने में शायद उसका घमंड आड़े आए। (नीतिवचन १६:१८; १७:१९) इसलिए अगर वह पहली बार में अपनी गलती मानकर पछताता नहीं है, तो अगला कदम उठाने से पहले कुछ समय तक रुकना अच्छा होगा। यीशु ने यह नहीं कहा, ‘तेरा भाई तेरा अपराध करे, तो सिर्फ एक बार जा और अकेले में बातचीत करके उसे समझा।’ (तिरछे टाइप हमारे।) उसका पाप ऐसा है जो आपस में ही सुलझाया जा सकता है तो इसलिए गलतियों ६:१ को ध्यान में रखते हुए “चार आँखों के सामने” यानी उससे दोबारा अकेले मिलने की कोशिश कीजिए। हो सकता है इस बार आप कामयाब हो जाएँ। (यहूदा २२, २३ से तुलना कीजिए।) लेकिन, अगर आपको यकीन है कि वह भाई अपने पाप का पछतावा नहीं करेगा, तब क्या?

तजुर्बेकार भाइयों की मदद लेना

१२, १३. (क) गलतियों को सुधारने की कार्यवाही में यीशु ने दूसरा कदम कौन-सा बताया? (ख) इस सलाह को लागू करने में कौन-सी सावधानी बरतना अच्छा होगा?

१२ अगर आपने कोई बड़ी गलती की है तो क्या आप चाहेंगे कि आपकी मदद करनेवाले थोड़ी-बहुत कोशिश करके जल्द ही हार मानकर बैठ जाएँ? बिलकुल नहीं। उसी तरह, यीशु ने दिखाया कि पहले कदम से अगर आप अपने भाई को नहीं पाते हैं, तो आपको चुप नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि आप चाहते हैं कि परमेश्‍वर की सेवा सही तरीके से करने में वह आपके और दूसरों के साथ मिला रहे। यीशु ने दूसरा कदम भी बताया: “यदि वह न सुने, तो और एक दो जन को अपने साथ ले जा, कि हर एक बात दो या तीन गवाहों के मुंह से ठहराई जाए।”

१३ यीशु ने कहा ‘एक दो जन’ को साथ ले जा। उसने यह नहीं कहा कि पहला कदम उठाने के बाद आप इस बारे में किसी से भी बात कर सकते हैं, सफरी ओवरसियर से भी मशविरा कर सकते हैं या दूसरे भाइयों को भी चिट्ठी लिख सकते हैं। आपको पूरा यकीन हो सकता है कि भाई ने गलती की है, मगर इसे पूरी तरह साबित नहीं किया गया। आप ऐसी गलत बातें नहीं फैलाना चाहेंगे जिसकी वज़ह से आप पर किसी के खिलाफ झूठ बोलने का इलज़ाम लग सकता है। (नीतिवचन १६:२८; १८:८) लेकिन यीशु ने तो कहा था कि एक या दो जन को साथ ले जा। क्यों? ये एक या दो जन कौन हो सकते हैं?

१४. दूसरे कदम के लिए आप किसे अपने साथ ले जा सकते हैं?

१४ आप चाहते हैं कि आपका भाई अपने किए पर पछताए और आपके साथ और परमेश्‍वर के साथ फिर से शांति कायम करे, इस तरह आप उसे पा लेना चाहते हैं। मगर, ये सब करने के लिए अच्छा होगा कि वे ‘एक दो जन’ ऐसे व्यक्‍ति हों जो इस गलती के चश्‍मदीद गवाह हैं। शायद वे उस वक्‍त वहीं मौजूद थे या उन्हें इस बात की सही-सही जानकारी हो कि बिज़नॆस के मामले में क्या किया गया (या क्या नहीं)। अगर कोई गवाह नहीं है, तो आप उन भाइयों को शामिल कर सकते हैं जिन्हें ऐसे मामले सुलझाने का तजुर्बा हो ताकि वे फैसला कर सकें कि जो कुछ हुआ वह सही था या गलत। इसके अलावा, अगर बाद में ज़रूरत पड़े, तो ये भाई गवाही दे सकते हैं कि जो कुछ कहा गया है वह सच है या नहीं और गलती को सुधारने के लिए क्या किया गया है। (गिनती ३५:३०; व्यवस्थाविवरण १७:६) इसलिए ये भाई सिर्फ सलाह-मशविरा देने के लिए नहीं होते हैं बल्कि वे इस मामले में पूरी-पूरी दिलचस्पी लेते हैं ताकि उस व्यक्‍ति को पा लें जो आपका और उनका भी भाई है।

१५. अगर हमें दूसरा कदम उठाना है तो मसीही प्राचीन क्यों हमारी मदद कर सकते हैं?

१५ यह ज़रूरी नहीं कि आप जिन भाइयों को अपने साथ ले जाएँगे वे कलीसिया के प्राचीन ही होने चाहिए। लेकिन, प्राचीन आध्यात्मिक बातों में तजुर्बेकार और काबिल होते हैं इसलिए वे आपकी अच्छी तरह मदद कर सकते हैं। ऐसे प्राचीन “मानो आंधी से छिपने का स्थान, और बौछार से आड़ [हैं]; या निर्जल देश में जल के झरने, व तप्त भूमि में बड़ी चट्टान की छाया” हैं। (यशायाह ३२:१, २) उन्हें भाई-बहनों को समझाने और उन्हें फिर से सही राह पर ले आने का तजुर्बा होता है। और जिसने गलती की है वह भी ऐसे ‘मनुष्यों में दान’c पर भरोसा रख सकता है। (इफिसियों ४:८, ११, १२) ऐसे तजुर्बेकार मसीहियों के सामने इस मामले पर बात करने से और उनके साथ प्रार्थना करने से माहौल में ऐसी ताज़गी पैदा हो सकती है कि बहुत ही उलझी हुई समस्या भी सुलझ जाए।—याकूब ५:१४, १५ से तुलना कीजिए।

उसे पा लेने की आखिरी कोशिश

१६. यीशु ने तीसरा कदम कौन-सा बताया?

१६ अगर दूसरे कदम से भी मामला न सुलझे, तो तीसरे कदम में कलीसिया के प्राचीनों का शामिल होना ज़रूरी है। “यदि वह उन [एक या दो जन] की भी न माने, तो कलीसिया से कह दे, परन्तु यदि वह कलीसिया की भी न माने, तो तू उसे अन्यजाति और महसूल लेनेवाले के ऐसा जान।” इसका क्या मतलब है?

१७, १८. (क) ‘कलीसिया से कहने’ का क्या मतलब है, यह समझने में हमें पुराने ज़माने की कौन-सी मिसाल मदद देती है? (ख) यह तीसरा कदम उठाने के लिए आज क्या किया जाता है?

१७ इस हिदायत का मतलब यह नहीं कि अपने भाई की गलती या पाप को, किसी मीटिंग में पूरी कलीसिया को बता दिया जाए। हम परमेश्‍वर के वचन से ही जान सकते हैं कि हमें क्या करना चाहिए। प्राचीन इस्राएल में जब कोई विद्रोह करता, पेटू या पियक्कड़ बन जाता तो देखिए उसके साथ क्या किया जाना था: “यदि किसी का पुत्र हठी और विद्रोही हो, जो अपने पिता या अपनी माता की आज्ञा न माने, और जब वे उसकी ताड़ना करें तब भी उनकी न सुने, तो उसके माता-पिता उसे पकड़कर अपने नगर के फाटक पर नगर-प्राचीनों के पास ले जाएं। वे अपने नगर-प्राचीनों से कहें, ‘हमारा यह पुत्र हठी और विद्रोही है, यह हमारी नहीं सुनता और यह पेटू और पियक्कड़ है।’ तब उस नगर के सब मनुष्य पथराव करके उसको मार डालें।” (तिरछे टाइप हमारे)—व्यवस्थाविवरण २१:१८-२१, NHT.

१८ उस आदमी के पाप का सारी इस्राएल जाति में या उसके पूरे गोत्र में ऐलान नहीं किया जाना था ताकि वे उसका न्याय कर सकें। इसके बजाय, ठहराए गए “नगर-प्राचीन” पूरी जाति की तरफ से इस मामले को निपटाते थे। (व्यवस्थाविवरण १९:१६, १७ से तुलना कीजिए, जिसमें “उन दिनों के याजकों और न्यायियों” द्वारा सुलझाए गए एक मामले का ज़िक्र है।) उसी तरह, आज जब तीसरा कदम उठाना ज़रूरी हो जाता है तब कलीसिया की तरफ से प्राचीन मामले को सुलझाते हैं। उनका मकसद भी वही होता है कि अगर मुमकिन हो तो अपने भाई का पा लें। ऐसा करने के लिए वे न्याय से काम करते हैं, पहले से ही कोई राय कायम नहीं कर लेते न ही किसी की तरफदारी करते हैं।

१९. किसी मामले की सुनवाई के लिए ठहराए गए प्राचीन क्या करने की कोशिश करेंगे?

१९ ये प्राचीन पेश की गयी सारी जानकारी की अच्छी तरह जाँच-परख करेंगे और सभी गवाहों की बात सुनेंगे जिससे यह फैसला किया जा सके कि वाकई पाप हुआ है (और अब भी हो रहा है) या नहीं। वे कलीसिया को किसी भी तरह से भ्रष्ट नहीं होने देना चाहते और इस संसार की आत्मा से कलीसिया की हिफाज़त करना चाहते हैं। (१ कुरिन्थियों २:१२; ५:७) बाइबल में बतायी उनकी काबिलीयत के मुताबिक वे पूरी कोशिश करते हैं कि “खरी शिक्षा से उपदेश दे स[कें], और विवादियों का मुंह भी बन्द कर स[कें]।” (तीतुस १:९) वे उम्मीद करते हैं कि पाप करनेवाला उन इस्राएलियों जैसा न हो जिनके बारे में यहोवा के भविष्यवक्‍ता ने लिखा: “जब मैं ने तुम्हें बुलाया तुम ने उत्तर न दिया, जब मैं बोला, तब तुम ने मेरी न सुनी; वरन जो मुझे बुरा लगता है वही तुम ने नित किया, और जिस से मैं अप्रसन्‍न होता हूं, उसी को तुम ने अपनाया।”—यशायाह ६५:१२.

२०. अगर एक पापी किसी की नहीं सुनता और पछतावा नहीं दिखाता तो यीशु ने क्या करने के लिए कहा?

२० कुछ मामलों में पाप करनेवाले का रवैया भी उन इस्राएलियों जैसा ही होता है जिन्होंने पछतावा नहीं दिखाया। ऐसे वक्‍त पर क्या करना है इस बारे में यीशु ने साफ-साफ सलाह दी: “तू उसे अन्यजाति और महसूल लेनेवाले के ऐसा जान।” यीशु यह नहीं कह रहा था कि हमें पाप करनेवाले के खिलाफ क्रूरता से पेश आना चाहिए या उसे चोट पहुँचाने की कोशिश करनी चाहिए। प्रेरित पौलुस ने भी साफ-साफ बताया कि पछतावा न दिखानेवाले पापियों को कलीसिया से बाहर किया जाना चाहिए। (१ कुरिन्थियों ५:११-१३) यह भी हो सकता है कि उसे बाहर करने से, बाद में वह पछतावा दिखाए और हम उसे वापस पा लें।

२१. कलीसिया से निकाले जाने के बाद भी पापी के लिए क्या करने का मौका खुला है?

२१ तो हम देख सकते हैं कि पाप की सज़ा पाने के बाद भी उसका वापस आना मुमकिन है, यह बात उड़ाऊ पुत्र के बारे में यीशु के दृष्टांत से और साफ ज़ाहिर होती है। जैसे कहानी में यीशु ने बताया, वह पापी बेटा अपने पिता के घर के प्यार भरे माहौल से कुछ समय के लिए बाहर रहा लेकिन बाद में उसके “होश ठिकाने आये।” (लूका १५:११-१८, ईज़ी-टु-रीड वर्शन) पौलुस ने तीमुथियुस से कहा कि कुछ समय बाद हो सकता है कि कुछ पापी “सचेत होकर शैतान के फंदे से छूट” जाएँ और अपने किए पर पछताएँ। (२ तीमुथियुस २:२४-२६) हम भी ज़रूर यही उम्मीद करेंगे कि जो कोई अपने किए पर पछतावा नहीं करता और पाप करता रहता है और जिसे कलीसिया से निकालना पड़ता है, उसके होश ठिकाने आएँ और वह समझ सके कि उसने क्या-क्या खो दिया है। बेशक परमेश्‍वर की आशीष और वफादार भाई-बहनों का सच्चा प्यार और उनसे मेल-जोल उसे कहीं और नहीं मिलेगा।

२२. यह कैसे हो सकता है कि आखिरकार हम अपने भाई को पा लें?

२२ यीशु ने अन्यजाति के लोगों और महसूल लेनेवालों को गए-गुज़रे लोग नहीं समझा, मानो वे कभी-भी सुधर नहीं सकते। एक महसूल लेनेवाले, मत्ती लेवी ने पश्‍चाताप दिखाया और सच्चे मन से ‘यीशु के पीछे हो लिया।’ उसे यीशु ने एक प्रेरित भी नियुक्‍त किया। (मरकुस २:११-१५; लूका १५:१) इसलिए, अगर आज एक पापी “कलीसिया की भी न माने” और उसे कलीसिया से निकाल दिया जाता है तो भी हम उम्मीद कर सकते हैं कि कुछ समय बाद शायद उसे पछतावा हो और वह सही राह पर आ जाए। जब वह वापस आ जाता है और फिर से कलीसिया का सदस्य बन जाता है तो हमें इस बात की खुशी होगी कि आखिरकार हमने अपने भाई को पा ही लिया और सच्ची उपासना में अब वह भी हमारे साथ है।

[फुटनोट]

a मैक्लिंटॉक और स्ट्रांग की साइक्लोपीडिया कहती है: “नये नियम में बताए गए सरकारी मुलाज़िम [महसूल लेनेवाले] देशद्रोही और धर्मत्यागी समझे जाते थे। गैर-यहूदियों के साथ उनके मेल-जोल रहने की वज़ह से वे भ्रष्ट हो चुके थे और ज़ुल्म ढानेवाले के हाथों की कठपुतलियाँ थे। उन्हें पापी समझा जाता था . . . ऐसे लोगों के साथ कोई भी इज़्ज़तदार आदमी दोस्ती नहीं रखता था, इसलिए उनके दोस्त या साथी भी वही होते थे जो उनकी तरह समाज के ठुकराए हुए थे।”

b बिज़नेस या पैसे के लेन-देन में अगर कुछ हद तक धोखाधड़ी या जालसाज़ी की गयी है तो ये मामले भी यीशु द्वारा बताए गए पाप में शामिल किए जा सकते हैं। हम यह इसलिए कह सकते हैं क्योंकि मत्ती १८:१५-१७ की हिदायत देने के बाद यीशु ने ऐसे दासों (नौकरी करनेवालों) का दृष्टांत बताया जिन पर कर्ज़ था मगर वे इसे चुका न पाए।

c बाइबल के एक विद्वान कहते हैं: “कभी-कभी ऐसा होता है कि गलती करनेवाला, एक आदमी के बजाय दो या तीन लोगों की सलाह पर ज़्यादा ध्यान देता है (खासकर अगर वे ऐसे लोग हैं जिनका वह आदर करता है)। और अगर सलाह देनेवाले आदमी से उसका मतभेद है तो वह शायद उसकी बात सुनना नहीं चाहेगा”।

क्या आपको याद है?

◻ मत्ती १८:१५-१७ खासकर किस तरह के पाप पर लागू होता है?

◻ अगर हमें पहला कदम उठाना पड़े तो हमें क्या याद रखना चाहिए?

◻ दूसरा कदम उठाने में कौन हमारी मदद कर सकता है?

◻ तीसरा कदम उठाने में कौन शामिल होते हैं और आखिरकार हम अपने भाई को कैसे पा सकते हैं?

[पेज 18 पर तसवीर]

यहूदी लोग महसूल लेनेवालों से दूर-दूर रहते थे। मत्ती बुराई की राह छोड़कर यीशु के पीछे हो लिया

[पेज 20 पर तसवीर]

अकसर हम “चार आँखों के सामने” ही किसी मामले को सुलझा सकते हैं

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